गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

प्राणमय कोश और उसका विकास

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प्राणमय कोश आत्मा पर चढ़ा हुआ दूसरा  आवरण है। अन्नमय कलेवर खाने-सोने, काम करने  जैसे प्रयोजन पूरे करता  है। इसके भीतर जो ऊर्जा,  स्फूर्ति, उमंग काम करती है वह प्राण है। प्राण से ही  शरीर चलता और जीवित रहता है। जिसका यह कोश  जितना समर्थ है वह उतना ही प्रतापी पराक्रमी, शूर,  साहसी प्रतीत होगा। उसका बढ़ा-चढ़ा चुम्बकत्व दूसरों  का सहयोग, सद्भाव अनायास ही आकर्षित करता  रहेगा। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी व्यक्तियों में यही प्राण  प्रखरता आलोकित रहती है।

स्थूल अन्नमय कोश के कण-कण में प्राण ऊर्जा  संव्याप्त है, पर उसका केन्द्र संस्थान प्रवेश द्वार  जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित मूलाधार चक्र है। इसकी  उमंगें कामेच्छा के रूप में मन को और रति कर्म की  ललक बनकर शरीर को उत्तेजित करती रहती है। इसी  केन्द्र के रस-रज वीर्य के अन्तर्गत छोटे-छोटे कीटाणुओं  में समूचे मनुष्य की आकृति-प्रवृति बीज रूप में  विद्यमान रहती है। सरसता की विविध-विधि उमंगें यही  से उठती हैं। कला केन्द्र इसी को कहा जाता है।  सौन्दर्य बोध से लेकर उल्लास भरे भविष्य की आशा  यही से निसृत होती है। डार्विन के अनुसार विकासवाद  के मूल तत्व कामुकता के विविध रूपों में प्राणी को प्रेरित  प्रभावित करते हैं। निस्तेज, निरुत्साही व्यक्ति को  ‘नपुंसक’ कहा जाता है यह एक गाली है। जिसका अर्थ  मनुष्य को नीरस निराश बनकर रहना होता है।

भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार मनुष्य की  स्थूल काया में व्याप्त उसी के अनुरूप एक प्राण शरीर  भी होता है। इस प्राण शरीर को शरीरस्थ प्राण संस्थान  को योगियों ने प्राणमय कोश कहा है। न केवल इसके  अस्तित्व का वरन् इसके क्रियाकलापों, गुण, धर्मों तथा  प्रभावों आदि विशेषताओं का वर्णन भी भारतीय ग्रन्थों में  विस्तार से मिलता है। इस मान्यता को स्थूल विज्ञान  बहुत दिनों से झुठलाता रहा है किन्तु जैसे-जैसे शरीर  विज्ञान के संदर्भ में जानकारियाँ बढ़ती जा रही हैं,  वैसे-वैसे प्राण संस्थान के प्राणमय कोश के अस्तित्व को  एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाने  लगा है।

अब इस सूक्ष्म सत्ता के प्रभाव भौतिक विज्ञान के  स्थूल उपकरणों की पकड़ में भी आने, लगे हैं। रूस के  इलेक्ट्रॉनिक विज्ञान वेत्ता सेम्योन किर्लियान ने एक  ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया जो मनुष्य के  इर्द-गिर्द होने वाली विद्युतीय हलचलों का भी छायांकन  करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के  साथ-साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह  ऐसे पदार्थो से बनी है जो इलेक्ट्रोनों से बने ठोस पदार्थ  की अपेक्षा भिन्न स्तर की है और अधिक गतिशील भी।

इंग्लैण्ड के डा० किलनर एक बार अस्पताल में  रोगियों का परीक्षण कर रहे थे। एक मरणासन्न रोगी की  जाँच करते समय उन्होंने देखा कि उनकी दुर्बीन  (माइक्रोस्कोप) के शीशे पर एक विचित्र प्रकार के रंगीन  प्रकाश कण जम गए हैं जो आज तक कभी भी देखे नहीं  गऐ थे। दूसरे दिन उसी रोगी के कपड़े उतरवा कर  जाँच करते समय डा० किलनर फिर चौंके उन्होंने देखा  जो प्रकाश कण दिखाई दिया था आज वह लहरों के रूप  में माइक्रोस्कोप के शीशे के सामने उड़ रहा है। रोगी के  शरीर के चारों ओर छः-सात इंच परिधि में यह प्रकाश  फैला है, उसमें कई दुर्लभ रासायनिक तत्वों के प्रकाश  कण भी थे। उन्होंने देखा जब प्रकाश मन्द पड़ता है  तब तक उसके शरीर और नाड़ी की गति में शिथिलता  आ जाती है। थोड़ी देर बाद एकाएक प्रकाश पुंज विलुप्त  हो गया। अब की बार जब उन्होंने नाड़ी पर हाथ-  रखा तो पाया कि उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना को  कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के साथ-साथ  डा० किलनर ने विश्वास व्यक्त किया कि जिस द्रव्य में  जीवन के मौलिक गुण विद्यमान होते हैं वह पदार्थ से  प्रथम अति सूक्ष्म सत्ता है। उसका विनाश होता हो ऐसा  सम्भव नहीं है।

प्राण तत्व को एक चेतन ऊजा (लाइव एनर्जी)  कहा गया है। भौतिक विज्ञान के अनुसार एनर्जी के छः  प्रकार माने जाते हैं- १. ताप (हीट) २. प्रकाश (लाइट)  ३. चुम्बकीय ( मैगनैटिक) ४. विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी)  ५. ध्वनि (साउण्ड) ६. घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा  यान्त्रिक (मैकेनिकल)। इस प्रकार की एनर्जी को किसी  भी दूसरे प्रकार की एनर्जी में बदला भी जा सकता है।  शरीरस्थ चेतना क्षमता-लाइव एनर्जी इन विज्ञान  सम्मत प्रकारों से भिन्न होते हुए भी उनके माध्यम से  जानी समझी जा सकती है।

एनर्जी के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वह  नष्ट नहीं होती बल्कि उसका केवल रूपान्तरण होता  है। यह भी माना जाता है कि एनर्जी किसी भी स्थूल  पदार्थ से सम्बद्ध रह सकती है, फिर भी उसका अस्तित्व  उसमें भिन्न है और वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में  स्थानान्तरित (ट्रान्सफर) की जा सकती है। प्राण के  सन्दर्भ में भी भारतीय दृष्टाओं का यही कथन है। अब  तो पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं।

इस संदर्भ में प्रकाश के बल्व के आविष्कर्त्ता  टामस एडिसन ने अत्यन्त बोधगम्य प्रकाश डालते हुए  लिखा है- ‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत-कण  गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है जब वह शरीर  से पृथक् हो जाती है। मृत्यु के उपरान्त यह गुच्छक  विधिवत् तो नहीं होते, पर वे परस्पर सम्बद्ध बने रहते  हैं। यह बिखरते नहीं, वरन् आकाश में भ्रमण करते  रहने के उपरान्त पुनः जीवन चक्र में प्रवेश करते हैं  और नया जन्म धारण करते हैं। इनकी बनावट बहुत  कुछ मधुमक्खी के छत्ते की तरह होती है। पुराना छत्ता  वे एक साथ छोड़ती हैं और नया छत्ता एक साथ बनाती  हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक  अपने साथ स्थूल शरीर की सामग्री अपनी आस्थाओं और  संवेदनाओं के साथ लेकर जन्मने-मरने पर भी अमर  बने रहते हैं।”   

इन प्रमाणों से शरीर में अन्नमय कोश से  सम्बद्ध किन्तु एक स्वतंत्र अस्तित्व सम्पन्न प्राणमय  कोश का होना स्वीकार करना ही पड़ता है। यों भी  शरीर में विज्ञान सम्मत ताप आदि छहों प्रकार की  एनर्जी ऊर्जा के प्रमाण पाये जाते हैं, किन्तु सारे शरीर में  संव्याप्त प्राणमय कोश का स्वरूप सबसे अधिक स्पष्टता  से जैवीय विद्युत (बायो इलैक्ट्रिसिटी) के रूप में समझा  जा सकता है।

शरीर विज्ञान में अब कायिक विद्युत पर पर्याप्त  शोधें हो रही हैं। शरीर में कुछ केन्द्र तो निर्विवाद रूप  से विद्युत उत्पादक केन्द्रों के रूप में स्वीकार कर लिए  गये हैं। उनमें प्रधान हैं- मस्तिष्क, हृदय तथा नेत्र।  मस्तिष्क में विद्युत उत्पादन केन्द्र को वैज्ञानिक  ‘रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम’ कहते हैं। मस्तिष्क के  मध्य भाग की गहराइयों में स्थित कुछ मस्तिष्कीय  अवयवों में से विद्युत स्पंदन (इलैक्ट्रिक इम्पल्स) पैदा  होते रहते हैं तथा सारे मस्तिष्क में फैलते जाते हैं। यह  विद्युतीय आवेश ही मस्तिष्क से विभिन्न केन्द्रों को  संचालित तथा परस्पर सम्बन्धित रखते हैं। चिकित्सा  विज्ञान में प्रयुक्त मस्तिष्कीय विद्युत मापक यंत्र (इलैक्ट्रो  एन्कैफलोग्राफ) ई० ई० जी० द्वारा मस्तिष्कीय विद्युत  धाराओं को नापा जाता है। उन्हीं के आधार पर  मस्तिष्क एवं सिर से सम्बन्धित रोगों के बारे में  निर्धारण किया जाता है। सिर में विभिन्न स्थानों पर  यंत्र के रज्जु (कार्ड) लगाये जाते हैं। उनसे नापे गये  विद्युत विभव (पोटैंशल) का योग लगभग १ मिली वोल्ट  आता है।

हृदय के संचालन में लगभग २० तार शक्ति  विश्रुत की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत हृदय में ही  पैदा होती है। हृदय में जिस क्षेत्र से विद्युत स्पंदन पैदा  होते हैं उसे ‘पेस मेकर’ कहते हैं। यह विद्युत स्पंदन  पैदा होते ही लगभग ०.८ सैकिण्ड में एक विकसित  मनुष्य के सारे हृदय में फैल जाते हैं। इतने ही समय  में हृदय अपनी धड़कन पूरी करता है। हृदय की  धड़कन के कारण तथा नियन्त्रक यही विद्युत स्पंदन  होते हैं। इन विद्युत स्पंदनों का प्रभाव ई० सी० जी०  (इलैक्ट्रो कार्डियोग्राफ) नामक यंत्र पर अंकित होते हैं।  हृदय रोगों से निर्धारण के लिए इन विद्युत स्पन्दनों को  ही आधार मान कर चला जाता है।

नेत्रों में भी वैज्ञानिकों के मतानुसार फोटो  इलैक्ट्रिक सैल जैसी व्यवस्था है। फोटो इलैक्ट्रिक सैल  की विशेषता यह होती है कि वह प्रकाश को विद्युत  तरंगों में बदल देता है। नेत्रों में भी इसी पद्धति से  विद्युत उत्पादन की क्षमता वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।  नेत्र रोगों के निर्धारण वर्गीकरण के लिए नेत्रों में  उत्पन्न विद्युत स्पन्दनों की ई० आर० जी० (इलैक्ट्रो  रैटिनोग्राफ) यंत्र पर अंकित किया जाता है।

इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शरीरस्थ कुछ  केन्द्रों में विद्युतीय स्पंदनों के उत्पादन के साथ-साथ  सारे शरीर में उनका संचार भी होता है। ई० ई० जी०  द्वारा सिर के हर हिस्से में मस्तिष्कीय विद्युत के स्पंदन  रिकार्ड किये जाते हैं। यही नहीं बहुत बार तो उनका  प्रभाव गर्दन सें नीचे वाले अवयवों से भी स्पष्टता से  मिलता है। हृदय की विद्युत का प्रभाव तो ई० सी० जी०  यंत्र द्वारा पैर के टखनों तक पर रिकार्ड किया जाता है।  हृदय के निकटतम तथा दूरतम सभी अंगों में यह स्पंदन  समान रूप से शक्तिशाली पाये जाते हैं।

शरीरस्थ प्राण प्रवाह के माध्यम से रोगों के  निदान पर चिकित्सा शास्त्रियों का विश्वास दृढ़ हो गया  है। मांसपेशियों की निष्क्रियता तथा स्नायु संस्थान के  रोगों में भी प्राणांकन पद्धति प्रयुक्त की जाती है।  इसके लिए ई० एम० जी० ( इलैक्ट्रो मायोग्राफ) का  प्रयोग होता है। शरीर के हर क्षेत्र के स्नायुओं अथवा  माँसपेशियों में विद्युतीय ऊर्जा की उपस्थिति तथा सक्रियता  का यह स्पष्ट प्रमाण है। यहाँ तक कि शरीर की त्वचा  जैसी पतली पर्त में भी उसकी अपने ढंग की विद्युत  विद्यमान है। चिकित्सा शास्त्री त्वचा के परीक्षण में भी  त्वक विद्युतीय प्रतिक्रिया (गैल्वानिक स्किनरिस्पॉन्स)  पद्धति का प्रयोग करते हैं।

इन वैज्ञानिक प्रमाणों के अतिरिक्त सामान्य  व्यावहारिक जीवन में भी मस्तिष्क से लेकर त्वचा तन  में विद्युत संवेगों की क्षमता के प्रमाण मिलते रहते हैं।  किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आकर्षण तथा किसी के प्रति  विकर्षण, यह शरीरस्थ विद्युत की समानता भिन्नता की  ही प्रति प्रतिक्रियाएँ हैं। दो मित्रों के परस्पर एक दूसरे  को देखने, स्पर्श करने में विद्युतीय आदान-प्रदान होता  है। योगी तो स्पर्श से अपनी विद्युत का दूसरे व्यक्ति के  शरीर में प्रवेश संकल्प शक्ति के सहारे विशेष रूप से  कर सकते हैं, किन्तु सामान्य स्पर्श से भी शरीरस्थ  विद्युत का आशिक आदान-प्रदान होता रहता है। स्पर्श,  सहलाने, हाथ मिलाने, गले मिलने आदि से जो स्पंदन अनुभव किये जाते हैं वे विद्युतीय आवेगों के आदान-प्रदान  के फलस्वरूप ही होते हैं, वैज्ञानिक भी इस तथ्य को  अब स्वीकार करने लगे हैं। विद्युतीय आवेगों के केन्द्र संस्थान को भारतीय  योग विद्या के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो उसे प्राणमय कोश  ही कहना पड़ेगा। प्राणमय कोश का स्पंदन विद्युतीय  आवेग, प्राण ही जीवन का सार तत्व है। यह प्राण ही  प्रगति का आधार है। समृद्धि उसी के मूल्य पर खरीदी  जाती है। सिद्धियों और विभूतियों का उद्गम स्रोत वही  है। यह प्राणतत्व अपने भीतर प्रचुर परिमाण में भरा  पड़ा है। उसका चुम्बकत्व बढ़ा देने से विश्व प्राण में भी  उसे अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध और धारण किया जा  सकता है। मानवी सत्ता में सन्निहित इस प्राण भंडार  को प्राणमय कोश कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त  स्थिति में पड़ा रहता है और उससे शरीर निर्वाह भर के  काम हो पाते हैं। उसे साधना विज्ञान के आधार पर  जागृत किया जा सके तो सामान्य में से असामान्य  प्रकटीकरण हो सकता है। प्राण की क्षमता असीम है।  प्राण साधना से इस असीमता की दिशा में बढ़ चलना  प्रचुर सशक्तता प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है।

अध्यात्मशास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव  भरा उल्लेख है। उसे ब्रह्म तुल्य माना और सर्वोपरि  ब्राह्मी शक्ति का नाम दिया गया है। प्राण की उपासना  करने का आग्रह किया गया है यह प्राण आखिर क्या  है ? यह विचारणीय है।

विज्ञान वेत्ताओं ने इस संसार में ऐसी शक्ति का  अस्तित्व पाया है जो पदार्थों की हलचल करने के लिए  और प्राणियों को सोचने के लिए विवश करती है। कहा  गया है कि यही वह मूल प्रेरक शक्ति है जिससे निःचेष्ट  को सचेष्ट और निस्तब्ध को सक्रिय होने की सामर्थ्य  मिलती है। वस्तुएँ शक्तियाँ और प्राणियों की विविध  विधि हलचलें इसी के प्रभाव से सम्भव हो रही हैं।  समस्त अज्ञात और विज्ञात क्षेत्र के मूल में यही तत्व  गतिशील है और अपनी गति से सबको अग्रगामी बनाता  है। वैज्ञानिकों की दृष्टि से इसी जड़ चेतन स्तरों की  समन्वित क्षमता का नाम प्राण होना चाहिये। पदार्थ को  ही सब कुछ मानने वाले ग्रैविटी ईथर, मैगनेट के रूप  में उसकी व्याख्या करते हैं अथवा इन्हीं की उच्चस्तरीय  स्थिति उसे बताते हैं।

चेतना का स्वतंत्र अस्तित्व मानने वाले वैज्ञानिक इसे साइकिक फोर्स लेटेन्ट हीट कहते हैं और भारतीय  मनीषी उसे प्राणतत्व कहते हैं। इस सन्दर्भ में भारतीय  तत्व दर्शन का मत रहा है कि प्राण द्वारा ही शरीर का  अस्तित्व बसा रहता है। उसी के द्वारा शरीर का पोषण,  पुनर्निर्माण, विकास एवं संशोधन कहने का अर्थ यह कि  हर क्रिया प्राण द्वारा ही संचालित होती है। अन्नमय कोश  में व्याहा, प्राणमय कोश ही उनका संचालन और  नियंत्रण करता है। शरीर संस्थान की छोटी से छोटी  इकाई में भी प्राण विद्युत का अस्तित्व अब विज्ञान ने  स्वीकार कर लिया है। शरीर की हर कोशिका विद्युत  विभव (इलैक्ट्रिक चार्ज) है। यही नहीं किसी कोशिका  के नाभिक (न्यूक्लियस) में लाखों की संख्या में रहने  वाले प्रजनन क्रिया के लिए उत्तरदायी जीन्स जैसे अति  सूक्ष्म घटक भी विद्युत आवेश युक्त पुटिकाओं (पैक्टिस)  के रूप में जाने और माने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि  विज्ञान द्वारा जानी जा सकी शरीर की सूक्ष्मतम इकाई  में भी विद्युत आवेश रूप में प्राणतत्व की उपस्थिति  स्वीकार की जाती है।

शरीर की हर क्रिया का संचालन प्राण द्वारा होने  की बात भी सदैव से कही जाती रही है। योग ग्रन्थों में  शरीर की विभिन्न क्रियाओं को संचालित करने वाले  प्राण-तत्व को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है।  उन्हें पंच-प्राण कहा गया है। इस प्रकार शरीर के  विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय प्राण को पंच उप प्राण कहा  गया है। वर्तमान शरीर विज्ञान ने भी शारीरिक  अंतरंग क्रियाओं की व्याख्याएँ विद्युत संचार क्रम के ही  आधार पर की है। शरीर के एक सिरे तक जो संचार  क्रम चलता है वह विद्युतीय संवहन प्रक्रिया के माध्यम  से ही है। संचार कोशिकाओं में ऋण और धन  प्रभार (निगेटिव तथा पोजिटिव चार्ज) अन्दर बाहर  होते रहते हैं, और इसी से विभिन्न संचार क्रम चलते  रहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में सैल का ‘डिपोलराइजेशन’   तथा ‘रीपोलराइजेशन’ कहते हैं। यह प्रक्रिया भारतीय  मान्यतानुसार पंच-प्राणों में वर्णित ‘व्यान’ के अनुरूप है।

आमाशय तथा आँतों में भोजन का पाचन होकर उसे  शरीर के अनुकूल रासायनिक रसों में बदल दिया जाता है।  वह रस आँत की झिल्ली में से पार होकर रस में मिलते हैं  तब सारे शरीर में फैल पाते हैं। कुछ रसायन तो सामान्य  संचरण क्रम से ही रक्त में मिल जाते हैं, किन्तु कुछ के लिए  शरीर को शक्ति खर्च करनी पड़ती है। इस विधि को  एक्टिव ट्रांस्पोर्ट् (सक्रिय परिवहन) कहते हैं। यह परिवहन  आँतो में जो विद्युतीय प्रक्रिया होती है। उसे वैज्ञानिक  सोडियम पंपों के नाम से सम्बोधित करते हैं। सोडियम  कणों में ऋण और धन प्रभार बदलने से वह सैलों की  दीवार के इस पार से उस पार जाते हैं। उनके संसर्ग से  शरीर के पोषक रसों (ग्लूकोज, वसा आदि) की भेदकता  बढ़ जाती है तथा वह भी उसके साथ संचरित हो जाते हैं।  यह प्रक्रिया पंच-प्राणों में ‘प्राण’ वर्ग के अनुसार कही जा  सकती है।

ऐसी प्रक्रिया हर सैल में चलती है। हर सैल  अपने उपयुक्त आहार खींचता है तथा उसे ताप ऊर्जा में  बदलता है। ताप ऊर्जा भी हर समय सारे शरीर में  लगातार पैदा होती और संचरित होती रहती है। पाचन  केवल आँतों में नहीं, शरीर के हर सैल में होता है।  उसके लिए रसों को हर सैल तक पहुँचाया जाता है।  यह प्रक्रिया जिस प्राण ऊर्जा के सहारे चलती है उसे  भारतीय प्राणवेत्ताओं ने ‘समान’ कहा है। इसी प्रकार  हर कोशिका में रस परिपाक के दौरान तथा पुरानी  कोशिकाओं के विखंडन से जो मल बहता है, उसके  निष्कासन के लिए भी विद्युत रासायनिक (इलैक्ट्रो  कैमिकल) क्रियाएँ उत्तरदायी हैं। प्राण विज्ञान में इसे  ‘अपान’ की प्रक्रिया कहा गया है।

पंच-प्राणों में एक वर्ग ‘उदान’ भी है। इसका  कार्य शरीर के अवयवों को कड़ा रखना है। वैज्ञानिक  भाषा में इसे इलैक्ट्रिकल स्टिमुलाइजेशन कहा जाता है ?  शरीरस्थ विद्युत संवेगों से अन्न्मय कोश के सैल किसी  भी कार्य के लिए कड़े अथवा ढीले होते रहते हैं। शरीर में इस प्रकार की अनेक अन्तरंग प्रक्रियाएँ  कैसे चलती हैं। इसकी व्याख्या वैज्ञानिक पूरी तरह नहीं  कर सके हैं। उसके लिए उन्होंने कई तरह के स्कूल  सिद्धान्त बनाये हैं। उनमें सोडियम पोटेशियम सांइकिल,  पोटेशियम पंप, ए. टी. फी- ए. डी. पी. सिस्टम, तथा  साइकिलिक ए. एम. पी. आदि के हैं। इनकी क्रिया  पद्धति तो कोई रसायन विज्ञान का विद्यार्थी ही ठीक से  समझ सकता है, किन्तु है यह सब विद्युत रासायनिक सिद्धान्त ही। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी घोल में  रासायनिक पदार्थों के अणु ऋण और धन प्रभार युक्त भिन्न-भिन्न कणों में विभक्त हो जाते हैं। इन्हें आयन कहा  जाता है। आयनों की संचार क्षमता बहुत अधिक होती  है। इच्छित संचार के बाद ऋण और धन प्रभार युक्त  आयन मिलकर पुनः विद्युतीय दृष्टि से उदासीन  (न्यूट्रल) अणु बना लेते हैं। शरीर में पाचन, शोधन,  विकास एवं निर्माण की अगणित प्रक्रियाएँ इसी आधार  पर चल रही हैं। तत्व दृष्टि से देखा जाए तो सारे  शरीर संस्थान में प्राणतत्व की सत्ता और सक्रियता  स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेगी।

इन मोटी गतिविधियों से आगे बढ़कर शरीर की  सूक्ष्म, गहन गति विधियों का विश्लेषण करने पर उनमें  भी प्राण शरीरस्थ प्राणतत्व का नियन्त्रण तथा प्रभाव  दिखाई देता है। शरीर में हारमोनों और एन्जाइमों की  अद्भुत सर्वथा विदित है। इन दोनों की सक्रियता  शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाने एवं शक्ति संचार  करने में समर्थ है, इन सभी को शरीर की सूक्ष्म से  सूक्ष्म गतिविधियों को विद्युतीय संवेगों द्वारा प्रभावित किया  जा सकता है। वह अभी ऐसा कर नहीं सके हैं पर अध्यात्म  विज्ञान के द्वारा, प्राणमय कोश को परिष्कृत कर  भारतीय ऋषियों ने यह सब कर दिखाया है वरन् ऐसे  प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं कि अपने प्राण परिष्कार से  दूसरे व्यक्तियों को, समाज को, यहाँ तक कि पूरे विश्व  को प्रभावित किया जा सके।



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