गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

सूक्ष्म शरीर की दिव्य ऊर्जा और उसकी विशिष्ट क्षमता

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पदार्थ का गुण हैं क्रिया। शरीर प्रकृत पदार्थों से बना है अस्तु उसमें निर्वाह के निमित्त चलने वाली पाचन रक्ताभिषरण आकुंचन-प्रकुंचन जैसी आन्तरिक गतिविधियों का चलना स्वाभाविक है। निर्वाह के अतिरिक्त शरीर का दूसरा दायित्व हैं सुविधाओं का उपार्जन अवरोधों का निराकरण। यह भी बहिरंग क्रियाशीलता है। शरीर की गतिविधियों का समापन इसी छोटे क्षेत्र में हो जाता है। समस्त प्राणी इसी गतिचक्र में भ्रमण करते हुए शरीर यात्रा पूरी करते हैं। जिनकी क्षमता एवं चेष्टा इसी परिधि में सीमाबद्ध है उन्हें स्थूल शरीर में आवद्ध कहा जाता है।

मनुष्य का दूसरा कलेवर है सूक्ष्म शरीर। वह इच्छा, विचारणा की दृष्टि से स्थूल शरीर जैसी आदतों का अभ्यस्त हो सकता है, पर उसे निर्वाह के लिए साधन नहीं जुटाने पड़ते। ऋतु प्रभावों से प्रताड़ित नहीं होना पड़ता। मात्र इच्छा और आदत ही भली बुरी क्रिया-प्रतिक्रिया उत्पन्न करती रहती हैं यही उसका स्वनिर्मित परलोक है। स्वर्ग और नरक की भाव संवेदनाओं से सूक्ष्म शरीर धारी इसी स्थिति में आँख मिचौनी खेलता रहता है। दृश्य की दृष्टि से स्थूल शरीर और अदृश्य में प्रखर होने की दृष्टि से सूक्ष्म शरीर वरिष्ठ बैठता है।

आमतौर से मरने के उपरान्त ही प्रेत पितर के रूप में सूक्ष्म शरीर का अनुभव होता है। कभी कभी दिव्य स्वप्नों में भी उसके पृथक् अस्तित्व का परिचय मिलता है। किन्तु बात बहुत आगे तक चली जाती है। मानवी सत्ता ने तीन कलेवर ओढ़े हैं। 'स्थूल' अर्थात् दृश्यमान। 'सूक्ष्म' अर्थात् अदृश्य किन्तु अधिक व्यापक अधिक सक्षम। 'कारण' अर्थात् दिव्य लोक से सम्बन्ध ब्राह्मी चेतना के साथ तालमेल बिठाने आदान प्रदान करने में समर्थ ए तीनों ही स्तर क्रमश: अधिकाधिक उच्च स्तर की विशेषताओं विभूतियों से सम्पन्न पाए जाते हैं।

देवात्मा, ऋद्धि-सिद्ध पुरुष, अवतार, कारण शरीर की योग साधना एवं तपश्चर्या द्वारा समुन्नत बनते हैं और स्वर्गवासियों की तरह जीवन मुक्तों की स्थिति में रहते हैं। सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व दृश्यमान काया में रहते हुए मनोबल के रूप में प्रकट होता रहता है। गुण कर्म, स्वभाव की विशेषताएँ सूक्ष्म शरीर में ही केन्द्रीभूत रहती है। साहस, सख्त, पराक्रम रख दृष्टिकोण की जाँच पड़ताल करके सूक्ष्म शरीर के उत्थान पतन का अनुमान लगाया है। प्रतिभावना ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी देखने में सामान्य होते हुए भी सूक्ष्म शरीर की दृष्टि से प्रखर पहलवान होते हैं। इन्द्रिय शक्ति से आगे बढ़कर अतीन्द्रिय क्षमताओं से सुसम्पन्न होना ऋद्धि सिद्धियों की दृष्टि से अपने विभूति भण्डार भरे रहना सूक्ष्म शरीर के लिए ही सम्भव है।

स्थूल शरीर को स्वस्थ, सुडौल, समर्थ, दीर्घ जीवी बनाना, बनाए रखना आहार विहार पर प्रकृति अनुसरण पर निर्भर है। व्यायाम, टॉनिक आदि के आधार पर उसकी स्वाभाविक पुष्टाई कुछ अधिक भी हो सकती है। वस्त्राभूषणों से उसे सजाया भी जा सकता है किन्तु सूक्ष्म शरीर को समर्थ बनाने के लिए दृष्टिकोण एवं स्वभाव संस्कार का परिमार्जित करना आवश्यक है। उसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही स्वार्थ को घटाने परमार्थ को बढ़ाने के लिए लोक मंगल की सेवा की सेवा साधना को भी चिन्तन तथा व्यवहार के साथ जोड़ना पड़ता है। आदर्शों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए शौर्य, पराक्रम एवं त्याग बलिदान की वरिष्ठता का भी परिचय देना पड़ता है। सूक्ष्म शरीर ऐसे ही आधार अपनाने से बलिष्ठ होता है। उसका सहयोग पाकर स्थूल शरीर की क्षमता अनेक गुनी बढ़ जाती है। व्यक्तित्व की प्रखरता प्रतिभा के रूप में प्रकट होती है। असामान्य क्षमताओं के धनी प्राय: इसी स्तर के होते हैं।

कुछ लोगों के सूक्ष्म शरीर पूर्व संचित संस्कार सम्पदा के कारण अनायास भी अपनी विशिष्टता का परिचय देने लगते हैं। किन्तु साधारणतया प्रयत्नपूर्वक ही उसे बलिष्ठ बनाना पड़ता है। जिस कारण भी वह समुन्नत हुआ हो अपनी विशेषताओं का ऋद्धि सिद्धियों के रूप में परिचय देने लगता है। अतीन्द्रिय क्षमताऐं ही ऋद्धि सिद्धियाँ है। इनकी साधारण झाँकी प्रतिभा के रूप में परिलक्षित होती है। अग्रगामी, दुस्साहसी प्राय: सूक्ष्म शरीर के क्षेत्र में ही अपनी विशिष्टता का भण्डार भरे रहते हैं।

इस अदृश्य विशिष्टता का कभी कभी किसी किसी में परिचय मिलता है तो लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं और उसे किसी देवता का अनुग्रह मानने लगते हैं। वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। सूक्ष्म शरीर ही निकटतम देवता है। उसे छाया पुरुष से लेकर पीर बैताल जैसे अनेकों चमत्कारी परिचय देते देखा जाता है। आत्म देव सबसे बड़ा देवता है। उसकी उपासना का हाथों हाथ प्रतिफल मिलता है। वर्तमान या भूतकाल में जो उसकी जितनी साधना कर चुके कर रहे हैं वे उसी अनुपात से चमत्कारी और 'सिद्ध पुरुष' कहलाते हैं। इन विशेषताओं का परिचय जहाँ तहाँ अनायास भी मिलता रहता है। प्रयत्नपूर्वक तो उन्हें कोई भी कभी भी उपार्जित कर सकता है।

शरीर में काम करने वाली गर्मी तथा गतिशीलता से सभी परिचित हैं। अध्यात्म विज्ञानी जानते हैं कि सूक्ष्म शरीर में दिव्य ऊर्जा के भण्डार भरे पड़े हैं। उसकी बिजली न केवल व्यक्ति की पुरुषार्थ क्षमता को अनेकों गुना बढ़ा देती है वरन् ऐसे काम भी करे दिखाती है जिन्हें सामान्यजनों के लिए असम्भव ही कहा जाता है। पर इसमें अलौकिक जैसी कोई बात है नहीं। सूक्ष्म शरीर की दिव्य ऊर्जा के ए साधारण और स्वाभाविक चमत्कार हैं। यान्त्रिक बिजली जब इतने बड़े काम कर सकती है तो सूक्ष्म शरीर की दिव्य ऊर्जा अपनी विशिष्टता क्यों सिद्ध न करेगी ? दिव्य ऊर्जा का प्रवाह कभी कभी सूक्ष्म शरीर से फूटकर स्थूल शरीर में प्रवेश करने लगता है तो मनुष्य एक चलता फिरता बिजली घर जैसा दीखने लगता है।

प्राचीन भारतीय योगी चाँगदेव के बारे में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अपनी मौत को १४ बार वापस लौटाया था ईसा मसीह के समय से लेकर बारहवीं शताब्दी तक सन्त ज्ञानेश्वर के समय तक उनकी योग गाथाओं के उल्लेख मिलते हैं। १४०० वर्ष की आयु में शेर के ऊपर सवार होकर हाथ में वे नाग का चाबुक लेकर सन्त ज्ञानेश्वर के पास पहुँचे थे। लोगों के द्वारा चुनौती दिए जाने पर एक बार हवा में स्थिर रहकर उन्होंने प्रवचन दिया था। एक के ऊपर एक क्रमश: चौबीस चौकियाँ रखकर मंच बनाया गया प्रवचन देते समय उनके संकेत के अनुसार सारी चौकियाँ हटा दी गयीं। वे हवा में अवस्थित हुए ही प्रवचन करते रहे। लोगों ने उनका जय जयकार किया तो उन्होंने इतना ही कहा कि इसमें उनका अपना कुछ भी बड़प्पन नहीं, वरन् योग क्रियाओं के अभ्यास का ही यह चमत्कार है।

तिब्बत में सूक्ष्म शरीर को मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा सकने सम्बन्धी काफी प्रयत्न हुए हैं। इनका वर्णन 'टिबटन बुक ऑफ दी डेड' एवं "सीक्रेट योग आफ टिबेट'' पुस्तक में विस्तारपूर्वक दिया गया है। एक रूसी ग्रन्थ "हार्ट ऑफ एशिया'' में तिब्बत तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में विद्यमान सूक्ष्म शरीरधारी शक्तियों के क्रिया कलापों का महत्वपूर्ण विवरण है।

   कभी कभी ऐसी घटनाऐं भी घटित होती देखी जाती हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि कोई आत्मा अपना शरीर छोड़कर किसी दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और शरीर धारी का व्यक्तित्व लुप्त होकर अधिकार करने वाली आत्मा जैसा ही आचरण उस शरीर से बन पड़ता है। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि स्थूल शरीर से पृथक् सूक्ष्म शरीर का पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व है। शरीर में सन्निहित प्राण चेतना उसमें घुली रहने पर भी अपना पृथक् अस्तित्व बनाए रखती है।

पुराणों में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व सिद्ध करने वाली अनेक घटनाओं का सुविस्तृत वर्णन मिलता है। श्री आद्य शंकराचार्य की वह कथा प्रसिद्ध है जिसमें उनने अपना सूक्ष्म शरीर राजा के मृत शरीर में प्रविष्ट किया था और उद्देश्य पूरा होने पर फिर वापस अपनी स्थूल काया में लौट आए थे। रामकृष्ण परमहंस ने महा प्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बार दर्शन तथा परामर्श दिए थे। पुराणों में तो पग पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है। प्रख्यात परामनोविज्ञानी ''एडगर केसी" की कृति ''लाइफ रीडिंग्स" में भी सूक्ष्म शरीर के बारे में विस्तृत जानकारी है। राबर्ट ए० मोनरो ने "जर्नीज आउट आफ द बॉडी" नामक पुस्तक में प्राण शरीर सम्बन्धी अपने अनुभवों को लिखा है। उनके अनुसार सूक्ष्म शरीर को भौतिक शरीर की भाँति प्रयुक्त कर मनुष्य एक ही शरीर से दुहरे काम कर सकता है।

प्राणायाम विद्या में निष्णात कर्नल टाउन सेण्ड के बारे में प्रसिद्ध है कि वे अमेरिका की प्रख्यात अणु विज्ञानी श्रीमती जे० सी० ट्रस्ट की तरह अपने प्राण शरीर को स्थूल काया से अलग करने का प्रदर्शन किया करते थे। सूक्ष्म शरीर से यात्रा करके वे दूर रखे श्याम पट तक जाते और उस पर कुछ बातें स्पष्ट करके पुनः अपने शरीर में आ जाते। मूर्धन्य शरीर शास्त्री एवं चिकित्सक उनके शरीर का परीक्षण करके उसे मृत घोषित कर देते। यह प्रयोग वहाँ उपस्थित गणमान्य नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धि जीवियों एवं वैज्ञानिकों के समक्ष बार बार दुहराया गया।

प्रकृति की गोद में भी कुछ ऐसे मानवतर प्राणी पाए गए हैं जिन्हें परकाया प्रवेश की क्षमता जन्मजात मिली होती है। वे भी योगियों जैसे अपने स्थूल और सूक्ष्म शरीर को अलग-अलग करने की विद्या में पारंगत होते हैं। प्रशान्त महासागर में सेमाफ्रो द्वीप के निकट 'पोलैलो' नामक ऐसा जीव पाया जाता है जो वर्ष में दो बार आश्विन एवं कार्तिक के महीनों में छोटे छोटे ज्वारों के समय अपने घोंसले से बाहर निकलता है। इसी मध्य जल की सतह पर वह अपने अण्डे देता है। अपने साथ वह शरीर का केवल वही भाग लेकर बाहर आता है जितना उसके तैरने और अण्डा देने के काम आता है। शेष आधा शरीर मृत स्थिति में अपने घोंसले में ही सुरक्षित छोड़ आता है। अण्डे देकर जब पानी की सतह से वापस अपने घोंसले में पहुँचता है तो कुशल योगी की भाँति अपने मृत शरीर से जुड़ जाता है और उसमें रक्त व प्राण का संचार चालू कर देता है। प्रकारान्तर से यह भी एक यौगिक प्रक्रिया है।

डा० वानडेन फेक ने परकाया प्रवेश से सम्बधित अनेक तथ्यों की खोजबीन की थी और अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि भारतीयों द्वारा चोटी रखने का स्थान ऐसा जागृत केन्द्र है जिसका मनुष्य के प्राण शरीर से गहरा सम्बन्ध रहता है। सम्भवत: यही वह स्थान है जहाँ से सूक्ष्म शरीर का बहिर्गमन होता है। मनुष्य की मानसिक शक्तियों के विकास में भी इस स्थान का विशेष महत्त्व है।

अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न कितने ही भारतीय योगियों ऋषियों का उल्लेख मिलता है जो एक स्थान पर बैठकर समस्त विश्व की गतिविधियों एवं भावी घटनाक्रमों का न केवल पता लगा लेते थे, वरन् सूक्ष्म शरीर से सुदूर क्षेत्रों की यात्रा करके अपने प्रिय पात्रों को सहायता प्रदान करते एवं आवश्यक प्रेरणा भरे परामर्श देते थे। योगी तैलंग स्वामी, स्वामी विशुद्धानन्द, स्वामी निगमानन्द , मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, जालन्धरनार्थ आदि के बारे में सूक्ष्म शरीर द्वारा यात्रा के ऐसे कितने ही वर्णन मिलते हैं जिनसे प्राण शरीर की प्रचण्डता और स्थूल काया से उसकी पृथक् सत्ता की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। इटली के विख्यात सन्त पादरी पियो ने इस तरह से कितने ही जरूरतमन्दों की सहायता की थी। थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम व्लावटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने कमरे में बन्द होने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थी। पाश्चात्य योग साधकों में से हैबर्टलमान लिण्डार्स एण्डु जैक्सन, डा० माल्थस कारिंगटन हुरावेल मुलडोन ओलिवर लॉज, पावर्स, डा० मेस्मर, ऐलेकजेण्ड्रा डेविडनील पॉल ब्रण्टन आदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। जे० मुलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक् करने के कितने ही प्रदर्शन भी कर चुके थे। उनने इस सबकी चर्चा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ''दी प्रोजेक्शन आफ एस्ट्रल बॉडी" में विस्तारपूर्वक की है।

शरीर से प्राण भिन्न है। वह शरीर के साथ तो घुला ही रहता है, पर ऐसा भी कई बार देखा गया है कि प्राण निकल जाने पर भी शरीर काम करता रहता है। इसी प्रकार शरीर को सब परीक्षणों द्वारा मृत घोषित कर दिए जाने पर भी आत्मा का एक सूक्ष्म भाग शरीर के साथ जुड़ा रहता है और वह उसी प्रकार काम करता रहता है मानो वह वस्तुतः जीवित है।

इस प्रकार की एक घटना का वर्णन सुप्रसिद्ध गुह्यविज्ञानी टी० लाबसांग रम्पा ने अपनी पुस्तक "यू फार एवर" में किया है। घटना फ्राँस की क्रान्ति के समय की है जिसमें एक फ्रासीसी सैनिक के सिर से धड़ के अलग कर दिए जाने पर भी कटे सिर के मुँह से फुसफुसाहट भरी कुछ आवाज निकल रही थी| इसका रिकार्ड अभी भी फ्रांस के सरकारी कागजातों में मौजूद है। श्री रम्पा के अनुसार यह सूक्ष्म शरीर का ही कार्य है जो भौतिक शरीर के मृत हो जाने पर भी उसे चैतन्य बनाए रख सकता है।

  प्राण की शरीर से पृथक् इस सत्ता को अब वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों द्वारा भी सही पाया गया है। स्थूल शरीर के न रहने पर भी इस सूक्ष्म शरीर के बने रहने के बारे में अनेकों प्रमाण जुटाए गए हैं।

एक व्यक्ति की प्राण चेतना दूसरे के शरीर में प्रवेश करके अपने अस्तित्व का परिचय देती है। शक्तिपात में यही प्रयोग चलता है। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी प्राण चेतना विवेकानन्द को हस्तान्तरित कर दी थी। उसी शक्ति के प्रताप से वे देवसंस्कृति का व्यापक प्रसार कर सकने में समर्थ हुए।

सत्संग और कुसंग में यही प्रयोजन एक सीमित मात्रा में अनायास ही सम्पन्न होता है। बुरों की संगति में एक अच्छा मनुष्य भी बुरा बन जाता है क्योंकि एक समुदाय की शक्ति एकाकी व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेती है। यही बात बहुत सज्जनों के बीच रहकर एक दुर्जन के बदलने के रूप में भी देखी जाती है। माता पिता के गुणों में से ही बहुतेरे गुण सन्तान में हस्तान्तरित होते हैं। यह भी एक प्रकार का प्राण परिवर्तन ही है। पति पत्नी के मध्यवर्ती विद्युत शक्ति एक दूसरे के साथ मिलकर दोनों पक्षों के लिए एक-एक ग्यारह का निमित्त कारण बनती है। इसी प्रकार दुराचारी-दुराचारिणियो का सम्पर्क उनकी कुटिलता को और भी भड़काता है। अपराधियों के गिरोह बन जाते हैं। नशेबाजों और जुआरियों की मण्डलियाँ गठित हो जाती हैं। इन प्रत्यक्ष देखे जाने वाले अनुभवों से भी यही बात सिद्ध होती है कि बलवान प्राण दुर्बल प्राणों पर हावी हो जाता है और उन्हें वशवर्ती बना लेता है।

विभिन्न शारीरिक क्रियाऐं हलचलें प्राण की सक्रियता पर ही निर्भर हैं। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं, वह अनुभूतियाँ प्राण शरीर की ही हैं। दिव्यदृष्टि, दूर श्रवण, दूर दर्शन, विचार संचालन, भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियाँ भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्चस्तरीय योग साधना द्वारा इसी सूक्ष्म शरीर को समर्थ बनाया जाता है। ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को ही माना जाना चाहिए एवं उसे विकसित कर देवोपम उपलब्धियाँ हस्तगत किए जाने का पुरुषार्थ किया जाना चाहिए।   

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