गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

नौ प्राणायाम

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(१) लोम-विलोम प्राणायाम- सिद्धासन, पद्मासन या श्वतिकासन पर मूल बंध लगाकर बैठें। मेरुदण्ड को सीधा रखें। भीतर भरी हुई साँस बाहर निकाल दें। अब नासिका से साँस खींचिये और जालंधर बंध लगाकर उड्डियान बंध लगाकर दाहिने नथुने से धीरे-धीरे वायु निकाल दीजिये। फिर एक सैकण्ड बिना वायु के रहिये, तत्पश्चात् दाहिने नथुने से साँस खींचिये, फिर कुछ देर भीतर साँस रोक कर बाएँ नथुने से उसे बाहर निकाल दीजिये। इस प्रकार दो प्राणायाम हो जाते हैं। पुनः एक सेकण्ड बाह्य-कुम्भक करके पहिले की भाँति दुहराना चाहिये। इस प्रकार आरम्भ में १० प्राणायाम करने चाहिये और प्रति नथुने से रेचक या पूरक करना हो, साँस छोड़ना या खींचना हो तो हाथ की अनामिका और कनिष्ठा उँगलियों से बाएँ नथुने को बन्द कर लें। इसी प्रकार जब बाएँ नपुने से वायु ग्रहण करनी या छोड़नी है तो दाहिने हाथ के अँगूठे से बाएँ हाथ के नथुने को बन्द करें।

(२) सूर्य-भेदन प्राणायाम-दाहिने नथुने से वायु खींचिये, यथाशक्ति कुम्भक कीजिए और बाएँ नथुने से बाहर निकाल दीजिये। इस प्रकार इस क्रिया को बार-बार करें। यही सूर्य भेदन प्राणायाम है। अनुलोम, विलोम, प्राणायाम में नथुनों से पूरक और रेचक होता है, परन्तु इसमें एक ही नथुने से (दाहिने में पूरक और बाएँ से रेचक) होता है।

इस प्राणायाम से शरीर में उष्णता बढ़ती है, इसलिए यह शीत प्रकृति वालों के लिए अथवा शीत ऋतु में विशेष उपयोगी सिद्ध होता है।

(३) उज्जायी प्राणायाम-सिर को कुछ झुकालें। कण्ठ से वायु खींचने का घर्षण शब्द करते हुए बाएँ से पूरक करें। चार-पाँच सेकण्ड कुम्भक करें। इसके पश्चात् बाएँ नथुने से वायु बाहर निकाल दें। इस प्राणयाम में रेचक, पूरक और कुम्भक तीनों ही थोड़ी मात्रा में होते हैं। इसमें बन्धनों का प्रयोग करना आवश्यक नहीं है। चलते-फिरते, उठते-बैठते या सोते हुए यह उज्जायी प्राणायाम आसानी से किया जा सकता है। ‘रोगी लोग शव्या पर पड़े-पड़े इसे कर सकते हैं। पेट के रोगों के लिए यह उपयोगी है। इससे भी उष्ण्ता बढ़ती है।

(४) शीतकारी प्राणायाम- दोनों नथुने बन्द करके जिह्वा और होठों द्वारा वायु खींचें। यथाशक्ति रोके रहें और फिर धीरे-धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दें।

दाँतों के बीच जिह्वा को बाहर होठों तक निकालकर होठों को फुलाकर मुख के बीच में सीत्कार करते हुए श्वास खींचने की क्रिया प्रधान होने के कारण इसे शीतकारी प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम में जिह्वा के सहारे वायु भीतर प्रवेश करती है। यह प्राणायाम शीतल है इसलिए उष्ण प्रवृति वालों के लिए अथवा ग्रीष्म ऋतु में यह विशेष उपयोगी है। यह शरीर को निर्विष बनाता है। कहते हैं कि काकभुशुण्डि जी ने इसी विधि से प्राणायाम में सिद्धि प्राप्त की थी।

(५) शीतली प्राणायाम- दोनों नथुने बन्द कर दीजिए। होठों को कौए की चोंच की तरह बनाकर जिह्वा को उनमें से थोड़ा बाहर निकाल दीजिए। फिर मुख द्वारा धीरे-धीरे वायु भीतर खींचिए। यथाशक्ति कुम्भक करके दोनों नथुनों से धीरे-धीरे वायु बाहर निकाल दीजिए, यह शीतली प्राणायाम कहलाता है। यह भी शीतल प्रकृति का है। रूप लावण्य में वृद्धि करता है।

(६) भस्त्रिका प्राणायाम- पद्मासन लगाकर बायीं नासिका से वेगपूर्वक जल्दी-जल्दी दस बार लगातार पूरक रेचक कीजिए। कुम्भक करने की आवश्यकता नहीं है। फिर ग्यारहवीं बार उसी नासिका से लम्बा पूरक कीजिए। यथाशक्ति कुम्भक करने के उपरान्त दाहिने नथुने से धीरे-धीरे वायु को बाहर निकाल दीजिए। फिर इसी क्रिया को दाहिने-नथुने से दुहुराइये। यह भस्त्रिका प्राणायाम है। आरम्भ में इसे पाँच-पाँच बार से अधिक नहीं करना चाहिये।

यह सम-शीतोष्ण है। ब्रह्मग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि तीनों का यह भेदन करता है। इसके द्वारा सुषुम्ना में से प्राण-तत्व की विहंगम गति ऊर्ध्व-प्रदेश की ओर बढ़ती है। इसी से अग्नितत्व प्रदीप्त होता है। इसे आरम्भ में अधिक संख्या में या अधिक वेग से नहीं करना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से फुफ्फुस कोश पर आघात पहुँचने का भय रहता है।

(७) भ्रामरी प्राणायाम- पद्मासन लगाकर नेत्र बन्द करके बैठिये। भ्रकुटी के मध्य भाग में ध्यान कीजिए। जालंधर बंध लगाइये फिर नाक द्वारा भ्रमर नाद के समान गुञ्जन स्वर करते हुए पूरक कीजिए। पश्चात् तीन सेकण्ड कुम्भक करके धीरे-धीरे भ्रमर गुञ्जन ध्वनि के साथ रेचक कीजिए। यही भ्रमरी प्राणायाम हैं।

कोई योगी दोनों नासापुटों से वायु खींचने और छोड़ने के पक्ष में है और कोई लोम-विलोम प्राणायाम की भाँति दाएँ-बाएँ नथुनों से इसे करने को अच्छा बताते हैं।

कुम्भक की अवस्था में रुकी हुई वायु को मस्तिष्क मे बायीं ओर से दायीं ओर लगातार कई बार घुमाकर तथा रेचक करते हैं। इस वायु को भ्रमण कराने की क्रिया के कारण तथा भ्रमण-नाद जैसी धनि होने के कारण इस प्राणायाम का नाम भ्रामरी रखा गया है। यह मन की एकाग्रता एवं प्राण की स्थिरता के लिए लाभदायक है।

(८) मूर्छा प्राणायाम- दोनों हाथों के अँगूठे दोनों कानों में, दोनों तर्जनी दोनों आँखों पर, दोनों, मध्यमा नासिका पुटों पर और अनामिकायें तथा कनिष्ठकायें मुख पर रखकर मूल बंध तथा जालंधर बंध को आरम्भ से अन्त तक स्थिर करके बाएँ नथुने से पूरक करें। यथाशक्ति कुम्भक करके दहिने नथुने से रेचक करें। यह मूर्छा प्राणायाम हुआ।

इस प्राणायाम में रेचक करते समय बन्द नेत्रों से भूमध्य भागों में ध्यान करने पर पञ्च तत्वों के रंग दिखाई पड़ते हैं। शरीर में जो तत्व अधिक होगा, उसी का रंग अधिक दृष्टिगोचर होगा। पृथ्वी का रंग पीला, जल का सफेद, अग्नि का लाल, वायु का हरा और आकाश का नीला होता है। इन तत्वों का शोधन करने से नादानुसंधान तथा समाधि में सुविधा रहती है।

(९) प्लाविनी प्राणायाम- पद्मासन से बैठिए। दोनों भुजाओं को ऊपर की ओर लम्बी तथा सीधी रखिए। अब दोनों नथुनों से पूरक कीजिए और सीधा लेट जाइए। लेटते समय दोनों हाथों को समेट कर तकिए की तरह सिर के नीचे लगा लीजिए, कुम्भक कीजिए और जब तक कुम्भक रहे, तब तक भावना कीजिए कि मेरी देह रुई के समान हल्की है। फिर बैठकर पूर्व स्थिति में आ जाइए और धीरे-धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दीजिए। यह प्लाविनी प्राणायाम है। इनसे ऋद्धियों और सिद्धियों का मार्ग प्रशस्त होता है।

किस प्राणायाम को, किस मात्रा, किस प्रयोजन के लिए, किस प्रकार जागृत किया जाये ? इसका निर्णय करना इतना सुगम नहीं है कि उसे एक साँस में बताया जा सके। कारण यह है कि साधक की आन्तरिक स्थिति, सांसारिक परिस्थिति, शरीर का गठन, आयु मनोभूमि, संस्कार आदि के आधार पर ही विचार किया जा सकता है कि उनके लिए वर्तमान स्थिति में किस प्रकार की साधना उपयोगी एवं आवश्यक है।

प्राणायाम कोश की सुव्यवस्था करने के लिए साधारणतः बन्ध मुद्रा तथा प्राणायाम की क्रियायें ही प्रयुक्त होती हैं। इन्ही में हेर-फेर करके दस प्राणों का उन्नायक विधान बनाया जाता है। फिर भी कई बार    ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं, जिनमें इन साधनों में से किसी की भी आवश्यकता नही पड़ती और प्राण-विद्या की सांगोपांग सफलता मिल जाती है।

गायत्री का द्वितीय मुख प्राणमय कोश है। इसको अनुकूल बना लेना ही वेदमाता को प्रसन्न करके उनके दूसरे मुख से आशीर्वाद प्राप्त कर लेना है। प्राणकोश को शुद्ध एवं प्रशुद्ध करना यानी एक प्रकार से गायत्री माता की प्राणमयी उपासना है। इसे ही आत्मोन्नति की द्वितीय भूमिका कहा जाता है।


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