कुछ समय पहले आस्थाएँ आकांक्षाएँ एवं संवेदनाओं का प्रथक् अस्तित्व नहीं माना जाता था। उसे विचार पद्धति का ही एक रूप कहा गया था। अचेतन मन के पुराने अभ्यासों का उभार भर मनोविज्ञानी उसे मानते थे। पर अब उसका स्वतन्त्र अस्तित्व मान लिया गया है। संवेदनाएँ एवं आस्थाएँ मात्र वातावरण में व्यक्तियों से प्रभावित नहीं होती वरन् उनका सम्बन्ध जीव चेतना की मूल सत्ता से है। परिष्कृत अन्तःकरण को देखकर ही आत्मा की उच्च स्थिति मानी जाती है। जीवात्मा के तीन गुण अध्यात्म शास्त्र के अनुसार गिनाये गये है। (१) सत् (२) शिव (३) सुन्दर। जीवन तत्व की व्याख्या "सत्यं शिवं सुन्दरम्" के रूप में की गई है। विज्ञान की भाषा में- सत् को उत्कृष्टता के प्रति आस्था-श्रद्धा कहा गया है। शिव का तात्पर्य है विवेक युक्त दूरदर्शी दृष्टिकोण तदनुरूप आकांक्षाओं का प्रवाह। सुन्दरम् सौन्दर्य बोध, कलात्मकता, संवेदना। आत्मभाव का जिस पर भी आरोपण होता है, वह सुन्दर लगने लगता है। कला दृष्टि से सौन्दर्य बनकर प्रतिविम्बित होती है अन्यथा इस जड़ जगत के पदार्थों में सौन्दर्य जैसा कुछ दीखता नहीं।
आस्था, उमंग और सरसता के समन्वय को अन्तःकरण या अन्तरात्मा कहा जा सकता है। पुरानी परिभाषा में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को अन्तःकरण चतुष्ट्य कहा जाता रहा है। अस्तु यदि वस्तुस्थिति समझने में उस नामकरण में भ्रम उत्पन्न होता हो तो अन्तःकरण के स्थान पर अन्तरात्मा शब्द प्रयुक्त हो सकता है। मन :शास्त्र के अनुसार इसे चेतना की अत्यन्त परिष्कृत स्थिति कह सकते हैं। इसमें भौतिक तत्वों का कम और आत्मिक उत्कृष्टता का समावेश अधिक है। भौतिकता प्रधान मन पर वासना, तृष्णा, अहंता ही छाई रहती है, उसमें स्वार्थ सिद्धि ही प्रधान आधार होती है। अन्तरात्मा का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ बन जाता है। उसकी आत्मीयता शरीर परिवार तक सीमित न रह कर सार्वजनिक बन जाती है। आस्थाएँ वातावरण से सम्पर्क में नहीं आदर्शों से प्रभावित होती हैं। आकांक्षाएँ लाभ को दृष्टि में रखकर नहीं उत्कृष्टता के समर्थन पर केन्द्रित होती रहती हैं। लाभ की दृष्टि से सौन्दर्य का आरोपण नहीं होता वरन् पदार्थों के अन्तराल में थिरकने वाली कला का सूक्ष्म दर्शन ही अन्तरात्मा में हुलास- उल्लास उत्पन्न करता है। संक्षेप में चेतना की वह उच्चस्तरीय परत जो आत्मा के अति समीप है, जो वातावरण से प्रभावित कम होती है और उस पर अपनी मौलिकता का प्रभाव अधिक छोड़ती है- अन्तरात्मा कही जायेगी। किसी को आपत्ति न हो तो इसी को अन्तःकरण शब्द में भी सम्बोधित किया जा सकता है।
इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति चेतना त्रिवेणी के ही त्रिविध प्रवाह हैं। इनका उद्गम स्रोत अन्तरात्मा है। वहाँ की उमंगे ही इच्छा को दिशा देती हैं, उसका संकेत पाकर मस्तिष्कीय ताना वाना बुना जाता है। वहाँ के निर्देशों का पालन बिना ननुनच किए शरीर स्वामिभक्त सेवक की तरह करता रहता है। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा और संसार का सम्पर्क सूत्र इसी केन्द्र से जुड़ता है। जीवन का स्वरूप यहीं बनता है और उसका प्रवाह यही से निसृत होता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे 'सुपरचेतन' कह सकते हैं। दार्शनिको ने इसे अतिमानस माना है। यों अरविन्द, नीत्से आदि ने अतिमानस की व्याख्याएँ परस्पर विरोधी की हैं। तो भी उनका तात्पर्य चेतना के उस स्तर से है जिसे व्यक्तित्व का उद्गम अथवा मर्मस्थल कहा जा सके। प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति के अस्तित्व में मूल-भूत सत्ता इस अन्तरात्मा की ही काम करती पाई है और उसी की सर्वोपरि गरिमा स्वीकार की है।
साधना विज्ञान में इसी अन्तरात्मा को 'विज्ञानमय कोश' कहा है। उसके परिष्कृत प्रयासों को योगाभ्यास में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। आस्थाओं का परिमार्जन होने से जीवन के बहिरंग स्वरूप में कायाकल्प होते देर नहीं लगती। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाल, अजामिल, सूर, तुलसी आदि के जीवन परिवर्तन को एक प्रकार से आध्यात्मिक कायाकल्प ही कह सकते हैं। सामान्य स्थिति के मनुष्य असामान्य स्तर के महामानव बने हैं। इसमें भी आस्थाओं का उन्नयन ही प्रधान भूमिका निवाहता दृष्टिगोचर होता है। कबीर, दादू रैदास, रामदास, रामकृष्ण, विवेकानन्द, शंकराचार्य, दयानन्द आदि महामानव परिस्थितियों के हिसाब से कुछ अच्छी स्थिति में नहीं जन्मे थे। लिंकन, वाशिंगटन आदि की प्रगति में उनकी परिस्थिति की नहीं मनःस्थिति की ही प्रधान भूमिका रही है। ध्रुव, प्रह्लाद, बुद्ध, महावीर आदि जन्मे तो राज परिवारों में थे, पर व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने का कोई वातावरण उपलब्ध नहीं था। नारद आदि की प्रेरणा से अथवा स्व संवेदनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी आस्थाओं में परिवर्तन किया और उतने ऊँचे जा पहुँचे जितने की सामान्यतया कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह अन्तःकरण के परिवर्तन एवं परिष्कार का ही चमत्कार है। यह विज्ञानमय कोश किस प्रकार परिष्कृत होता है इसके कितने ही मार्ग एवं उपाय हो सकते हैं। अनायास संयोग, दैवी अनुग्रह आदि अन्य कारण भी इस क्षेत्र के विकास परिष्कार के कारण हो सकते हैं, पर प्रयत्न पुरुषार्थ पर क्रमिक गति से अन्तःकरण का स्तर ऊँचा उठाने की प्रक्रिया विज्ञानमय कोश की साधना ही मानी गई है।
विज्ञानमय कोश का यह बहिरंग जीवन पक्ष हुआ। उसकी एक दिशा धारा सूक्ष्म जगत की ओर भी प्रवाहित होती है। हिमालय की दो प्रधान धाराएँ गंगा और यमुना के रूप में प्रवाहित होती हैं। अन्तःकरण को हिमालय माना जाय तो उसकी एक प्रक्रिया सामान्य मनुष्य को महान आत्मा, देवात्मा, परमात्मा स्तर तक ऊँचा उठा ले जाने वाली कही जा सकती है। दूसरी वह है जो सूक्ष्म जगत के साथ जीव-सत्ता का सम्पर्क जोड़ती है। दोनों के बीच महत्वपूर्ण आदान-प्रदान सम्भव करती है।
हम जिस दुनिया के सम्पर्क में हैं, वह स्थूल जगत है। यह इन्द्रिय गम्य है। इसके भीतर प्रकृति की वह सत्ता है जो पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं शक्ति के रूप में विद्यमान है और बुद्धिगम्य है। इस स्थूल जगत का परिचय, इन्द्रियों से, बुद्धि से यन्त्र उपकरणों से मिलता है। पदार्थों और प्रकृति शक्तियों का लाभ उठा सकना भी उपरोक्त स्थूल साधनों से सम्भव हो जाता है। इससे आगे सूक्ष्म जगत का अस्तित्व आरम्भ होता है, जो इन्द्रियगम्य न होने से अतीन्द्रिय या इन्द्रियातीत कहा जाता है। प्रयोगशाला में उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता और बुद्धि ही उनका आधार एवं कारण समझ सकने में समर्थ होती है। इतने पर भी उस सूक्ष्म जगत का आधार अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है। उसका अस्तित्व स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। जहाँ तक मानवी बुद्धि का सम्बन्ध है वहाँ अतीन्द्रिय कही जाने वाली ऐसी हलचलों का पता लगता है जो विदित आधारों से सर्वथा भिन्न हैं। मनुष्य, मनुष्यों के बीच चलने वाले विचार, संचार को टैलीपैथी कहते हैं। दूरवर्ती घटनाओं का अनायास आभास मिलने के असंख्य प्रमाण मिलते हैं। इसे दूरदर्शन कह सकते हैं। भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास मिलना ऐसा तथ्य है जिसे झुटलाया नहीं जा सकता। ऐसे घटनाक्रम यों सर्वदा सब पर प्रकट नहीं होते- फिर भी जब भी जिन्हें भी ऐसी अनुभूतियाँ हुई हैं, वे ऐसी हैं जिनके आधार पर किसी अविज्ञात सूक्ष्म जगत का परिचय मिलता है और विदित होता है कि उसमें भी अपनी ही दुनिया की तरह कुछ न कुछ हलचलें होती अवश्य हैं। मरणोत्तर जीवन को प्रमाणित करने में भूत प्रेतों के अस्तित्व और पुनर्जन्म के विवरण एक समस्या के रूप में सामने आते हैं। जीवन के उपरान्त जीवात्मा की सत्ता कहाँ रहती है ? वहाँ उसका निवास-निर्वाह कैसे होता है ? इन प्रश्नों का समाधान सूक्ष्म जगत का अस्तित्व स्वीकार किये बिना और किसी तरह हो ही नहीं सकता। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों में विचित्र प्रकार की अति मानवी क्षमताएँ देखी गई हैं। इन्हें चमत्कारी सिद्धियाँ कहा जाता है। शाप, वरदान से लेकर आश्चर्यजनक कृत्य उपस्थित कर देने तक की विचित्रिताएँ कैसे, कहाँ से, उत्पन्न होती हैं इसका उत्तर सूक्ष्म जगत की सत्ता स्वीकार किये बिना और किस प्रकार दिया जा सकता है ?
जन्म जात रूप से किन्हीं बालकों में ऐसी विशेषताएँ पाई जाती हैं जिनकी सामान्य विकास क्रम के साथ कोई संगति नहीं बैठती। किन्हीं की स्मृति, सूझ- बूझ ऐसी होती है जिसे विलक्षण कहा जा सकता है। भूमिगत जल स्रोतों को बना कर जल समस्या के समाधान के चमत्कार कितने ही सिद्ध पुरुषों ने दिखाये हैं। बिना अन्न जल के निर्वाह शरीर विज्ञान की दृष्टि से असम्भव है पर पोहारी बाबा जैसे व्यक्तियों ने उस असम्भव का सम्भव होना सिद्ध किया है। पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की निगरानी में हरिदास नामक साधु ने कई महीने की लम्बी भूमि समाधि ली थी। ऐसे चमत्कार अन्यत्र भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। देवताओं का अनुग्रह-मृतात्मा के सहयोग-मन्त्र साधना के प्रतिफल आदि ऐसे अनेकों तथ्य हैं जिन्हें अन्ध-विश्वास कह कर टाला नहीं जा सकता। मिस्त्र के पिरामिडों की खोज बीन करने वाले शोधकर्त्ताओं पर विपत्तियों के पहाड़ टूटते रहे हैं, उन्हें संयोग मात्र कहने से काम नहीं चल सकता। योगियों में पाई जाने वाली कई तरह की विचित्रताएँ अकारण नहीं हो सकती। ईश्वर भक्तों को जो विशिष्टताएँ उपलब्ध होती रहीं हैं, वे मूढ़ मान्यताएँ भर नहीं हैं, दन्त कथाएँ उनसे जुड़ी तो हो सकती हैं पर वह पूरे का पूरा अन्ध-विश्वास भर है यह कह देना तथ्यों से आँखें मीच लेने जैसा होगा। बुद्धि की समझ में जो न आये वही अप्रमाणिक, वही अविश्वस्त यह दुराग्रह कुछ समय पहले तक तो प्रबल था, पर अब विचारशीलता ने सन्तुलन साधा है और वही गम्भीरतापूर्वक सूक्ष्म जगत के अस्तित्व की शोध की जा रही है।
सूक्ष्म जगत की एक भौतिकवादी सत्ता ही ऐसी सामने आ खड़ी हुई है जो अध्यात्मवादियों के द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म जगत से भी विचित्र और सशक्त है। यह मान्यता प्रति पदार्थ की- प्रति विश्व की है। एन्टीमैटर-ऐन्टी यूनिवर्स के तथ्य इस प्रकार सामने आये हैं कि उनके आधार पर एक अपने साथ सटे हुए विलक्षण विश्व का अस्तित्व जुड़ा देख कर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।
तन्त्र विज्ञान में 'छाया पुरुष' साधना का उल्लेख है। कहा गया है कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाला एक जीवित प्रेत होता है और वह साथ ही रहता है- इसकी देवता या भूत-प्रेत जैसी साधना करके उसे आज्ञानुवर्ती बनाया जा सकता है। स्थूल शरीर- स्थूल कार्य करता है और सूक्ष्म शरीर- सूक्ष्म स्तर के काम कर सकता है। छाया पुरुष की सिद्धि में अपना ही एक और शरीर अपने हाथ आ जाता है, और इन दोनों शरीरों से दो प्रकार के काम एक साथ करना सम्भव हो जाता है। इस प्रतिपादन में एक प्रति मनुष्य का छाया पुरुष का अस्तित्व और क्रिया-कलाप बताया गया है। देखा जाता है कि प्रकाश में अपनी ही एक और छाया उत्पन्न हो जाती है और वह साथ-साथ रहती है। सूक्ष्म शरीरधारी छाया पुरुष की स्थिति सजीव छाया जैसी समझी जा सकती है। यह नामकरण इसी आधार पर किया गया है।
मूर्धन्य वैज्ञानिकों के सामने ऐन्टी-एटम-एन्टी मैटर-एन्टी युनिवर्स का अस्तित्व एक चुनौती के रूप में खड़ा है। उसे उसे अस्वीकार करते नहीं बनता। यदि उस अस्तित्व के तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं और उस प्रति विश्व की गति-विधियों से मनुष्य का सम्बन्ध जुड़ जाता है तो निश्चित रूप से एक जादुई दैत्य युग में हम सब जा खड़े होंगे। प्रति परमाणु की शक्ति अपने जाने माने परमाणु की तुलना में अत्यधिक है। अपने परिचित संसार की तुलना में अपरिचित ''एन्टी युनिवर्स'' की सम्पदा-क्षमता एवं विशालता बहुत बड़ी है। उसके सन्तुलन में अन्तर पड़ जाय तो देखते-देखते 'ऐन्टी युनिवर्स' का महादैत्य अपने प्रत्यक्ष संसार को निगल कर हजम कर सकता है, और हिरण्याक्ष की उस पौराणिक कथा का एक प्रत्यक्ष दृश्य उपस्थित हो सकता है जिसमें वह महादैत्य, उस पृथ्वी को बगल में दबा कर पाताल लोक को भाग गया था। छाया पुरुष और 'प्रतिविश्व' की चर्चा यहाँ यह समझने के लिए की गई है कि सूक्ष्म जगत के समतुल्य अपने ही इर्द गिर्द बिखरे हुए एक सूक्ष्म जगत के अस्तित्व को समझने में सुविधा है। इन्द्रियों की पकड़ न आने वाली यह दुनिया इतनी विलक्षण है कि उसकी हलचलों का दृश्य संसार पर भारी प्रभाव पड़ता है। पदार्थों, प्राणियों और परिस्थितियों पर उस सूक्ष्म जगत की हलचलें आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं। प्रयत्न और पुरुषार्थ के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता, पर यह भी एक तथ्य है कि अदृश्य जगत का अतिघनिष्ठ और अति प्रभावशाली सम्पर्क दृश्य जगत से है।
जीवधारी की चेतना ब्रह्माण्ड व्यापी महा चेतना का एक अंश है। अंश और अंशी के गुण, धर्म, समान होते हैं। अन्तर विस्तार के अनुरूप क्षमता का होता है हम सब चेतना के महासमुद्र में छोटी बड़ी मछलियों की तरह जीवन-यापन करते हैं। महाप्राण ब्रह्म की सत्ता में ही अल्पप्राण जीव अनुप्राणित होता है।
मैटर का सूक्ष्मतम स्वरूप अब परमाणु नहीं रहा। उसके भीतर भी अनेक घटक स्वतन्त्र इकाइयों के रूप में काम करते हैं। वे इलेक्ट्रोन आदि के भीतर भी सूक्ष्म तत्व हैं। पदार्थ अन्ततः तरंगे न रह कर 'ऊर्जा' मात्र रह जाता है। यह ऊर्जा 'इकालजी' विज्ञान के अनुसार जड़ नहीं, विवेक युक्त चेतन है। विज्ञान में पदार्थ का सूक्ष्मतम स्वरूप इन दिनों 'क्वान्टा' के रूप में निर्धारित किया है इसे चेतन और जड़ का सम्मिश्रित रूप कह सकते हैं। उसकी व्याख्या विचारशील ऊर्जा के रूप में की जाती है। अध्यात्म की भाषा में इसे अर्ध नारी नरेश्वर कह सकते हैं- प्रकृति पुरुष का सम्मिश्रण इस क्वन्टा को कह सकते हैं। अनुमान है कि अगली पीढ़ी के वैज्ञानिक इस ‘क्वान्टा' का विश्लेषण करते करते शुद्ध ब्रह्म तक जा पहुँचेंगे, और वेदान्त की तरह स्वीकार करेंगे कि सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म संव्याप्त है। चेतना का महासमुद्र ही सर्वत्र लहलहा सकता है। जड़ पदार्थ-दृश्य जगत तो उसकी हिलोरें मात्र हैं।
जीव और ब्रह्म के मध्य आदान-प्रदान के सुदृढ़ सूत्र विद्यमान हैं। उनमें अवरोध आत्मा पर चढ़े हुए कषाय कल्मषों के कारण उत्पन्न होता है। इन्हें हटाया जा सके तो ब्रह्माण्डीय चेतना और जीव चेतना के मध्य महत्वपूर्ण आदान- प्रदान चल पड़ते हैं। भौतिक अंश का भार बढ़ जाने से जीव प्रकृति परक हो जाता है उसकी प्रवृत्ति भौतिक आकांक्षाओं और उपलब्धियों में ही सीमित हो जाती है। फलत: वह स्वल्प, सीमित और दरिद्र दिखाई पड़ता है। यदि जीव सत्ता को निर्मल रखा जा सके तो उसकी सूक्ष्मता ब्रह्म-तत्व से, सूक्ष्म जगत से अपना घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। यह आदान-प्रदान जिसके लिए भी सम्भव हुआ है वह देवोपम स्तर की स्थिति बना सका है। ऐसे लोगों को स्थूल जगत की अपेक्षा सूक्ष्म जगत से अधिक महत्वपूर्ण अनुदान अधिक मात्रा में मिलने लगते हैं। वह सम्पदा व्यक्ति को सच्चे अर्थों में समुन्नत बनाती है। इस उपलब्धि के सहारे वह अपने सम्पर्क क्षेत्रों के असंख्यों का तथा समूचे संसार का महत्वपूर्ण हित साधन कर सकता है।
सूक्ष्म जगत का अस्तित्व स्वीकार न करने की बात कुछ शताब्दियों पूर्व अनास्थावादियों की आग्रह पूर्वक कह सकने की स्थिति थी। तब विज्ञान और बुद्धि वाद का इतना विकास नहीं हुआ था। आज की स्थिति भिन्न है। एक के बाद एक तथ्य उभरता हुआ सामने आया है। और उसने सूक्ष्म जगत का- विश्व चेतना का प्रतिपादन किया है। तत्वदर्शी मनीषियों ने तो उसे दृश्य जगत की तरह ही प्रत्यक्ष माना था और उसके साथ सम्पर्क बनाने का विशालकाय अध्यात्मवादी ढाँचा खड़ा किया था। लगता है वह दिन दूर नहीं जब अध्यात्म और विज्ञान सूक्ष्मता के क्षेत्र में मिल जुलकर प्रवेश करेंगे और जड़ चेतन के क्षेत्र को एकाकार करके सर्वतोमुखी प्रगति का पथ- प्रशस्त करेंगे। छाया पुरुष साधना की तरह हम स्थूल के साथ-साथ सूक्ष्म जगत का भी, ज्ञान वृद्धि एवं सुविधा सम्पदा के लिए उपयोग कर सकते हैं। दृश्य प्राणियों की तरह अदृश्य जगत में विद्यमान अशरीरी समर्थ आत्माओं के साथ सम्पर्क साध सकते हैं। जमीन पर लड़ी जाने वाली लड़ाई की तुलना में वायु सेना द्वारा लड़े जाने वाले युद्ध के परिणाम अधिक दूरगामी होते हैं। श्रम से ज्ञान का महत्व अधिक है। परमाणु के दृश्य अस्तित्व का मूल्य नगण्य है किन्तु उसके विस्फोट से उत्पन्न ऊर्जा का मूल्य अत्यधिक ही आँका जायेगा। दृश्य शरीर से अदृश्य आत्मा का महत्व कितना है- यह सर्वविदित है। स्थूल जगत को प्रभावित करने वाले सूक्ष्म जगत से सम्पर्क साध सकने की जो क्षमता विज्ञानमय कोश की साधना से मिलती है, उसे महत्वहीन नहीं कहा जा सकता।
विज्ञानमय कोश की प्रसुप्त स्थिति को हटा कर उसमें जागृति उत्पन्न कर पर मनुष्य सामान्य न रह कर असामान्य बन जाता है। उसे अनेक प्रकार की असाधारण विशेषताएँ प्राप्त कर सकने का अवसर मिलता है। सूक्ष्म जगत का उपयोग कर सकने की सफलताओं को सिद्धियाँ कहा गया है। साधना से सिद्धि की प्रचलित उक्ति को विज्ञानमय कोश की सफलता कहा जाये तो कुछ अनुचित न होगा।
सिद्धियों का वर्णन साधना शास्त्र में स्थान-स्थान पर मिल सकता है। इस प्रकार की सफलता प्राप्त करने के लिए विज्ञानमय कोश के जागरण का प्रयत्न करना पड़ता है। इस सन्दर्भ में कुछ संकेत इस प्रकार मिलते हैं-
वपुषः कान्तिरुत्कृष्टा जठराग्निविवर्धनम्।
आरोग्यं च पटुत्वं च सर्वज्ञत्वं च जायते।
भूतं भव्यं भविष्यच्च वेत्ति सर्वं सकारणम्।
अश्रुतान्यपि शास्त्राणि सरहस्यं वदेद् ध्रुवम्।
वक्त्रे सरस्वती देवी सदा नृत्यति निर्भरम्।
मन्त्र सिद्धिर्भवेत्तस्य जपादेव न संशय:।
-शिव संहिता ८७-८८-८९
आत्म साधना से शरीर में उत्तम कान्ति उत्पन्न होती है। जठराग्नि बढ़ती है, शरीर निरोग होता है, पटुता और सर्वज्ञता प्राप्त होती है तथा सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
भूत, भविष्य और वर्तमान काल की सब वस्तुओं के कारण का ज्ञान होता है। जो शास्त्र सुने नहीं जाते उनके रहस्य जानने तथा व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त होती है।
उस योग साधक की जिह्वा पर सरस्वती नृत्य करती और मन्त्र आदि सरलता पूर्वक सिद्ध होते हैं-
यथा वा चित्तसामार्थ्य जायते योगिनो ध्रुवम्।
दूरश्रुतिर्दूरदृष्टि: अणाद्दूरागमस्तथा।।
वाक्सिद्धिः कामरूपत्वमदृश्यकरणी तथा। योग तत्वोपनिषद्
जैसे-जैसे चित्त की सामर्थ्य बढ़ती है, वैसे ही वैसे दूर श्रवण, दर्शन, वाक् सिद्धि, कामना पूर्ति, आदि अनेकों दिव्य सिद्धियाँ मिलती चली जाती हैं।
आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
विकारं मानस योगी प्रत्याहारेण सर्वदा।
धारणाभिर्मनोधैर्यं ध्यानादैश्वर्यमुत्तमम्।
समाधौ मोक्षमाप्नोति त्यक्तकर्मशुभाशुभः ।
वशिष्ठ संहिता
आसन से रोग, प्राणायाम से पातक, प्रत्याहार से मनोविकार दूर होते हैं और धारण से धैर्य, ध्यान से ऐश्वर्य और समाधि से मोक्ष प्राप्त होता है। कर्म बंधन कटते हैं।
ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःख विधातास्त्रय: सुहृत्प्राप्तिः।
दानं च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धे:पूर्वोऽङ्द्कुशलस्त्रिविधः।
सा० का० ५ ९
ऊह, शब्द, अध्ययन, सुहृद प्राप्ति, दान, आध्यात्मिक दुःख हीन, आधिदैविक दुःख हीन यह आठं सिद्धियाँ हैं।
(१) ऊह सिद्धि अर्थात् पूर्व जन्म के स्वरूप का ज्ञान। (२) शब्द सिद्धि अर्थात शब्दों का ठीक तात्पर्य समझना (३) अध्ययन सिद्धि- अध्ययन में अभिरुचि और उससे प्रकाश ग्रहण करने की क्षमता (४) सुहृत्प्राप्ति अर्थात् भावनाशील मित्र की प्राप्ति (५) दान सिद्धि- उदार स्वाभाव एवं परमार्थ परायण प्रवृत्ति (६) आध्यात्मिक दुःखों का नाश (७) आधिदैविक दुःखों का नाश (८) आधि भौतिक दुःखों का नाश जिससे हो सके ऐसी विवेक दृष्टि की प्राप्ति।
करामलकवद्विश्वं सेन योगी प्रपश्यति।
दूरतो दर्शनं दूरश्रवणं चापि जायते ।।
भूतं भव्यं भविष्य च वेत्ति सर्व सकारणम्।
ध्यानमात्रेण सर्वेषां भूतानां च मनोगतम्।।
अंतर्लीनमना योगी जगत्सर्व प्रपश्यति।
सर्वगुप्तपदार्थानां प्रत्यक्षत्वं च जायते।।
-योग रसायन
योगी को अदृश्य जगत दृश्यवत् दीखता है। उसे दूर दर्शन, दूर श्रवण आदि की सिद्धियाँ उपलब्ध रहती हैं। ध्यान मात्र से योगी भूत, भविष्य, वर्तमान तथा प्राणियों के मनोगत भाव जान लेता है।
चेतना के चतुर्थ आयाम विज्ञानमय कोश की मूर्छता यदि दूर की जा सके तो सूक्ष्म जगत के साथ सम्बन्ध जुड़ सकता है और उस क्षेत्र में बिखरी पड़ी ऐसी विभूतियों का लाभ मिल सकता है जो सर्व साधारण के लिये सामान्यतय: उपलब्ध नहीं हैं।