गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

स्वर योग

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विज्ञानमय कोश, वायु प्रधान कोश होने के कारण  उसकी स्थिति में वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता  है। इस वायु तत्व पर यदि अधिकार प्राप्त कर लिया  जाय तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा  सकता है।

स्वर शास्त्र के अनुसार श्वाँस-प्रश्वाँस के मार्गों को  नाडी़ कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या ७२००  है। इनको नसें न समझना चाहिए स्पष्टतः यह  प्राण-वायु आवागमन के मार्ग हैं। नाभि में इसी प्रकार की  एक नाड़ी कुण्डली के आकार में है। जिसमें से १- इड़ा,  २- पिंगला ३- सुषुम्ना ४- गंधारी, ५- हस्त-जिह्वा ६- पूषा,  ७- यशश्विनी, ८- अलंबुषा, १ - कुहू तथा १०- शंखिनी  नामक दस नाड़ियाँ निकली हैं और यह शरीर के विभिन्न  भागों की ओर चली जाती हैं। इनमें से पहली तीन प्रधान  हैं। इड़ा को चन्द्र' कहते हैं जो बाँये नथुने में है। पिंगला  को सूर्य' कहते हैं, यह दाहिने नथुने में है। सुषुम्ना को  वायु कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार  संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना-अपना काम करते हैं उसी प्रकार इड़ा, पिंगला भी इस जीवन में  अपना-अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। इन तीनों  के अतिरिक्त अन्य सात प्रमुख नाड़ियों के स्थान इस  प्रकार हैं- गंधारी नाक में, हस्त-जिह्वा दाहिनी आँख में,  पूषा दाहिने कान में, यशश्विनी बाँये कान में, अलम्बुषा  मुख में, कुहू लिंग देश में और शंखिनी गुदा में। इस प्रकार  शरीर के दस द्वारों में दस नाड़ियाँ हैं।

हठयोग में नाभिकन्द अर्थात् कुण्डलिनी स्थान गुदा  द्वार से लिंग देश की ओर दो अँगुल हटकर मूलाधार चक्र  माना गया है। स्वर योग से वह स्थिति माननीय न  होगी। स्वर योग शरीर शास्त्र से सम्बन्ध रखता है और  शरीर की नाभि या मध्य केन्द्र गुदा-मूल में नहीं वरन्  उदर की टुण्डी में ही हो सकता है। इसलिए यहाँ नाभि  देश का तात्पर्य उदर की टुण्डी मानना ही ठीक है। श्वाँस  क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उदर से ही है। इसलिए  प्राणायाम द्वारा उदर घर्षण संस्थान तक प्राण वायु को ले  जाकर नाभि केन्द्र से इस प्रकार घर्षण किया जाता है वहाँ  की सुप्त शक्तियों का जागरण हो सके।

चन्द्र और सूर्य की अदृश्य रश्मियों का प्रभाव स्वरों  पर पड़ता है। सब जानते हैं कि चन्द्रमा का गुण शीतल  और सूर्य का ऊष्ण है। शीतलता से स्थिरता, गम्भीरता,  विवेक, प्रवृत्ति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से तेज,  शौर्य, चञ्चलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुणों का  आविर्भाव होता है। मनुष्य को सांसारिक जीवन में  शान्तिपूर्ण और अशान्तिपूर्ण दोनों ही तरह से काम पड़ते  हैं। किसी भी काम का अन्तिम परिणाम उसके आरम्भ पर  निर्भर है। इसलिए विवेकी पुरुष अपने कमी को आरम्भ  करते समय यह देख लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की  स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार काम करने के अनुकूल है  कि नहीं ? एक विद्यार्थी को रात में उस समय पाठ याद  करने के लिए दिया जाय जब कि उसकी स्वाभाविक  स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद  न कर सकेगा। यदि यही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल  स्थिति में दिया जाय तो आसानी से सफलता मिल जायेगी।  ध्यान, भजन- पूजा, मनन, चिन्तन के लिए एकान्त की  आवश्यकता है, किन्तु उत्साह भरने और युद्ध के लिए  कोलाहलपूर्ण वातावरण की, बाजों की घोर ध्वनि की  आवश्यकता होती है। ऐसी उचित स्थितियों में किये कार्य  अवश्य ही फलीभूत होते हैं। दृष्टिकोण के आधार पर  स्वर-योगियों ने आदेश किया है कि विवेकपूर्ण और स्थायी  कार्य चन्द्र स्वर में किए जाने चाहिए जैसे- विवाह, दान,  मन्दिर, कुआँ, तालाब बनाना, नवीन वस्त्र धारण   करना, घर बनाना, आभूषण बनबाना, शान्ति के काम  पुष्टि के काम, शफाखाना, ओषधि देना, रसायन बनाना  मैत्री व्यापार, बीज बोना, दूर की यात्रा, विद्यारम्भ धर्म,  यज्ञ, दीक्षा, मन्त्र, विद्याभ्यास, क्रिया, आदि। यह सब  कार्य ऐसे हैं जिनमें अधिक गम्भीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य  करने की आवश्यकता है, इसलिए इनका आरम्भ भी ऐसे  ही समय में होना चाहिए जब शरीर के सूक्ष्म कोश  चन्द्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहे हों।


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