गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

स्थूल शरीर की तरह ही सूक्ष्म और कारण

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शरीर केवल एक ही नहीं है। जिसे हम धारण किए हुए हैं और जो दीखता अनुभव होता है, उसके भीतर दो और शरीर हैं जिन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। इनमें सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय और प्रभावशाली है। मरण के उपरान्त उसी का अस्तित्व रह जाता है और उसी के सहारे नया जन्म होने तक की समस्त गतिविधियाँ चलती रहती हैं।    मरने के उपरान्त इन्द्रियाँ, मन, संस्कार तथा पाप पुण्य साथ जाते हैं। मरण से पूर्व वाले जन्म का स्मरण भी इसी शरीर में बना रहता है इसलिए अपने परिवार वालों को पहचानता और याद भी करता है। अगले जन्म में इस पिछले जन्म के संस्कारों को ढो कर ले जाने में भी यह सूक्ष्म शरीर ही काम करता है। वस्तुतः मरण के पश्चात एक विश्राम जैसी स्थिति आती है उसमें लम्बे जीवन में जो दिन रात काम करना पड़ता है उसकी थकान दूर होतीं हैं। जैसे रात को सो लेने के पश्चात् सवेरे ताजगी आती है उसी तरह नए जन्म के लिए इस मध्य काल के विश्राम से फिर कार्य क्षमता प्राप्त हो जाती है। जिनका मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है। उन्हें पूरा विश्राम न मिल पाने से थकान बनी रहती है और शरीर तथा मन में अस्वस्थता देखी जाती है।

सूक्ष्म शरीर इस जन्म में भी स्थूल शरीर के साथ ही सक्रिय रहता है। रात्रि को सो जाने के उपरान्त जो स्वप्न दीखते हैं वह अनुभूतियाँ सूक्ष्म शरीर की ही हैं। दिव्य दृष्टि, दूर श्रवण, दूरदर्शन, विचार संचालन भविष्य ज्ञान, देव दर्शन आदि उपलब्धियों भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही होती हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की उच्चस्तरीय योग साधना द्वारा इसी शरीर को समर्थ बनाया जाता है ऋद्धियों और सिद्धियों का स्रोत इस सूक्ष्म शरीर को माना जाता है।

भारतीय योग शास्त्रों में सूक्ष्म शरीर को भी स्थूल शरीर की तरह ही प्रत्यक्ष और प्रमाणित माना गया है और उसका स्वरूप तथा कार्य क्षेत्र विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वह दुर्बल कैसे हो जाता है और उसे सशक्त कैसे बनाया जा सकता है इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। कहा गया कि सूक्ष्म शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने से स्थूल शरीर भी अस्वस्थ्य और खिन्न रहने लगता है इसलिए समग्र समर्थता के लिए स्थूल शरीर की ही तरह सूक्ष्म शरीर का भी ध्यान रखना चाहिए।

यदि आत्मा को अमर माना जाय, मरणेत्तर जीवन को मान्यता दी जाय तो सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। स्थूल शरीर तो मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। नया शरीर तुरन्त ही नहीं मिलता, उसमें देर लग जाती है। इस मरण और जन्म के बीच की अवधि में प्राणी को सूक्ष्म शरीर का सहारा लेकर ही रहना पड़ता है। शरीर धारण कर लेने के बाद भी उसके अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों का अस्तित्व बना रहता है। अतीन्द्रिय ज्ञान उन्हीं के द्वारा होता है और उपासना साधना द्वारा इन्हीं दो अप्रत्यक्ष शरीरों को परिपुष्ट बनाया जाता है। यह अन्तर शरीर यदि बलवान हो तो बाह्य शरीर में तेज, शौर्य, प्रकाश, बल और ज्ञान की आभा सहज ही प्रस्फुटित दीखती है। उत्साह और उल्लास भी सूक्ष्म शरीर की निरोगता का ही परिणाम है। स्वर्ग और नरक का जैसा वर्णन है उसका उपभोग सूक्ष्म शरीर द्वारा ही सम्भव है। पिछले जन्म के ज्ञान, सूक्ष्म, संस्कार, गुण, रुचि आदि का अगले जन्म में उपलब्ध होने का आधार भी यह सूक्ष्म शरीर है। भूत-प्रेतों का अस्तित्व इसी परोक्ष शरीर पर निर्भर है और दिव्य अनुभूतियाँ, योग की सिद्धियाँ, स्वप्नों पर परिलक्षित सच्चाइयाँ आदि प्रक्रियाँ सूक्ष्म शरीर से ही सम्भव हो सकती हैं। यदि स्थूल शरीर मात्र का अस्तित्व माना जाय तो फिर नास्तिकों का वही मत प्रतिपादित होगा जिसमें कहा गया है कि मृत्यु के बाद फिर आना कहाँ होगा जब तक जीना है सुख से जियो और ऋण लेकर मद्य पियो।

इतिहास, में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व सिद्ध करने वाली घटनाओं का वर्णन मिलता है। भगवान शंकराचार्य ने राजा अमरूक के मृत शरीर में अपना सूक्ष्म शरीर प्रबद्ध करके ग्रहस्थ जीवन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया था। रामकृष्ण परमहंस ने महाप्रयाण के उपरान्त भी विवेकानन्द को कई बार दर्शन तथा परामर्श दिए थे। पुराणों में तो पग पग पर ऐसे कथानकों का उल्लेख है।

थियोसोफिकल सोसाइटी की जन्मदात्री मैडम ब्लाबटस्की के बारे में कहा जाता है कि वे अपने को कमरे में बन्द करने के उपरान्त भी जनता को सूक्ष्म शरीर से दर्शन और उपदेश देती थीं। कर्नल टाउन शेड के बारे में भी ऐसे ही प्रसंग कहे जाते हैं पाश्चात्य योग साधकों में से हैर्वटलमान, लिण्डार्स, एण्ड्रजैक्शन, डा० माल्थ, जेल्ट, कारिंगटन, हुरावेल मुलडोन, आलिवर लाज, पावर्स डा० मेस्मर, ऐलेक्जेण्ड्रा, डेविडनीत, ब्रण्टन अदि के अनुभवों और प्रयोगों में सूक्ष्म शरीर की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। जे० मूलडोन अपने स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को पृथक् करने के कितने ही प्रदर्शन भी कर चुके थे। इनमें इस सबकी चर्चा अपनी पुस्तक "दी प्रोजेक्शन ऑफ आस्टलबॉडी" में विस्तार पूर्वक की है।

भारतवर्ष में स्वामी विशुद्धानन्द तथा स्वामी निगमानन्द जी भी अपनी ऐसी अनुभूतियों को प्रमाणित कर चुके हैं कहा जाता है कि तैलंग स्वामी को नंगे फिरने के अपराध में काशी के एक अंग्रेज अधिकारी ने जेल में बन्द करा दिया। दूसरे दिन वे जेल से बाहर टहलते हुए पाए गए। नाथ सम्प्रदाय के महीन्द्रनाथ गोरखनाथ, जालन्धरनाथ, कणप्पा आदि के बारे में भी ऐसे ही वर्णनों का उल्लेख है।

आत्मा के अस्तित्व और शरीर न रहने पर भी उसका अस्तित्व बने रहने के बारे में पाश्चात्य दार्शनिकों  और तत्व वेत्ताओं में से जिनने इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फ वाल्डो ट्राइन मिडनी फ्लोवर, एलाह्वीलर, बिलकाक्सस, विलयमवाकर , एटकिंसन, जेम्स, केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने दार्शनिकों में से कार्लाइन इमर्सन, काण्ट, हेगल, धामस, हिलमीन डायसन आदि का मत भी इसी प्रकार का था।

जो कार्य हम स्थूल जीवन में करते हैं। या मस्तिष्क में जैसे विचार भरे रहते हैं उनकी छाप सूक्ष्म शरीर पर पड़ती हैं और वह छाप ही संस्कार बन जाती है। मनुष्य का चिन्तन और कर्म जिस दिशा में चलता रहता है। कालान्तर में वही स्वभाव बन जाता है और बहुत समय तक जिस स्वभाव को अभ्यास में लाया जाता रहता है उसी तरह के संस्कार बन जाते हैं। यह संस्कार ही परिपक्व होकर शुभ अशुभ प्रारब्ध एवं कर्मफल का रूप धारण करते रहते हैं। इस प्रकार कर्मफल प्रदान करने की स्वसंचालित प्रक्रिया भी इसी सूक्ष्म शरीर से सम्पन्न होती रहती है।

जिस प्रकार अखाद्य खाने, दूषित जलवायु में रहने और असंयम बरतने से बाह्य शरीर दुर्बल एवं रुग्ण हो जाता है उसी प्रकार बुरे कर्म और बुरे चिन्तन से सूक्ष्म शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह अपनी समर्थता खो बैठता है। कुमार्गगामी का अन्तःकरण सदा दुर्बल और कायर बना रहता है, फलस्वरूप अनेक मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं। यों तो सूक्ष्म शरीर दूध में मक्खन की तरह समस्त शरीर में व्याप्त है। पर उसका मुख्य स्थान मस्तिष्क माना गया है। बुरे विचारों से मन मस्तिष्क और सूक्ष्म शरीर का सामान्य स्वास्थ्य सन्तुलन नष्ट हो जाता है फलस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व ही लड़खड़ाने लगता है और प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। सात्विक जीवन शुद्ध आहार और शुभ विचार का क्रम ठीक बनाए रहने से ही आन्तरिक बलिष्ठता स्थिर रहती है और उसी के आधार पर स्थूल शरीर को परिपुष्ट तथा दीर्घजीवी रखा जा सकता है।

सद्भावना सम्पन्न व्यक्ति जिन्होंने उच्च आदर्शों के अनुरूप अपनी निष्ठा परिपक्व की है उनका कारण शरीर परिपुष्ट होता है। स्वर्ग, मुक्ति, शान्ति से लेकर आत्म साक्षात्कार और ईश्वर दर्शन तक की दिव्य विभूतियाँ इस कारण शरीर की समर्थता पर ही निर्भर हैं। जिस प्रकार हम स्थूल शरीर की स्वस्थता का लाभ समझते हुए उसे सुस्थिर बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं उसी प्रकार सूक्ष्म और कारण शरीर की सुरक्षा एवं समर्थता के लिए सदैव सचेष्ट रहना चाहिए।


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