गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

रूप साधना

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१- वेदमाता गायत्री का या सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी  राम, कृष्ण, आदि इष्टदेव का जो सबसे सुन्दर चित्र या  प्रतिमा मिले, उसे लीजिए। एकान्त स्थान में ऐसी जगह  बैठिये जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो, इस चित्र या प्रतिमा के  अंग-प्रत्यंगों को मनोयोगपूर्वक देखिये, इसके सौन्दर्य एवं  विशेषताओं को खूब बारीकी के साथ देखिये, एक मिनट  इस प्रकार देखने के बाद नेत्रों को बन्द कर लीजिये, अब  उस चित्र के रूप का ध्यान कीजिए और जो बारीकियाँ,  विशेषताएँ अथवा सुन्दरताएँ चित्र में देखी थीं उन सबको  कल्पनाशक्ति द्वारा ध्यान के चित्र में आरोपित कीजिए।  फिर नेत्र खोल लीजिए और उस छवि को देखिए ध्यान  के साथ-साथ ॐ मन्त्र जपते रहिए। इस प्रकार बार-बार करने से वह रूप मन में बस जायेगा। उसका दिव्य नेत्रों  से दर्शन करते हुए बड़ा आनन्द आवेगा। धीरे-धीरे इस  चित्र की मुखाकृति बदलती मालूम देगी, हँसती मुस्कराती,  नाराज होती उपेक्षा करती हुई भावभंगी दिखाई देगी। यह  प्रतिमा स्वप्न में अथवा जागृति अवस्था में, नेत्रों के  सामने आवेगी और कभी ऐसा अवसर आ सकता है, जिसे  प्रत्यक्ष साक्षात्कार कहा जा सके आरम्भ में यह साक्षात्कार  धुंधला होता है। फिर धीरे-धीरे ध्यान सिद्ध होने से वह  छवि अधिक स्पष्ट होने लगती है। पहले दिव्य दर्शन  ध्यान क्षेत्र में ही रहता है, फिर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने  लगता है।

२- किसी मनुष्य के रूप का ध्यान, जिन भावनाओं  के साथ, प्रबल मनोयोगपूर्वक किया जायेगा, उन  भावनाओं के अनुरूप उस व्यक्ति पर प्रभाव पड़ेगा।  किसी के विचारों को बदलने, द्वेष मिटाने मधुर संबन्ध  उत्पन्न करने, बुरी आदतें छुड़ाने, आशीर्वाद या शाप से  लाभ हानि पहुँचाने आदि के प्रयोग इस साधना के आधार  पर होते हैं । तान्त्रिक लोग विशेष कर्मकाण्डों एवं मन्त्रों  द्वारा किसी मनुष्य का रूप आकर्षण करके उसे रोगी,  पागल एवं वशवर्ती करते देखे गये हैं।

३- छाया पुरुष की सिद्धि भी रूप-साधना का एक  अंग है। शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बिना भोजन किये  मनुष्य की लम्बाई के दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी  आकृति ध्यानपूर्वक देखिये थोड़ी देर बाद नेत्र बन्द कर  लीजिए और उस दर्पण की आकृति का ध्यान कीजिए  अपनी छवि आपको दृष्टिगोचर होने लगेगी। कई व्यक्ति  दर्पण की अपेक्षा स्वच्छ पानी में, तिली के तेल या पिघले  हुए पूत में अपनी छवि को देखकर उसका ध्यान करते  हैं। दर्पण की साधना-शान्तिदायक तेल की संहारक  और मृत की उत्पादक होती है। सूर्य और चन्द्रमा जब  मध्य आकाश में ऐसे स्थान पर हों कि उनके प्रकाश में  खड़े होने पर अपनी छाया ३.५ हाथ रहे उस समय  अपनी छाया पर भी उस प्रकार साधन कल्याणकारक  माना गया है।

दर्पण, जल, तेल, घृत आदि में मुखाकृति स्पष्ट  दीखती है और नेत्र बन्द करके वैसा ही ध्यान हो जाता  है। सूर्य-चन्द्र की ओर पीठ करके खड़े होने से अपनी  छाया सामने आती है। उसे खुले नेत्रों से भली प्रकार  देखने के उपरान्त आँखें बन्द करके उसकी छाया का ध्यान  करते हैं। कुछ दिनों के नियमित अभ्यास से उस  छाया में अपनी आकृति भी दिखाई देने लगती है।

कुछ काल निरन्तर इस छाया- साधना को करते  रहा जाय तो अपनी आकृति की एक अलग सत्ता बन  जाती है और उसमें अपने संकल्प एवं प्राण का सम्मिश्रण  होते जाने से वह एक स्वतंत्र चेतना का प्राणी बन जाता  है। उसके अस्तित्व को 'अपना जीवित भूत' कह सकते  हैं। आरम्भिक अवस्था में यह आकाश में उड़ता या अपने  आस-पास फिरता दिखाई देता है। फिर उस पर जब  अपना नियंत्रण हो जाता है तो आज्ञानुसार प्रकट होता  तथा आचरण करता है। जिनका प्राण निर्बल है उनका  यह मानस-पुत्र, (छाया पुरुष) भी निर्बल होगा और  अपना रूप दिखाने के अतिरिक्त और कुछ विशेष कार्य  न  कर सकेगा। पर जिनका प्राण प्रबल होता है उनका छाया  पुरुष दूसरे अदृश्य शरीर की भाति कार्य करता है। एक  स्थूल और दूसरी सूक्ष्म देह दो प्रकट देहें पाकर साधक  बहुत से महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त कर लेता है। साथ ही  रूप- साधना द्वारा मन का वश में होना तथा एकाग्र होना  तो प्रत्यक्ष लाभ ही हैं।


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