गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति

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अन्नमय कोश की सरल साधना पद्धति में प्राकृतिक जीवन का अभ्यास क्रम समाविष्ट है। आहार-शुद्धि, उपवास, जल-मृतिका उष्णता आदि के द्वारा शरीर के पाँच तत्वों का शोधन एवं उपचार अन्नमय कोश की साधना का अंग है। शरीर के निरोग और स्फूर्तिवान रहे बिना आध्यात्मिक उन्नति के अगले कार्यक्रम अति कठिन हो जाते हैं। जिनके पैर पहली सीढ़ी पर ही लड़खड़ाने लगे, वे ऊपरी मञ्जिल तक कैसे पहुँचेंगे ?

अन्नमय कोश की साधना के दो मुख्य अंग हैं- (१) आहार-विहार सम्बन्धी शुद्धता (२) सूक्ष्म साधनाएँ। गायत्री उपासना में दोनों ही अंगों का साथ-साथ ध्यान रखा जाना चाहिए।

आहार-विहार सम्बन्धी शुद्धता के बिना सूक्ष्म साधनाओं का अभ्यास असम्भव है। आहार शुद्धि पर इसलिए जोर दिया जाता है कि मन की शुद्धता-अशुद्धता का आधार वही है। यदि अन्न अशुद्ध होगा, तो मन भी अशुद्ध रहेगा और अशुद्ध मन न कभी ध्यान, भजन में एकाग्र होता है और न श्रद्धा-विश्वास को ही ग्रहण करता है। मन का परिशोधन अन्न की शुद्धि पर निर्भर है। इसलिए साधना समर में उतरने वाले को सबसे पहले आहर शुद्धि पर ध्यान देना पड़ता है। शुद्ध कमाई का, शुद्धतापूर्वक बनाया हुआ, भगवान का प्रसाद मानकर औषधि एवं अमृत की भावना से भोजन करना आवश्यक है। स्वाद के लिए नहीं, वरन् शरीर रक्षा के लिए ही खाया जाना चाहिए। पेट की थैली को देखते हुए उसमें आधा आहार, चौथाई जल और चौथाई वायु के लिए स्थान रहने देना चाहिए। अर्थात् भोजन की मात्रा इतनी रहनी चाहिए जिससे पेट पर अनावश्यक भार न पड़े, आलस्य न आवे। जल्दी-जल्दी नहीं, वरन् धीरे-धीरे अच्छी तरह चबा कर ग्रास की उदरस्थ किया जाय। यह सब बातें जान लेना ही पर्याप्त नहीं, वरन् लाभ तभी है, जब अभ्यास में लाया जाय।

अन्न से मन बनता है। जैसे संस्कारों का अन्न खाया जाता है मन की प्रवृत्ति वैसी ही बन जाती है। मन को शुद्ध, संयमी, स्थिर और सन्मार्गगामी बनाने का प्रधान उपाय अन्न पर संयम करना है।अभक्ष खाने वाले, माँस, मदिरा, नशेवाजी में ग्रस्त मनुष्य आत्मकल्याण के मार्ग पर दूर तक चल सकेंगे यह संदिग्ध है। जिह्वा को चटोरापन मन में उसी प्रकार चंचलता उत्पन्न करता है जिस प्रकार तेज हवा चलने से जलाशय में लहरें उठने लगती हैं। अनीति की कमाई की रोटी खाने वाला वह आन्तरिक स्वच्छता कैसे प्राप्त कर सकेगा, जिसमें भगवान का विराजमान हो सकना संभव होता है। साधना का प्रथम चरण अन्न की शुद्धि है। दूध, मलाई खाकर शरीर मोटा हो सकता है पर मन को निर्मल बनाने के लिए अन्त में सात्विकता की आवश्यक मात्रा का मिला होना आवश्यक है।

अस्वाद व्रत एवं उपवास आत्मिक साधना के आवश्यक अंग हैं। एक सप्ताह में दो दिन नमक-शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत रखना चाहिए। ये दिन गुरुवार और रविवार रखे जा सकते हैं। साधनात्मक दृष्टि से इन दोनों दिनों का विशेष महत्त्व है। पर जिन्हें किसी कारण से इन दिनों में असुविधा हो वे सुविधानुसार अन्य दिन भी चुन सकते हैं साधक के भोजन में एक समय एक साथ अनेक प्रकार की वस्तुएँ न होनी चाहिए। हर वस्तु का पाचन काल न्यूनाधिक होता है। उनके लिए पाचक रसों की आवश्यकता भी प्रथम प्रकार की रहती है। यदि अनेक प्रकार के व्यंजन बनाकर एक साथ खाये जायेंगे तो उसका हाल उस खिचड़ी जैसा हो जायेगा, जिसमें आध घण्टे से लेकर छै घण्टे तक पकने वाली चीजें इकट्ठी करके पकाई जा रही हैं। इनमें से कुछ चीजें कच्ची रह जावेंगी। जिस थाली में अनेकों कटोरियाँ होगीं, अनेकों व्यंजन परोसे गये होंगे वह स्वास्थ्य की दृष्टि से खाने वाले के लिए उस बढ़ी संख्या के अनुपात से ही हानिकारक होगी। सन्त महात्मा बहुधा एक ही वस्तु खाते हैं। यदि कई प्रकार की चीजें उन्हें खानी पड़ें तो आपत्ति धर्म की तरह उन सबको इकट्ठी करके उनकी संख्या एक कर लेते हैं और अनेक स्वादों को नष्ट कर एक ही स्वाद बना लेते हैं। इस आदर्श के पीछे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सुधार का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सन्निहित है। भोगों को, स्वादों को सीमित करना, मन को वश में करने का, इन्द्रिय निग्रह का एक मात्र उपाय है। भोजन में जितने अधिक प्रकार वस्तुओं का समावेश किया जायेगा उतनी ही पाचन क्रिया खराब होगी, उतना ही खर्च बढ़ेगा और उतना ही मन चंचल होगा। इसलिए संयम का अवलम्बन करते हुए ही साधना पथ के पथिक को अग्रसर होना पड़ता है। चटोरा व्यक्ति मन को कभी संयम में ला सकेगा इसमें सन्देह ही है।

जिनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी हुई है वे आम-तौर से भोजन की शान इस बात में समझते हैं कि उसमें कितनी ही कटोरियाँ सजी हुई हों। कितने ही प्रकार के शाक, दाल, भात, रायते, अचार, चटनी पापड़, मिठाई, पकौड़ी, नमकीन, आदि के कितने ही तरह के स्वाद उन्हें पसन्द लगते हैं। शान और शेखी-खोरी को हमें चटोरेपन और असंयम का, विलासिता और चंचलता का चिन्ह मानना चाहिए। सादगी ही सभ्यता का चिन्ह माना गया है, यह सादगी भोजन में भी रहनी ही चाहिए। अन्नमय कोश का परिशोधन करने की उच्चस्तरीय गायत्री साधना का हमारा प्रथम प्रयास ही लड़खड़ाने लगेगा यदि इतना भी न बन पड़ा तो आगे जो कठिन तपश्चर्याएँ करने का अवसर प्रस्तुत होगा तो उसे किस प्रकार किया जा सकेगा ?

भोजन में दो वस्तुएँ रहना पर्याप्त है। एक खाने की वस्तु, दूसरी लगाने की। रोटी-शाक, रोटी-दाल, भात व दाल जैसी किन्हीं दो वस्तुओं का जोड़ा मिला लेने से एक खाने की प्रधान वस्तु और दूसरी सहायक का जोड़ आसानी से बन जाता है। हर भोजन में वस्तुएँ बदली जा सकती हैं पर उनकी संख्या दो ही हो। जिस प्रकार पति और पत्नी दो तक ही काम सेवन की मर्यादा सीमित रहती है उसी प्रकार स्वाद सेवन के लिए भी दो का जोड़ा पर्याप्त हैं कोई यह न सोचे कि इसका स्वास्थ्य पर कुछ बुरा असर पड़ेगा। इससे पाचन-क्रिया तो सुधरेगी ही, मन भी बहुत संयमी बनेगा। संयमी मन जितना पारलौकिक सद्गति के लिए आवश्यक होता है उतना ही लौकिक समृद्धि और सफलताएँ उपलब्ध करने के लिए भी उपयोगी है। चञ्चलता मिटाकर एकाग्रता उत्पन्न करने के लिए यदि इतना त्याग करना पड़ता है। तो उसे कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानना चाहिए।


जो लोग अधिक चटोरे हैं, जिन्हें इतना त्याग कर सकना कठिन मालूम पड़ता है वे इतना तो करें ही कि भोजन में जितनी संख्या में वस्तुएँ रहती हैं उसकी संख्या अबकी अपेक्षा घटालें और उनकी सीमा निर्धारित करले कि तीन-चार से अधिक तो यह सख्या किसी भी प्रकार नहीं होनी चाहिए। अन्नमय कोश की साधना को (१) एक सप्ताह में दो दिन नमक, शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन और (२) भोजन में एक बार में खाद्य वस्तुओं की संख्या दो तक सीमित रखना यह दो जरूरी बातें हैं दुर्बल मनोभूमि वाले एक सप्ताह में एक़ बार अस्वाद व्रत रखते हुए और भोजन में वस्तुओं की संख्या तीन या चार रखते हुए भी धीरे-धीरे आगे बढ़ सकते हैं।

अन्न के साथ-साथ जल की शुद्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। ग्रहण करने की शक्ति जल में अन्न से भी अधिक रहती है, यदि तमोगुणी स्थिति का जल प्रयोग किया जाय तो उससे साधना क्रम में बाधा ही पड़ेगी। सामूहिक जल पात्रों में जहाँ हर कोई मन माने ढंग से बिना हाथ धोये पानी भरता पीता है, काँच के गिलास बिना माँजे धोये काम में आते रहते हैं, वहाँ तभी पानी पीना चाहिए जब उसके बिना काम न चलता हो। होटलों की चाय दुहरी हानि पहुँचाती है। चाय का नशा तो हानिकारक है ही। होटलों की गन्दगी उसमें 'गिलोय नीम चढ़ी' की उक्ति चरितार्थ करती है। शराब, भाँग,जैसे नशीले पेय आत्म-कल्याण के इच्छुकों को त्यागने ही पड़ते हैं। धुआँ पीना भी अन्न में माना जायेगा तमाखू खाना-पीना, गाँजा, चरस, मादक आदि भले ही धुएँ या उत्तेजना के रूप में ही क्यों न हों, हमारे जीवन कोषों और मस्तिष्कीय कोष्टकों में प्रवेश करके तमोगुण उत्पन्न करते हैं। और यह तमोगुण आत्मिक प्रगति के मार्ग में एक भारी बाधा बनकर खड़ा रहता है। नशेबाजी से हमें बचना ही चाहिए। भले ही वह बीड़ी पीने जैसी छोटी सी ही क्यों न हो। इस वर्ष हमें नशेबाजी और अशुद्ध जल के प्रयोग को बन्द करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिन्हें यह बुरी आदतें पड़ गई हों उन्हें उसे छोड़ना चाहिए। एक साथ न छूट सकें तो इनका उपयोग आधा तो तुरन्त ही कर देना चाहिए। उपवास का क्रम भी सप्ताह में एक दिन रखना चाहिए। प्रारम्भ में पन्द्रह दिन में एक्र दिन या सप्ताह में आधा दिन का उपवास रख सकते हैं। उपवास के दिन जल पर्याप्त मात्रा में ग्रहण करना आवश्यक है। इसके साथ नीबू या शहद मिलाकर ले सकते हैं। जिन्हें दुर्बलता प्रतीत होती है, उन्हें शहद का प्रयोग लाभ पहुँचाएगा। नीबू से पाचन संस्थान की सफाई में सहायता मिलेगी। एनीमा के प्रयोग का भी क्रम बाँधा जा सकता है। किन्तु एनीमा प्रत्येक उपवास में लेने की सरलता नहीं। महीने या दो महीने में एक बार ले लेना पर्याप्त है।

विहार सम्बन्धी शुद्धता में निरालस्यता और ब्रह्मचर्य प्रमुख हैं। शरीर के ओज एवं पोषण को कम से कम नष्ट करने पर ही आन्तरिक शक्ति में अभिवृद्धि सम्भव है। समय का एक क्षण भी बर्बाद न करना, निरन्तर काम में लगे रहना, प्रातःकाल दिनचर्या बना कर उसे पूरा करने में मशीन की तरह लगे रहना तथा उपासना का नियमित क्रम सदैव निभाना ये साधक के आवश्यक कर्तव्य हैं। आहार-विहार की शुद्धता तथा उपासना की नियमितता से अन्नमय कोश की साधना आगे बढ़ती है और व्यक्ति स्वस्थ शक्ति सम्पन्न, स्फूर्तिवान बनता है। इस तरह की गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना में प्रवेश करने वाले योद्धा को सर्वप्रथम शिक्षण स्वादेन्द्रिय से लड़ने और आहार बुद्धि की सुव्यवस्था बनानी पड़ती है। उसकी उपेक्षा करने से आगे का मार्ग अवरुद्ध ही पड़ा रहेगा यह बात हर उच्चस्तरीय साधक को कान खोलकर सुन लेना चाहिए और सुन समझकर गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि आहार को सात्विक बनाये बिना किसी भी प्रकार काम चलने वाला नहीं है। जो साधक मिष्ठान, पकवान और माल मलाई विपुल परिमाण में चरते रहते हैं उन्हें वासनाएँ ऐसे ही पथ पर भ्रष्ट कर लेती हैं जैसे मुर्गे की गर्दन को बिल्ली मरोड़ कर रख देती है। ऐसे साधकों को पग-पग पर आलस, प्रमाद सताता है और वासना तृष्णा की मृगमरीचिका उन्हें निरन्तर भ्रमाती, भटकाती रहती है।

अन्नमय कोश की साधना का प्रारंभिक कदम 'इन्द्रिय निग्रह' है यों ज्ञानेन्द्रियाँ पांच मानी जाती है पर उनमें दो ही प्रधान हैं। (१) स्वादेन्द्रिय (२) कामेन्द्रिय। इनमें से स्वादेन्द्रिय प्रधान है उसके वश में आने से कामेन्द्रिय भी वश में आ जाती है। जीभ का स्वाद जिसने जीता वह विषय वासना पर भी अंकुश रख सकेगा। चटोरा आदमी ब्रह्म्चर्य से नहीं रह सकता, उसे सभी इन्द्रियाँ परेशान करती हैं। विशेष रूप से काम वासना तो काबू में आती ही नहीं। इसलिए इन्द्रिय निग्रह की तपश्चर्या स्वाद को जीभ को वश में करने से आरम्भ की जाती है।

आरोग्य ही नहीं, मन को वासनासक्त होने से रोकने की दृष्टि से भी यह आवश्यक है कि स्वादेन्द्रिय पर अंकुश लगाया जाय। इस दृष्टि से नमक और मीठा दोनों को ही छोड़ देना अच्छा रहता है। यह निराधार भय है कि इससे स्वास्थ्य खराब हो जायेगा। सच तो यह कि इस संयम से पाचन क्रिया ठीक होती है, रक्त शुद्ध होता है, इन्द्रियाँ सशक्त रहती हैं, तेज बढ़ता है और जीवन काल बढ़ जाता है। इनसे भी बड़ा लाभ यह है कि मन काबू में आता है।

चटोरेपन को रोक देने से वासना पर जो नियन्त्रण होता है वह धीरे-धीरे सभी इन्द्रियों को वश में करने वाला सिद्ध होता है। जिस प्रकार पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में स्वादेन्द्रिय और कमेंन्द्रिय ही प्रबल हैं, उसी प्रकार स्वाद के षट रसों में नमक और मीठा ही प्रधान हैं। चरपरा, खट्टा, कसैला आदि तो उनके सहायक रस मात्र है। इन दो प्रधान रसों पर संयम प्राप्त करना षटरसों की त्यागने के बराबर ही है। जिसने स्वाद और काम-प्रवृत्ति को जीता उसकी सभी इन्द्रियाँ वश में हो गई जिसने नमक, मीठा छोड़ा, उसने छहों रसों को त्याग दिया, ऐसा ही समझना चाहिए। मन को वश में करने के लिए यह संयम साधना हर साधक को किसी न किसी रूप में करनी होती है।

संक्षेप में इस सन्दर्भ निम्नलिखित दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए साधना मार्ग पर चलने वालों को अपनी परिस्थिति एवं सुविधा का ध्यान रखते हुए कार्य पद्धति निर्धारित करनी चाहिए।

(१) सप्ताह में एक उपवास रखा जाय। यदि मात्र जल पर रह सकना कठिन पड़े तो दूध, छाछ, दही फलों का रस, शाक का रस जैसे प्रवाही पदार्थों से काम चलाया जाय। इतने में भी र्काठेनाई पड़े तो एक समय अन्नहार एक समय रसाहार की व्यवस्था बना ली जाय।

(२) समय-समय पर नियत अवधि के लिए अस्वाद व्रत का पालन करते रहा जाय। नमक और शक्कर दोनों को छोड़कर फीका भोजन करना ही अस्वाद व्रत है। आवश्यक नमक और शक्कर की पर्याप्त मात्रा हमारे स्वाभाविक आहार में रहती ही है। बाहर से नमक, शक्कर, मसाले आदि का प्रयोग स्वाद के लिए किया जाता है। इनमें स्वास्थ्य रक्षक कोई तत्व नहीं है। अस्तु अस्वाद व्रत पालन से स्वादेन्द्रिय को ही असुविधा होती है, स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इस अवांछनीय दबाव के हटने पर लाभ ही रहता है।

(३) साधक को दो वार से अधिक भोजन तो नहीं ही करना चाहिए। बीच-बीच में खाते रहने की आदत न डाली जाय। प्रातःकाल और तीसरे प्रहर दूध, छाछ क्वाथ, नीबू शहद जैसे द्रव पदार्थ भर लिये जा सकते हैं।

(४) एक समय अन्नाहार, एक समय शाकाहार, फलाहार आदि पर रहा जा सके तो भी उत्तम है।

(५) अपने हाथ से भोजन बनाया जा सके तो सर्वोत्तम अन्यथा सुसंस्कारी, स्वजनों के हाथ का बना परोसा भोजन ही ग्रहण किया जाय। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से रुग्ण, कुसंस्कारी लोगों का पकाया परोसा भोजन न लिया जाय। पात्रों की स्वच्छता का ध्यान भी रखा जाय। बाजार की बनी वस्तुओं से यथा सम्भव बचा जाय। बाहर जाना पड़े तो फल, सत्तु, चना जैसे चवैना पदार्थों पर गुजारा किया जाय जिन में व्यक्ति संस्कार अधिक न पड़े हों।

(६) माँस, अण्डा, जीव शरीरों से बनी औषधियाँ, शराब, तम्बाकू आदि नशीली वस्तुएँ ग्रहण न की जायें। मसालों की आदत जितनी घटाई जा सके घटानी चाहिए।

 (७) पेट ठूँस-ठूँस कर न भरा जाय, उसे जल और वायु के लिए एक तिहाई खाली रहने दिया जाय। कड़ी भूख लगने पर ही कुछ खाया जाय। यदि भूख न लगी हो तो उस समय का भोजन टाल दिया जाय उतावली न की जाय ग्रास को पूरी तरह चबाने के बाद ही गले से नीचे उतरने दिया जाय।

(८) थाली में कटोरियों की संख्या न बढ़ने दी जाय। खाद्य पदार्थो की संख्या अधिक न हो। रोटी, शाक, दाल-चावल जैसे दो की संख्या तो खाद्य पदार्थों की संख्या रहे तो ठीक है। उन्हें अदलते बदलते रहा जा सकता है। अधिक जायके, अधिक पदार्थ भोजन में न बढ़ने पायें, यही उचित है।

(९) खिचड़ी या दलिया, दाल, शाक डालकर पकाया जाय और उसमें ही दही आदि मिला लिया जाय तो यह आहार साधक के उपयुक्त सस्ता, सात्विक, सरल और हर दृष्टि से उपयोगी हो सकता है। इस पर भली प्रकार गुजर हो सकती है।

(१०) हमारा आहार अनीति उपार्जित न हो। बिना परिश्रम की कमाई भी साधक के लिए अभक्ष्य ही है। न्यायोपार्जित आजीविका में से भी लोक हित का एक महत्त्वपूर्ण अंश निकालने के उपरान्त ही यज्ञावाशिष्ट खाया जाय। पंच महायज्ञों को नित्य कर्म में इसी का स्मरण रखने की दृष्टि से समावेश किया गया है।    यह साधना का एक पक्ष ही है वस्तुत: यह मन को स्वस्थ निरालस्य और ब्रह्मचर्य संकल्प से ओत-प्रोत बनाने के लिए हैं। आधार बुद्धि से स्वत: मन उसके लिए स्फूर्त होता है पर पूर्व अभ्यास के कारण कभी विकार उठें भी तो उन्हें हठात रोका जाये और मन को अधिकाधिक आत्म विकास की ओर उन्मुख रखा जाय।     

(११) अन्नमय कोश के शोधन का दूसरा व्रत कुछ दिन बाद यह लेना चाहिए कि सप्ताह में एक दिन अथवा कम से कम एक़ समय उपवास किया जाय अब तक अस्वाद व्रत ही पर्याप्त माना जाता था, उपवास अनिवार्य नहीं था पर अब इसमें क्रमश: उच्चस्तरीय साधकों को सप्ताह में एक दिन या एक समय उपवास भी करना चाहिए।

(१२) ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत हर वर्ष कुछ कड़ाई बढ़ाते ही चलना चाहिए। गृहस्थ होते हुए भी साधकों को अधिकाधिक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इससे आत्म बल बढ़ता है, स्वास्थ्य सुधरता है, मानसिक शक्ति एवं बुद्धि में तीव्रता आती है, दीर्घ जीवन सुलभ होता है और सन्तान की सख्या बढ़ने से परिवार का अर्थ सन्तुलन बिगड़ने से बच जाता है। पत्नी की सबसे बड़ी सेवा यही हो सकती है कि उसे अधिकाधिक ब्रह्मचर्य से रहने देकर निरोगिता एवं सन्तान-पालन के असह्य भार से बचने का लाभ प्राप्त करने दिया जाय। इस सुविधा के प्राप्त होने पर ही वह पति तथा परिवार की अधिक सेवा कर सकने में समर्थ हो सकती है।

ब्रह्मचर्य की लम्बी मर्यादाएँ पालन करने वाले, असंयम से बचे रहने वाले पति-पत्नी ही सुयोग्य संतान उत्पन्न कर सकते हैं। युग-निर्माण के उपयुक्त नई पीढ़ी को जन्म देने के लिए यह आवश्यक है कि गृहस्थ में भी वासनात्मक संयम को कड़ाई से पालन किया जाय और इन्द्रिय निग्रह की अवधि अधिकाधिक लम्बी बनाई जाती रहे। गायत्री उपासना में संलग्न पति-पत्नी और परस्पर विचार विनियम द्वारा भावनात्मक उत्कर्ष करते रहें। साथ ही परमार्थिक कार्यों में भी आवश्यक अभिरुचि लेते रहें तो उनके शरीरों में वे तत्व उत्पन्न हो सकते हैं जिनके कारण नर रत्नों को जन्म दे सकना सम्भव होता है। हमारी हार्दिक इच्छा है, कि गायत्री परिवार के सद्गृहस्थों के यहाँ उच्चकोटि की आत्माएँ जन्म लें। युग निर्माण के लिए बड़ी ही विभूतियों की आवश्यकता पड़ेगी। दशरथ-कौशिल्या, वसुदेव-देवकी, दुष्यन्त-शकुन्तला की तरह प्रबुद्ध दम्पत्ति ही यह सौभाग्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं। पंचकोशी गायत्री उपासना में अन्नमय कोश को अनावरण करने का प्रयत्न करते हुए साधक यदि ब्रह्मचर्य को अधिकाधिक महत्त्व देते रहें और अपने साथ ही पत्नी का आत्मिक स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करते रहें तो गायत्री माता के अन्य वरदानों के साथ यह वरदान भी मिल सकता है कि इतिहास में अपना और अपने पिता-माता का नाम अमर करने वाली सुसन्तति उन्हें प्राप्त हो।


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