गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

चेतना के पाँच आयाम पंच कोश उपासना

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मानवी सत्ता को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- काया और चेतना। शरीर पंचतत्वों से बना है- वायु, जल, आकाश, अग्नि और पृथ्वी। इन पाँचों के समन्वय- सन्तुलन पर शरीर का अस्तित्व बना रहता है। सभी की, शरीर में अपनी उपयोगिता एवं महत्ता है। शरीर संस्थान को स्वस्थ एवं आरोग्य बनाए रखने में इन पंचतत्वों की असाधारण भूमिका होती है। पंचतत्वों के अनुदान पर ही शरीर पुष्ट बना रहता है।

अविच्छिन्न रूप से जुडा़ हुआ दूसरा पक्ष चेतना का है। जो शरीर की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान एवं सूक्ष्म है। आत्मसत्ता भी पंच अवरणों से लिपटी पडी़ है। चेतना के ए पाँच दिव्य कोश हैं। जिनमें एक से एक बढ़ कर सम्भावनाऐं निहित हैं। इन पाँच कोशों में पाँच देवसत्ताऐं निवास करती हैं।

कोश कहते हैं खजाने या आवरण को। मानवी सत्ता में पाँच अत्यन्त बहुमूल्य रत्न भण्डार छिपे पडे़ हैं। इन्हें खोज निकालने से जो लाभ मिलते हैं उन्हें प्रसिद्ध पंच देवताओं का अनुग्रह बरसने के समतुल्य माना गया है। भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह पाँच देवता माने गए हैं। यह देव शक्तियाँ ब्रह्माण्ड व्यापी भी हैं और कायसत्ता में भी उनके केन्द्र संस्थान विद्यमान हैं। भीतर औत बाहर दोनों ही जगह उसका अस्तित्व छोटे और बडे़ आकार में विद्यमान हैं। कोश विज्ञान के अनुसार जीवन सत्ता का विभाजन पांच वर्गों में हुआ है- (१) अन्नमय कोश (२)प्राणमय कोश (३) मनोमय कोश (४) विज्ञानमय कोश और (५) आनन्दमय कोश। यह सामान्यतया मूर्छित, प्रसुप्त स्थिति में पडे़ रहते हैं। बीज के भीतर भी वृक्ष बनने की क्षमता तो आरम्भ से ही विद्यमान रहती है पर वह प्रकट तभी होती है जब उसे विधिवत बोया उगाया जाता है। पाँचकोश भी तिजोरी के भीतर पाँच तालों के भीतर सम्पत्ति की तरह समझे जा सकते हैं। ऊपरी परतों की अपेक्षा नीचे की परतें अधिक बहुमूल्य हैं एवं स्तर के अनुरूप वे एक के बाद एक ऊँचे होते चले गए हैं। तदनुरूप उनकी शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ भी अधिक उच्चस्तरीय अधिक महत्त्वपूर्ण होती चली गई हैं।

मानवी सत्ता जड़ शरीर और चेतन आत्मा के समन्वय से बनी है। इन दोनों खण्डों के पाँच- पाँच भाग हैं। शरीर के जड़ पदार्थ को तत्व कहते हैं। तत्व पांच हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। जीवन चेतना को प्राण कहते हैं। प्राण के पाँच भाग है। प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान। पाँच तत्व और पाँच प्राणों के समन्वय से पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ बनी हैं। पदार्थों की इन्द्रियो द्वारा जो अनुभूति होती है। उन्हें तन्मत्राऐं कहते हैं। तन्मात्राऐं पाँच हैं शब्द, रूप, रस, गन्ध स्पर्श। इन्हीं का विस्तार काय कलेवर में दृष्टिगोचर होता है। इसी को प्रपंच कहते हैं। प्रपंच में फँसा हुआ प्राणी बद्ध और उससे छूटा हुआ मुक्त कहलाता है।

इस तरह पंच- कोशों को पंच तत्वों और पंच प्राणों के समन्वय से बनी हुई ऐसी अदृश्य सत्ता कह सकते हैं, जो शरीर के आकार प्रकार की तो होती है, पर उसमें स्थूल का अंश बहुत स्वल्प और सूक्ष्मता की मात्रा अत्यधिक रहती है। इन शरीर के साथ- साथ रहता है। तान्त्रिक विधि से उसे सिद्ध कर लेने पर वह आदृश्य साथी सेवक का काम देता है। शरीर में ठोस पदार्थ अधिक होने से वह भारी रहता है और दौड़ धूप नहीं कर सकता। छाया पुरूष हलका और आदृश्य होने के साथ- साथ ऐसी विशेषताओं से युक्त भी होता है कि जो बहुत प्रयत्ब करने पर किसी प्रकार पाई जगाई जाती है। छाया पुरूष परिपक्व सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।

अंग्रेजी में इसे "ईथरीक डबल" कहते हैं। पंचकोश विज्ञान की दृष्टि से इसे अन्नमय कोश कहा जाएगा, एक दूसरा उदाहरण प्रेत का है। मरने के बाद काया तो नष्ट हो जाती है पर उसकी प्राणवान छाया पीछे भी बनी रहती है। स्वर्ग नरक जैसे सुख- दुःख भुगतने की अनुभूति उसे होती है। मरने से पूर्व के मित्र- शत्रुओं के प्रति राग- द्वेष उसे बना रहता है। स्वभाव संस्कार भी वैसे ही बने रहते हैं। उत्तेजित, अशान्त प्रेत उपद्रव करते हैं किन्तु सौम्य स्वभाव वाले शान्तिपूर्वक विश्राम करते हैं। यह स्थिति भी अन्नमय कोश की ही है। छाया पुरूष और प्रेतात्मा के अस्तित्व का परिचय प्रायः मिलता रहता है।

आगे के चार शरीर अन्नमय कोश की तुलना में उसी अनुपात में सूक्ष्म- सूक्ष्मतर हो चले गए हैं जिन्हें स्थूल शरीर की तुलना में अदृश्य प्रेत शरीर कह जिन्हें स्थूल शरीअ की तुलना में अदृश्य प्रेत शरीर कह सकते हैं। इन अधिक सूक्ष्म शरीरों को क्रमशः अगले कोश कहा जाएगा। अन्नमय कोश को अँग्रेजी में "फिजीकल बॉडी," कहते हैं। 'बॉडी' का अर्थ मोटे अर्थ में प्रत्यक्ष शरीर ही समझा जाता है पर आध्यात्म की परिभाषाऐं सूक्ष्म शरीर से आरम्भ होती हैं। इसलिए इसे वस्तुतः वह सूक्ष्म शरीर ही समझा जाना चाहिए। जो स्वप्न प्राण विनियोग आदि में काम आता है, जो मन मस्तिष्क के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और जीवनयापन की हर प्रक्रिया में पायः साथ- साथ ही रहता हैं। उससे आगे के प्राणमय कोश को 'ईथरीक बॉडी' मनोमय कोश को 'एस्ट्रल बॉडी' विज्ञानमय कोश को 'कास्मिक बॉडी' और आनन्दमय कोश को कांजलबॉडी कहते हैं। इन पाँचों को मिला कर एक पूर्ण मानवी सत्ता बनती है। इनमें एक के बाद दूसरे की महत्ता तथा समर्थता अपेक्षाकृत अधिक होती चली गई है। साधना करने और इनमें से प्रत्येक में एक से एक अधिक ऊँचे स्तर की शक्तियाँ- सिद्धियाँ मिलती चली जाती हैं। इसी आधार पर उन परतो को शरीरस्थ पाँच देवाताओं की संज्ञा गी गई है और कह गया है कि इन्हें जीवित कर लेने वाला पाँच देवताओं के साथ रहने वाला अथवा उन्हें साथ रखने वालों की स्थिति में पहुँच जाता है।

पूजा में पंचामृत का, पंचोपचार का, पंचगव्य का प्रसंग आता है। तपस्वी पंचाग्नि तपते हैं। पंचकोश रखाते हैं, रत्नों में पाँच प्रमुख हैं उन्हें पंचरत्न कहते हैं। वस्त्र दान में पाँचों कपडे़ देने की व्यवस्था बनाई जाती है। पंचायत शब्द इसीलिए बना है कि उसमें पांच पंचों का प्रचलन था। राम पंचायत के चित्र सभी ने देखे हैं। कई देवताओं के भी गायत्री की तरह ही पाँच मुख वाले हनुमान जी की अनेक मूर्तियाँ अनेकों मन्दिरों में प्रतिष्ठित हैं। आयुर्वेद में कई जडी़ बूटियों के पंचांग काम में आते हैं। ग्रहगणित बताने वाले सभी पण्डितों के पास पंचांग रहता है। वेदान्त साधना में पंचीकरण विद्या का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है। इस सब की समता गायत्री की पंचमुखी आकृति और पंच कोशी साधना से की जा सकती है। महर्षि पंचशिख ने आध्यात्म तत्व ज्ञान के जिन रहस्यों का प्रकटीकरण किया है, वे पंच कोशों के अनावरण से उपलब्ध होने वाले ज्ञन विज्ञान का ही संकेत करते हैं। यह पाँच अग्नि शिखाऐं- पाँच ज्वालाऐं- पाँच कोशों में सन्निहित दिव्य क्षमताऐं ही समझी जा सकती है।

पाँच कोशों के पाँच देवताओं का पृथक से भी वर्णन मिलता है। अन्नमय कोश का- सूर्य, प्राणमय का यम, मनोमय का- इन्द्र, विज्ञानमय का- पवन और आनन्दमय कोश का देवता- वरूण माना गया है। कुन्ती ने इन्हीं पाँचों देवताओं की साधना करके पाँच पाण्डवों को जन्म दिया था। वे देवपुत्र कहलाए।

पाँच कोशों के विभाजन को तीन वर्गीकरण में भी प्रस्तुत किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म, और कारण यह तीन शरीर बताए गए हैं। उन्हें त्रिपदा गायत्री कहा जाता है। स्थूल शरीर में अन्नमय और प्राणमय कोश आते हैं। पंच तत्वों और पाँच प्राणों का इससे समावेश है। सूक्ष्म शरीर में मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश सन्निहित हैं। इन दोनों को चेतन मस्तिष्क और अचेतन मानस कह सकते हैं। कारण शरीर में आनन्दमय कोश आता है। विज्ञजनों ने इस विवेचन में याक्तिंचित मतभेद भी व्यक्त किया है, पर वस्तु स्थिति लगभग जहाँ की तहाँ रहती है।

चेतनात्मक परिष्कार के लिए इन पाँच सस्कारों की आवश्यकता होती है। जिन्हें पंचकोशी गायत्री साधना के नाम से जाना जाता है। इसे 'ब्रह्मविद्या' पक्ष कहना चाहिए। ऋतम्भरा प्रज्ञा तत्व दृष्टि विकसित करने के लिए इस आधार का अवलम्बन करना होता है।

वस्तुतः मनुष्य में समस्त देव शक्तियों का अंश विद्यमान है। अतः वह अपने भीतर निहित इनमें से किसी भी शक्ति का अथवा सभी या अनेक शक्तियों के समन्वित स्वरूप का विकास कर सकता है। पदार्थवाद अभी तक इस मार्ग में बाधा बनने का प्रयास कर रहा था। अब वही इस मार्ग का नया व्याख्याकार बनने जा रहा है।

विज्ञान की भाषा में अन्नमय कोश को "मैटर", प्राणमय कोश को "सेल", मनोमय कोश को "माइण्ड" विज्ञानमय कोश को "पर्सनालिटी" तथा आनन्दमय कोश को "इण्ट्युशन" कहा जा सकता है। "मैटर" के बारे में विज्ञान उल्लेखनीय जानकारियाँ जुटाने में सफल हुआ है। आवश्यकता है "पर्सनालिटी" और "इण्ट्युशन" के क्षेत्र में अधिकाधिक अन्वेषण प्रगति की। सामान्य मानसिक क्रियाशीलता की सभी गतिविधियाँ ऐन्द्रिक अनुभव द्वारा नहीं जानी जा सकती। फिर चेतना के उच्चतम आयामों के लिए तो ऐन्द्रिक अनुभव- परक उपकरणों की सीमाऐं स्पष्ट है।

विज्ञानवेत्ता अभी तक चार आयामों तक ही पहुँच पाए हैं। इस चतुर्थ आयाम के अस्तित्व की अतीन्द्रिय ज्ञान की असंख्य घटनाऐं प्रमाणित भी करती रहती हैं। प्रेत शरीर के रूप में या स्वप्नों के सही संकेतों के रूप में अथवा दूर- दर्शन, दूर श्रवण, विचार संचार आदि के रूप में हम अदृश्य जगत की सत्ता को प्रत्यक्षवत देखते हैं। यह चौथे आयाम की पुष्टि है।

पाँचवा आयाम वह है जिसमें ब्रह्माण्डीय चेतना और आत्म चेतन को परस्पर सम्बद्ध करके मानवी सत्ता को ईश्वर तुल्य बनाया जा सकना और उतना ही शक्ति सम्पन्न सिद्ध कर सकना सम्भव हो जाएगा। प्रति विश्व, प्रति कण आदि के रूप में ही संसार से बिलकुल सटे एक ऐसे विश्व का अस्तित्व अगले दिनों सिद्ध होने जा रहा है जिसे पौराणिक काल के दैत्य लोक के समतुल्य कहा जा सके। यह क्षेत्र भी पंचम् आयाम की परिधि में ही आ जाएगा।

संक्षेप में आयामों को स्थूल और सूक्ष्म प्रकृति का क्षेत्र कह सकते हैं। स्थूल की अनुभूतियाँ स्थूल शरीर और सूक्ष्म उपकरणों से होती हैं, सूक्ष्म के लिए मस्तिष्क प्राण जैसे उच्चस्तरीय चेतना युक्त औजार प्रयुक्त करने पड़ते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमताऐं मनुष्य के मस्तिष्क केन्द्र में उत्पन्न होती हैं। वे आती इसी अपने संसार के अदृश्य क्षेत्र से हैं। इसलिए यह सब प्रकृति का अदृश्य अविज्ञात क्षेत्र कहा जा सकता है। सामान्य प्रचलन में न रहने वाली हर बात अदभुत लगती है। चतुर्थ आयाम के आश्चर्यजनक लगने का भी यही कारण है।

पाँचवा आयाम विशुद्ध चेतनात्मक है। उसे ब्रह्मण्डीय चेतना के साथ, जीव- चेतना के साथ जोड़ने की और उस स्थिति का असाधारण लाभ उठाने की प्रक्रिया कहा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलना कितना आनन्ददायक, कितना शक्तिशाली, कितना प्रभावोत्पादक हो सकता है, इसकी आज की समुचित चर्चा कर सकना भी अपनी भैतिक मनः स्थिति में सम्भव नहीं है। पर तत्वज्ञानी सूक्ष्मदर्शी उसका रसास्वादन कर रहे हैं। इसी आधार पर वे देवात्मा बने हैं और दूसरों को अपनी नाव पर बिठा कर पार लगाया है।

पंचम आयाम में जीव और शक्ति का, विष्णु और लक्ष्मी का संयोग है। ब्रह्म और प्रकृति का वहाँ समन्वय है, अति सूक्ष्म प्रकृति को शक्ति, लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती आदि कह सकते हैं। अति सूक्ष्म ब्रह्म को शिव, विष्णु ब्रह्म आदि कहा जाता है। इन देवी- देवतओं की उपासना से जिव किस स्थिति तक जा पहुँचता है। इसकी चर्चा पौराणिक कथा- गथाओं में अलंकारिक रूप से विस्तारपूर्वक होती रही है। वह वस्तु स्थिति है। बुद्धिवाद और प्रयोगवाद भले ही अपने स्वल्प साधनों से उस स्थिति का अनुभव न कर सकें फिर भी संवेदनाओं और अनुभूतियों के क्षेत्र की विशिष्टता अस्वीकार नहीं की जा सकती। नर- पशुओं और नर- नारायणों के बीच देखा जाने वाला अन्तर भी अकारण नहीं होता। उसमें पंचम आयाम की विशेषाताऐं ही काम कर रही होती हैं।

पाँच कोश इन्हीं पाँच आयामों के प्रतिनिधि हैं। गायत्री के पाँच मुख इन्हीं पांच कोशों के प्रतीक हैं। इन्हें प्रज्ञा के पांच वर्ग एवं स्तर कह सकते हैं।

यह पाँच कोश आत्मा पर चढे़ हुए आवरण हैं। प्याज की केले तले की परतें जिस प्रकार एक के ऊपर एक होती हैं। उसी प्रकार आत्मा के प्रकाशवान स्वरूप को अज्ञान आवरण से ढंके रहने वाले यह पाँच कोश हैं। उन्हें उतारते चलने पर कषाय- कल्मष नष्ट होते हैं और आत्मसाक्षात्कार का ईश्वर प्राप्ति का परम लक्ष्य प्राप्त होता है। शिव गीता कहती है:-

एवं शान्त्यादियुक्तः सन्नुपास्ते यः सदा द्विजः।।
उद्गायोद्धट्य्मेकैकं यथैव कदलीतरों।।
वल्कलानि ततः पश्चाल्लभते सारमुत्तमम्।।
तथैव पंचभूतेषु मनः संक्रामते क्रमात।।
तेषां मद्ये ततः सारमात्मानमपि विदन्ति।।

इस प्रकार जो साधक चित्त को समाहित करके पंच कोशों की उपासना करना है- उसके अन्तःकरण पर से केले के तने जैसी- कषाय की परतें उतरती चली जाती हैं। उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है और सार तत्व आत्मा की उपलब्धि सम्भव होती है।

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