गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

मुद्रा उपचार

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मुद्राओं से ध्यान में तथा चित्त को एकाग्र करने में बहुत सहायता मिलती है। इनका प्रभाव शरीर की आंतरिक ग्रन्थियों पर पड़ता है। इन मुद्राओं के माध्यम से शरीर के अवयवों तथा उनकी क्रियाओं को प्रभावित, नियन्त्रित किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार के साधना के उपचार क्रमों में इन्हें विशिष्ट आसन, बंध तथा प्राणायामों के साथ किया जाता है। मुद्रायें यों तो अनेक हठयोग के अन्तर्गत वर्णित हैं। अनेक प्रयोजनों के लिए उनका अलग-अलग महत्व है। उनमें कुछ ध्यान के लिए उपयुक्त हैं, कुछ आसनों की पूरक हैं, कुछ तान्त्रिक प्रयोगों एवं हठयोग के अंगों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन सबके विस्तार में जाना न तो उपयोगी है और न आवश्यक।

प्रस्तुत पंचकोश अनावरण के अन्तर्गत जिन मुद्राओं को महत्वपूर्ण पाया गया है उनका विवरण यहाँ दिया जा रहा है। वे हैं-       (१)महामुद्रा (२) खेचरी मुद्रा (३) विपरीत करणी मुद्रा (४) योनि मुद्रा (५) शाम्वी मुद्रा (६) अगोचरी मुद्रा (७ )भूचरी मुद्रा

(१) महामुद्रा- बाएँ पैर की एडी़ को गुदा तक मूत्रेन्द्रिय के बीच सीवन भाग में लगावें और दाहिना पैर लम्बा कर दीजिए। लम्बे किये हुए पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े रहिये। सिर को घुटने से लगाने का प्रयत्न कीजिए। नासिका के बाएँ छिद्र से साँस पूरक खींचकर कुछ देर कुम्भक करते हुए दाहिने छिद्र से रेचक प्राणायाम कीजिए। आरम्भ में पाँच प्राणायाम बाईं मुद्रा से करने चाहिये, फिर दाएँ पैर को सकोड़कर गुदा भाग से लगायें और बाएँ पैर को फैलाकर दोनों हाथों से उसका अँगूठा पकड़ने की क्रिया करनी चाहिये। इस दशा में दाएँ नथुने से पूरक और बाएँ से रेचक करना चाहिये। जितनी देर बाएँ भाग से यह मुद्रा की थी उतनी ही देर दाएँ भाग से करनी चाहिये।

इस महा-मुद्रा से कपिल मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी। इससे अहंकार, अविद्या, भय द्वेष, मोह आदि के पंच क्लेशदायक विकारों का शमन होता है। भगन्दर, बवासीर, सग्रहिणी, प्रमेह आदि रोग दूर होते हैं। शरीर का तेज बढ़ता है और वृद्धावस्था दूर हटती जाती है।

(२) खेचरी मुद्रा- जीभ को उलटी करके उसे उलटना और तालू के गड़्ढे में जिह्वा का अग्र भाग लगा देने को खेचरी मुद्रा कहते हैं। तालू के गट्टे भाग में एक पोला स्थान है जिसमें आगे चलकर माँस की एक सूँड सी लटकती है, उसे कपिल कुहर भी कहते हैं। यही स्थान जिह्वा के अग्रभाग को लगाने का होता है।

प्राचीनकाल में जिह्वा को लम्बी करने के लिए कुछ ऐसे उपाय काम में लाये गये थे, जो वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक नहीं है। १-जिह्वा को इस तरह दुहना जैसे पशु के थन को दुहते हैं, २-जिह्वा को शहद, कालीमिर्च आदि से सहलाते हुए आगे की ओर सूँतना या खींचना, ३-जीभ के नीचे नाड़ी तन्तुओं को काट देना, ४-लोहे की शलाका से दबा-दबा कर जीभ बढ़ाना। यह क्रिया देश, काल, ज्ञान की वर्तमान स्थिति के अनुरूप नहीं है। जैसे अब प्राचीनकाल की भाँति हजारों वर्ष तक निराहार तप कोई नहीं कर सकता, वैसे ही खेचरी मुद्रा के लिए जिह्वा बढ़ाने के लिए कष्टसाध्य उपाय भी अब असामयिक हैं।

काली मिर्च और शहद की जिह्वा पर हल्की मालिश कर देने से वहाँ के तन्तुओं में उत्तेजना आ जाती है और उसे पीछे की ओर लौटने में सहायता मिलती है। इस रीति से जिह्वा के अग्रभाग को तालु गह्वर में लगाने का प्रयत्न करना चाहिये। जिह्वा धीरे-धीरे चलती रहे, जिसमें तालु गह्वर की हल्की-सी मालिश होती रहे। भूमध्य भाग में रखनी चाहिये।

खेचरी मुद्रा कपाल गह्वर में होकर प्राण-शक्ति का संचार होने लगता है और सहस्रदल कमल में अवस्थित अमृत निर्झर झरने लगता है, जिसके आस्वादन से एक बड़ा ही दिव्य आनन्द आता है। प्राण की उधर्वगति हो जाने से मृत्यु काल में जीव ब्रह्मरन्ध्र में होकर ही प्रयाण करता है, इसलिए उसे मुक्ति या सद्गति प्राप्त होती है। गुदा आदि अधोमार्गों से प्राण निकलता है, वह नरकगामी तथा मुख, नाक, कान से प्राण छोड़ने वाला मृत्युलोक में भ्रमण करता है, किन्तु जिसका जीव ब्रह्मरन्ध्र में होकर जायेगा वह अवश्य ही सद्गति को प्राप्त करेगा। खेचरी मुद्रा द्वारा ब्रह्माण्डस्थित शेषशायी सहस्रदल निवासी परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यह मुद्रा बड़ी ही महत्वपूर्ण है।

(३) विपरीत करणी मुद्रा- मस्तक को जमीन पर रखकर दोनों हाथों को उसके समीप रखना और पैरों को सीधे ऊपर की ओर उल्टे करना इसे विपरीत करणी मुद्रा कहते हैं। शीर्षासन भी इसी का नाम है। सिर का नीचा और पैर का ऊपर होना इसका प्रधान लक्षण है।

तालू के मूल से चन्द्र नाड़ी और नाभि के मूल से सूर्य नाड़ी निकलती है। इन दोनों के उद्गम स्थान विपरीत-करणी मुद्रा द्वारा सम्बन्धित हो जाते हैं। ऋषि-प्राण और धन-प्राण का इस मुद्रा द्वारा एकीकरण होता है। जिससे मस्तिष्क को बल मिलता है।

(४) योनि मुद्रा- इसे षड्मुखी भी कहते हैं। पद्मासन पर बैठकर दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों कान, दोनों हाथ की तर्जानियों से दोनों आँखें, दोनों मध्यमाओं से दोनों कानों के छिद्र और दोनों अनामिकाओं से मुँह बन्द कर देना चाहिये। होठों को कौए की चोंच की तरह बाहर निकाल कर धीरे-धीरे साँस खींचते हुए उसे गुदा तक ले जाना चाहिये। फिर उल्टे क्रम से धीरे-धीरे निकाल देना चाहिये। योनि मुद्रा की यह साधना योग सिद्धि में बड़ी सहायक सिद्ध होती है।

(५) शाम्भवी मुद्रा- आसन लगाकर दोनों भौहों के बीच में दृष्टि को जमाकर भ्रकुटी में ध्यान करने को शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। कहीं-कहीं अधखुले नेत्र और ऊपर चढ़ी हुई पुतलियों से जो शान्त चित्त ध्यान किया जाता है उसे भी शाम्भवी मुद्रा कहा है। भगवान शम्भू के द्वारा साधित होने के कारण इन साधनाओं का नाम शाम्भवी मुद्रा पड़ा है।

(६) अगोचरी मुद्रा-नासिका से चार उँगली आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना।

इसके अतिरिक्त नभो मुद्रा, महा-बंध शक्तिचालिनी मुद्रा, ताडगी, माण्डवी, अधोधारण ,आम्भसी, वैश्वानरी, बायवी, नभोधारणा, अश्वनी, पाशनी, काकी, मातंगी, धुजांगिनी आदि २५ मुद्राओं का घेरण्ड-सहिता में सविस्तार वर्णन है। यह सभी अनेक प्रयोजनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। प्राणमय कोश के अनावरण में जिन मुद्राओं का प्रमुख कार्य है, उनका वर्णन ऊपर कर दिया है। अब ९६ प्राणायामों में से प्रधान १ प्राणायामों का उल्लेख नीचे करते हैं।


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