गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

हमारे शरीर के रहस्यमय घटक जीन्स

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अन्नमय कोश की- दृश्यमान शरीर की- स्थूल संरचना तो अन्य प्राणियों जैसी ही है पर उसके अन्तराल में प्रवेश करने पर पता चलता है कि पग-पग पर उसमें विलक्षणताऐं भरी पड़ी हैं। इनके स्वरूप और उपयोग को जाना जा सके तो तिलस्म के वे पर्दे उठ सकते हैं जिनके भीतर रहस्यमय सिद्धियों के अनन्त भाण्डागार भरे पड़े हैं। काय-कलेवर में प्रजनन क्षमता की सूत्रधार अत्यन्त छोटी इकाई है-जीन्स। यह आँख से दृष्टिगोचर न होने वाले शुक्राणुओं और डिम्बाणुओं के अन्तराल में रहने वाले अत्यन्त ही क्षुद्र घटक हैं। इतने पर भी उसकी क्षमता देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह नहीं सोचना चाहिए कि हॉर्मोन या जीन्स ही रहस्यमयी क्षमताओं से सुसम्पन्न हैं। सच तो यह है कि पूरी काया ही तिलस्मी रहस्यों से भरी पूरी है। दुर्भाग्य यही है कि हम न तो उसकी सामर्थ्य को समझ पाते हैं और न उसके सदुपयोग का ही साहस जुटाते हैं।

हम जानते है कि हमारी काया का स्थूल भाग अन्नमय कोश छोटी-छोटी कोशिकाओं (सैल्स) से बना है। इन कोशिकाओं के अन्दर एक द्रव साइटोप्लाज्म' (बसामय पीला सा द्रव) पदार्थ भरा रहता है। इसके बीच में अवस्थित होता है, कोशिका का नाभिक अथवा केन्द्रक (न्यूक्लियस)। पुरुष की शुक्राणु कोशिका अथवा नारी की अण्डाणु या डिम्बाणु कोशिका के नाभिक में छोटे-छोटे धागे जैसे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) होते हैं एक नाभिक में इनके २३ या २४ जोड़े होते हैं। इन्हीं से लाखों की संख्या में जीन्स चिपके रहते हैं। नए मनुष्य शरीर के निर्माण तथा उसमें अनुवांशिकीय गुण धर्मों का विकास इन्हीं पर निर्भर करता है।

यह जीन्स क्या है ? कैसे यह अपनी आश्चर्यजनक भूमिका पूरी करते हैं ? इस रहस्य पर से विज्ञान अभी पर्दा उठा नहीं सका है। उनके सम्बन्ध में बड़ी तेजी से शोध कार्य चल रहे हैं, बहुत से रहस्य खुले भी हैं, फिर भी वह नहीं के बराबर हैं।

अभी तक अध्ययन के आधार पर जीन्स' छोटे से विधुन्मय पुटपाक या पूड़ियाँ (पैकेट) हैं। माना जाता है कि इनकी रचना कई तरह के न्यूक्लियल अम्लों के संयोग से हुई है। उनमें से अभी केवल दो के बारे में जाना जा सका है। वे हैं (१) डी०एन०ए० (डी आक्सी राइबो न्यूक्लीक एसिड) (२)आर०एन०ए० (राइबो न्यूक्लीक एसिड)।

जीन्स की संरचना के बारे में अभी तक नहीं जाना जा सका है, किन्तु यह जानकारियाँ निश्चित रूप से हो गयी हैं कि शरीर के अंग प्रत्यंग की विशिष्ट रचना में लेकर अनेक परम्परागत स्वभावों, रोगों तथा गुणों के विकास की आश्चर्यजनक क्षमता इनमें है। इनके गुणों और कार्यकलापों को कैसे नियन्त्रित किया जाय यह पता विज्ञान अभी नहीं लगा सका है, किन्तु यह माना जाने लगा है कि यदि जीन्स' के गुणों और कार्य प्रणाली को प्रभावित किया जा सके, तो आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। यह अन्नमय कोश के छोटे से घटक एक कोशिका के नाभिक में रहने वाले नगण्य अकार वाले विद्युन्मय पैकेट मनुष्य के आस पास के वातावरण से लेकर उसके विचारों और भावनात्मक विशेषताओं के संस्कार ग्रहण करने में समर्थ हैं।

मनुष्य के विकास के सम्बन्ध में भारतीय मान्यता यह रही है कि उस पर अनुवांशिकता के साथ-साथ बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। पहले इस मान्यता के प्रति उपेक्षा बरती जाने लगी थी।

यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और नहीं कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाऐं सीखी हैं, तो वह उस भाषा-ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा-ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवंशिक (जेनेटिक्स) का सारा ढाँचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उनसे गुलाब के फूलों की आशा नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से मोर के बच्चे कौन निकाल सकता है ? लेकिन जिन पौधों के बीज बोए जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं ? चूहों से चूहा और बिल्ली से, बिल्ली ही क्यों पैदा होती है ? इसका उत्तर है आनुवंशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिसके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवंशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिए बया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।      आनुवंशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषताऐं होती है। वे उन्हें अपने माता-पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को 'जीन' कहा जाता है। हमारा शरीर बहुत सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। 'जीन' कोशिका का ही एक भाग है। अगर किसी बट-वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में ले जाकर वो दिया जाय तो वह भी मूल पेड की तरह ही फलने फूलने लगेंगी। उसकी कोशिकाओं के जीन अपने पहले के पेड की भाँति होगें। ठीक उसी तरह जिसे तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं, जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।

अधिकांश पौधों और जीवों की उत्पत्ति नर और मादा से होती है। कुछ 'जीन' नर से और कुछ मादा से मिलते हैं। झरबेरी झाड़ी के बीज गुलाब तो नहीं, लेकिन एक ऐसा पौधा अवश्य उगा सकते हें, जिसमें एक की बजाय दो तरह के फूल हों। काली बिल्ली का बच्चा एकदम सफेद हो सकता है। यदि कोई पौधा या जानवर दो तरह की विशेषता के ''जीन'' आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त करता है, और दोनों का प्रभाव बराबर रहता है तो दोनों के मिलने से तीसरी विशेषता उत्पन्न होती है। अगर लाल गाय और सफेद रंग का साँड़ हो तो उनका बछड़ा न तो सफेद होगा और न लाल। वह भूरा, यानी दोनों के बीच के रंग का हो सकता है। ऐसा हो जाने के नियम की वैज्ञानिक व्याख्या आनुवंशिकता के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है। 'जीन' ही इस आनुवंशिकता के वाहक हैं और आनुवंशिकता की बुनियादी इकाई हैं। अभी तक किए गए परीक्षणों से यही जाना जा सका है कि व्यक्ति की शारीरिक विशेषताऐं जैसे रंग, रूप, नेत्र त्वचा, खून का प्रकार, लम्बाई, ठिगनापन आदि सब ही आनुवंशिक और पित्रागत होते हैं। ए शारीरिक गुण भी मात्र माता-पिता से नहीं प्राप्त होते, वरन् वे दादा, परदादा तथा अन्य पूर्वजों से क्रमश: संक्रमित होकर आते हैं। वंशानुगत गुणों में माता-पिता का दाय प्रत्येक गुण में आधा होता है। यानी माँ का एक चौथाई और पिता का एक चौथाई। उनके पूर्व के चार पितरों में प्रत्येक का दाया प्रत्येक गुण का सोलहवाँ भाग होता है अर्थात चारों पितरों का कुल दाय एक चौथाई भाग होता है। शेष १ चौथाई और पुरानी पीढ़ियों सें आते हैं।     व्यक्ति के संस्कार तो उसके जन्म-जन्मान्तरों की संचित सम्पदायें और साधन हैं। किन्तु उसके उपयुक्त उपकरण-अन्नमयकोश, के निर्माण के पटक जीन्स क्रोमो- सोम्स का भी स्वरूप निर्धारण कितनी सूक्ष्मताओं और जटिलताओं के आधार पर होता है, यह आनुवांशिकी की आधुनिक खोजों द्वारा भी स्पष्ट होता है। भारतीय मनीषी इन सूक्ष्मताओं से परिचित थे तभी वे सुसन्तति के लिए माता-पिता का चरित्रगत, तपस्वी, संयमी होना अनिवार्य बतलाते थे। इन्द्रिय लिप्साओं की रहने की खुजली को शान्त करते रहने की कुचेष्टाओं के साथ सुसन्तति की आकांक्षा करते रहना एक असम्भव कल्पना मात्र है। उसके सफल होने की कदापि कोई भी सम्भावना नहीं है। अन्नमय कोश इन सूक्ष्मताओं से परिचित होकर, अपना जीवनक्रम उस प्रकार व्यवस्थित कर व्यक्ति न केवल सुयोग्य सन्तति के जनक-जननी बनने की क्षमता से, अपितु उन अनेक विशिष्ट क्षमताओं, विभूतियों से सम्पन्न बनता है, जिनसे मनुष्य शरीर की सार्थकता और गरिमा है। अन्नमय कोश की साधना स्वयं की इन क्षमताओं के विकास का ही नाम है।

आनुवंशिकता का प्रभाव बिल्कुल सीधा और स्थूल नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी माता-पिता में से दोनों को या किसी एक को टी० बी० रोग (क्षयरोग) हो अपितु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि बच्चे को जन्म से ही टी० बी० (क्षयरोग) हो, अपितु इसका सिर्फ यह अर्थ है कि बच्चे के शरीर में एक ऐसी वृत्ति या तत्परता विद्यमान है कि क्षय रोग के कीटाणु शरीर में पहुँचते ही वहाँ जड़ पकड़ लेंगे।

इसी प्रकार मान लीजिए कि कोई बढ़ई है, जो अपने काम में बड़ा दक्ष है। यह कार्यदक्षता बच्चे में जन्मजात रूप से नहीं उत्पन्न होती। अपितु यदि बच्चे को कुशल बढ़ई बनाना है, तो उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाना ही होगा। हाँ, उस बच्चे के हाथ ऐसे हो सकते है, जिनके द्वारा कि उन औजारों का अधिक अच्छा उपयोग सम्भव हो, जो बढ़ईगीरी के काम आते हैं।

इसीलिए आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों को समान महत्त्व दिया जाता है। आनुवंशिकता द्वारा अर्जित गुण नहीं प्राप्त होते। कुछ जन्मजात गुणों का आधार ही आनुवंशिक को माना जाता है। ए जन्मजात गुण वंशानुक्रम के लक्षण कहे जाते हैं। वंशानुक्रम के लक्षण क्रोमोसोमों के आधार पर प्राप्त होते हैं। क्रोमोसोमों में होते हैं- जीन, जो व्यक्ति के "करेक्टरिस्टिकस" का निर्माण करते हैं।

'जीन' का व्यवहार या आचरण से सीधा सम्बन्ध नहीं होता। जीन शरीर के ऊतक तथा अंगों के विकास को निद्रेशित नियन्त्रित करते हैं। इस प्रकार वे शरीर की क्रियाशीलता को भी नियन्त्रित करते हैं। शरीर की ए क्रियाऐं स्पष्टत: व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं और उस रूप में जीन्स का सम्बन्ध व्यवहार से भी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वंशानुक्रम से छोटी टाँगें, ठूँठ्दार अँगुलियाँ या बहरे कान प्राप्त करता है तो निश्चय ही कुछ क्षेत्रों में उसकी योग्यता सीमित हो जाएगी। इसी प्रकार शारीरिक क्रियाओं में भाग लेने वाले हजारों रासायनिक तत्व भी जीन्स द्वारा ही निर्धारित होते हैं। जैसे दृष्टि के लिए प्रकाशसंवेदी तत्व या कि रक्त के जमने में कई रासायनिक तत्व योग देते हैं। इन तत्वों की उपस्थिति सशक्तता या दुर्बलता का सम्बन्ध जीन्स से ही होता है। ऐसे अनेक लक्षण वंशानुक्रम से सम्बन्धित होते हैं।

वंशानुक्रम के आधारभूत घटकों, जीन्स और क्रोमोसोम्स के अध्ययनों के निष्कर्ष इस तथ्य के द्योतक हैं कि अन्नमय कोश में निर्माण का सूक्ष्म आधार कितना व्यापक और जटिल होता है। पौष्टिक भोजन मात्र से अन्नमय कोश सुदृढ़ नहीं हो जाता इसके विपरीत अन्नमय कोश की सुदृढ़ता ही भोजन के रस परिपाक का कारण व आधार बनती है। बढ़िया खाने-पहनने की चिन्ता करते रहने को ही जीवन का पुरुषार्थ मान बैठने वाले अन्नमय कोश के निर्माण के आधारों से अनभिज्ञ रहकर उसे अस्त-व्यस्त और दूषित, विकृत बनाते रहते हैं और भावी सन्ततियों को भी उस विकृति का अभिशाप दे जाते हैं।

एक जीन, युग्म शरीर के किसी विशेष 'करेक्टरि- स्टिक' के विकास का निर्देश करता है। आँखें, भूरी हैं या नीली, बाल घने काले हैं या हल्के स्वर्णिम, हैं अथवा लाल, घुँघराले हैं या सीधे, सामान्य बाल हैं या गंजापन है, दृष्टि सामान्य है, या रतौंधी ज्यादा होने की सम्भावना है, श्रवण-शक्ति सामान्य है या जन्मजात बहरापन है, रक्त सामान्य है या कि ''हेमोफीलिया'' का दोष है, रंग-बोध स्पष्ट है या वर्णान्धता दोष है, उँगलियों या अँगूठों की संख्या सामान्य है या कम अधिक है, किसी जोड़ में कोई उँगली छोटी-बढ़ी तो नहीं है, सभी अवयव सामान्य हैं या कुछ अवयव विरूप हैं आदि सभी शारीरिक करेक्टरिस्टिकस जीन-युग्मों पर ही निर्भर करते हैं।

फ्रांन्सीसी दार्शनिक मान्टेन को ४५ वर्ष की आयु में पथरी की बीमारी हुई। उनके पिता को यह रोग २५ वर्ष की आयु में आरम्भ हुआ था। जबकि मान्टेन के जन्म के समय उनके पिता सिर्फ इक्कीस वर्ष के थे। उस समय उन्हें यह रोग नहीं था। लेकिन उनके जीन्स में इस रोग के आधार विद्यमान थे। मान्टेन की पित्ताशय की पथरी की बीमारी कई पीढ़ियों से चली आ रही थी।    बालकों का 'गैलेक्टो सीमिया' रोग जीन्स से ही सम्बन्धित होता है। वह जीन, जब ''यूरी डायल ट्रान्सफरे एन्जाइम" नहीं बनने देता, तो बच्चे दूध में रहने वाली मिठास गैलैक्टोस को पचा नहीं पाते। फलत: वह खून में जमा होती रहती है और जिगर में इकट्ठी होकर बच्चे का पेट खराब कर देती है तथा मृत्यु का भी कारण बन बैठती हैं।      "एक्रोड्में टाइटिस ऐटेरीपैथिका" नामक रोग का कारण भी मुख्यत: जीन्स की विकृतियाँ ही होती हैं। ऑंख का कैंसर-रेटीनो ब्लास्टीमा जीन्स दोष का ही परिणाम है। जीन्स की 'एक्रोड्रोप्लासिया' विकृति के कारण बच्चे अविकसित रह जाते हैं। वे जल्दी मरते हैं। बच गए तो भी वंश-वृद्धि में असमर्थ होते हैं। ऐसे दोष वाली महिलायें गर्भवती होने पर स्वयं भी प्राण-रक्षा नहीं कर पाती, बच्चे की जान तो खतरे में होती ही है।

'राइजोबियम' नामक जीवाणु की जीन को यदि धान, गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि फसलों की जड़ों में पलने वाले किसी जीवाणु में प्रत्यारोपित करना सम्भव हों तो इन फसलों के लिए अधिक उर्वरक नहीं खर्च करना पड़ेगा। भारत समेत विश्व भर की आनुवांशिकी प्रयोगशालाओं में इस हेतु प्रयास हो रहा है।

स्थूल दृष्टि की उपेक्षणीय लगने वाले इस अन्नमय कोश के अति सूक्ष्म घटक 'जीन्स' के साथ मनुष्य के उत्कर्ष की कितनी धाराएं, कितनी सम्भावनाएं जुड़ी हैं, इसे देखकर इसके रचियता उस महान कलाकार की कलाकारी को शत् शत् नमन ही करते बनता है। अन्तर में बार-बार यही हूक उठती है कि क्या ही अच्छा होता कि हम इन महत् शक्तियों के जागरण और उपयोग की विधि जान पाते, सीख पाते और अपना पाते ?

      अन्नमय कोश मे जीन, प्रक्रिया का परिवर्तन

 व्यक्तित्व के विकास निर्माण में आमतौर से वातावरण और प्रयत्न पुरुषार्थ का महत्त्व माना जाता है। यह मान्यता एक सीमा तक ही ठीक है क्योंकि एक जैसी परिस्थितियों में जन्में और पले बालक आगे चलकर भारी भिन्नतायुक्त देखे गए हैं। परिस्थितियों का उस पर यत्किंचित् ही प्रभाव पड़ता है।

   जीवसत्ता की रहस्यमय परतों का रहस्योद्घाटन करने के लिए हमें काय-कलेवर के गहन अन्तराल में प्रवेश करके यह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि व्यक्तित्व को प्रभावित करने, दिशा देने एवं उठाने गिराने में सूक्ष्म शक्तियों का कितना बड़ा योगदान रहता है। अन्नमय कोश स्थूल शरीर की वास्तविक स्थिति मात्र आहार विहार पर निर्भर नहीं है, वरन् ऐसे तथ्यों पर टिकी है जिन पर मानवी बुद्धि का कोई प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं है।

वंशानुक्रम विज्ञान पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि मनुष्य के शरीर, मन और व्यक्तित्व को बनाने में ऐसे कारणों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है जो दुर्भाग्य या सौभाग्य की तरह बहुत पहले से ही पल्ले बँधे होते हैं और उनसे न पीछा छुड़ाना सम्भव होता है और परिवर्तन का पुरुषार्थ ही सफल होता है। ऐसे प्रसंगों पर अध्यात्म साधनाऐं ही एकमात्र वह उपाय है जिनके सहारे वंशानुक्र्म एवं संग्रहीत संस्कारों में अभीष्ट परिवर्तन सम्भव हो सकता है। इस दृष्टि से शरीर विज्ञान एवं 'आरोग्य शास्त्र' की अपेक्षा आध्यात्म उपचारों की सामर्थ्य बहुत बढ़ी-चढ़ी है उनके सहारे शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का ही नहीं स्वभाव, दृष्टिकोण एवं समूचे व्यक्तित्व का ही काया कल्प हो सकता है।

भावी पीढ़ियों के निर्माण में आमतौर से पति-पत्नी की शारीरिक स्थिति की देख-भाल की जाती है और समझा जाता है कि निरोग एवं वलिष्ठ पति-पत्नी के संयोग से सुविकसित पीढ़ी बन सकती है। 'रक्त शुद्धि' मान्यता सम्भव: इसी आधार पर बनी है। मिश्र के शासक कभी इस सम्बन्ध में बहुत कठोर थे, वे मात्र अपने ही निकटवर्ती कुटुम्ब की मर्यादा में विवाह-शादी करते थे ताकि अन्य परिवारों के साथ रक्त सम्मिश्रण न हो और उनकी परम्परागत विशेषताओं में अन्तर न आए। यूरोप के राज्य परिवारों में भी इस रक्त-शुद्धि के सिद्धान्त को मान्यता मिलती रही है। हिटलर ने इस मान्यता को उन्माद की तरह उभारा था वह जर्मनों में आर्य रक्त की श्रेष्ठता बताता था और अन्यों से अपने लोगों को श्रेष्ठ मानता था। भारत में भी रोटी-बेटी व्यवहार में सम्भवत: ऐसी ही मान्यताओं का प्रभाव रहा हो।

उपर्युक्त मान्यतायें अवैज्ञानिक और अन्ध-विश्वासों पर आधारित रही हैं। तथ्य यह है ? कि भिन्न रक्तों के सम्मिश्रण से नए किस्म के परिवर्तन होते हैं और उनसे नई प्रगति के आधार बनते हैं। सन्तान के व्यक्तित्व का ढाँचा बनाने में जो जीन्स काम करते हैं, वे न जाने कितनी पीढ़ियों से चले आते हैं। मातृ कुल और पितृ कुल के सूक्ष्म उत्तराधिकारों से वे बनते हैं। सम्मिश्रण की प्रक्रिया द्वारा वे परम्परागत स्थिरता भी बनाए नहीं रहते, वरन् विचित्र प्रकार से परिवर्तित होकर कुछ से कुछ बन जाते हैं। यदि पीढ़ियों को दोष-मुक्त प्रखर एवम् सुसंगत बनाना है तो इस जीन प्रक्रिया को प्रभावित तथा परिवर्तित करना होगा, यह अति कठिन कार्य है। उतनी गहराई तक पहुँच सकने वाला कोई उपाय उपचार अभी तक हाथ नहीं लगा है जो इन सूक्ष्म इकाइयों के ढाँचे में सुधार या परिवर्तन प्रस्तुत कर सके।

असमर्थता देखते हुए भी यह कार्य बड़ा आवश्यक है कि जीन्स जैसी व्यक्तित्व निर्माण की कुंजी को हस्तगत किया जाय। अन्यथा परिस्थिति वातावरण, आहार-विहार शिक्षा परिष्कार के समस्त साधन जुटाने पर भी व्यक्तित्वों का निर्माण 'विधि-विधान' स्तर का ही बना रहेगा। इस सन्दर्भ में आशा की किरण अध्यात्म उपचार में ही खोजी जा सकती हैं। साधना प्रयत्नों से अन्नमय कोश की अन्तःप्रक्रिया में परिवर्तन लाया जा सकता है। उससे जीन्सों की स्थिति बदलने और पीढियों के उज्जवल भविष्य की आशा की जाती है। इतना ही नहीं पैतृक प्रभाव के कारण वयस्क व्यक्ति का जो ढाँचा बन गया है उसमें भी सुधार परिष्कार सम्भव हो सकता है। शारीरिक काया-कल्प 'मानसिक ब्रेनवाशिंग' की चर्चा होती रहती है। व्यक्तित्वों के परिवर्तन में साधनात्मक प्रयोग का परिणाम और भी अधिक उत्साहवर्धक ही सकता है।

आनुवंशिकी की खोजों से स्पष्ट हो गया है कि जीन्स में मात्रा भोजन की पौष्टिकता का तो प्रभाव नगण्य ही होता है, शारीरिक सुदृढ़ता स्फूर्ति, अभ्यास, कर्म-कौशल, व्यवहार, विकास, चरित्र का स्तर, मस्तिष्कीय क्षमताओं के विकास आदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सारभूत अंश उनमें विद्यमान रहता है। शरीर की विकृतियों का भी वे कारण होते हैं, पर उससे अनेक गुना महत्त्वपूर्ण तो मन: स्थिति, बौद्धिक क्षमताऐं और चारित्रिक प्रवृत्तियाँ होती हैं। आलस्य और प्रमाद के कारण व्यक्तित्व की क्षमताऐं प्रखरताऐं बिखरती, नष्ट होती रही, तो शारीरिक सुघड़ता में तो दोष आते ही हैं, व्यक्तित्व का मूलभूत स्तर घटिया होता जाता है। जिससे स्वयं का जीवन भी देवोपम विभूतियों से वंचित रहा आता है और अपनी सन्तान पर भी उसका विषाक्त प्रभाव छोड़ने का अपराधी बनना पड़ता है।

   आनुवांशिकी शोधें इतना भर विश्वास दिलाती हैं कि उपयुक्त रक्त मिश्रण से नई पीढ़ी का विकास हो सकता है। आरोपण प्रत्यारोपण की सम्भावना भी स्वीकार की गई है। वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए नहीं भावी में सुधार होने के सम्बन्ध में ही यह आश्वासन लागू होता है। वैज्ञानिक कहते हैं- 'जीन' सामान्यतया निष्क्रिय स्थिति में पड़े रहते हैं। उनकी सक्रियता नर-नारी का संगम होने के उपरान्त उभरती है। जीन का कार्य युग्म रूप में आरम्भ होता है। जिनका एक सदस्य पिता से आता है और दूसरा माता से। यह जोड़ा मिलकर नई संरचना की विधि-व्यवस्था में जुटता है। यदि दोनों पक्ष एक प्रकृति हुए तो उनका सृजन ठीक उसी रूप में होगा, किन्तु यदि भिन्नता रही तो दोनों के सम्मिश्रण का जो परिणाम होगा वह सामने आएगा। जो पक्ष प्रबल (डामिनेन्ट) होगा वह दुर्बल पक्ष- (रिसेसिव) की विशेषताओं को दबाकर अपना वर्चस्व प्रकट करेगा। फिर भी दुर्बल पक्ष की कुछ विशेषताएँ तो उस नए सम्मिश्रित सृजन में दृष्टिगोचर होती ही रहेंगी। एकरूपता मिलते चलने पर आकार भार बढ़ेगा। पानी में पानी मिलाते चलने पर रहेगा पानी ही, उसका परिणाम भर बढ़ेगा। किन्तु दो भिन्नताऐं मिलकर आकार ही नहीं स्थिति और प्रकृति का परिवर्तन भी प्रस्तुत करेंगी। पीला और नीला रंग मिला देने पर वे दोनों ही अपना मूल स्वरूप खो बैठेगें और तीसरा नया हरा रंग बना जाएगा। जीनों की परम्परा में पाई जाने वाली विशेषताएँ तथ्य रूप तो बनी रहेगी, पर उसका प्रत्यक्ष रूप परिवर्तित दृष्टिगोचर होगा। घोड़ी और गधे के सम्मिश्रण से नई किस्म के खच्चर पैदा होते हैं। कलमी पौधों के फल-फूलों में नए किस्म की विशेषताऐं उभरती हैं।       आनुवंशिकी के आधार पर अब तक इतना ही सम्भव हो सका है कि उपयुक्त जोड़े मिलाकर भावी पीढ़ी के विकास की बात सोची जाय। उस क्षेत्र में भी यह प्रश्न बना ही हुआ है कि निर्धारित जोड़े में जो विकृतियों चली आ रही होंगी उनका निवारण, निष्कासन कैसे होगा ? अच्छाई, अच्छाई से मिलकर अच्छा परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं तो बुराई, बुराई से मिलकर अधिक बुराई क्यों उत्पन्न न करेगी ? यदि अच्छाई-बुराई के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया तो नई मध्यवर्ती स्थिति बन सकती है, पर प्रगति का अभीष्ट परिणाम किस प्रकार उपलब्ध हो सकेगा ?

आनुवंशिकी शोधें तथ्यों पर पड़े पर्दे का तो उद्घाटन करती हैं, पर अभीष्ट सुधार के लिए उपयुक्त एवं सुनिश्चित मार्गदर्शन करना उनके लिए भी सम्भव नहीं हो सका है। वनस्पति में प्रत्यारोपण क्रिया के उत्साहवर्धक परिणाम सामने आए हैं। कृत्रिम गर्भाधान तथा दूसरे प्रत्यारोपणों का परिणाम भी किसी कदर अच्छा निकला है। मनुष्य की शरीर रचना में भी थोड़े हेर-फेर हुए हैं। गोरे और काले पति-पत्नी के संयोग से तीसरी आकृति बनी है। ऐंग्लोइण्डियन रेस अपने ढंग की अलग ही है। इतने पर भी मूल समस्या जहाँ की तहाँ है। जीन के साथ जुड़ी हुई पैतृत्व परम्परा में जो रोग अथवा दुःस्वभाव जुड़े रहेंगे उनको हटाना या मिटाना कैसे बन पड़ेगा ? यह तो भावी पीढ़ी के परिवर्तन में प्रस्तुत कठिनाई हुई। प्रधान बात यह है कि वर्तमान पीढ़ी को अवांछनीय उत्तराधिकार से किस प्रकार छुटकारा दिलाया जाय ? उसे असहाय स्थिति में पड़े रहने की विवशता से त्राण पाने का अवसर कैसे मिले ? इस क्षेत्र में परिवर्तन हो सकने की बात बहुत ही कठिन मालूम होती हैं।

   मनुष्य के एक जीन में करोड़ों इकाइयाँ होती हैं। इन पर विषाणुओं, वायरसों की क्या प्रतिक्रिया होती हैं, प्रस्तुत शोधें इसी उपक्रम के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। डा० हरगोबिन्द सिंह खुराना ने जिस जीन के कृत्रिम संश्लेषण में सफलता प्राप्त करके नोबुल पुरस्कार जीता था, वह मात्र १९९ इकाइयों वाला था। जिस नए जीवाणु की जीन बनाई जा सकी है उसकी १९९ इकाइयों को सही क्रम से जोड़ने में ९ वर्ष लगे हैं। यह तो एक प्रयोग भर हुआ। मनुष्य के एक जीन में पाई जाने वाली करोड़ों इकाइयों को सही क्रम से जोड़ना अतीव दुष्कर है। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने की है कि प्रत्येक जीवाणु कोशिका में ऐसे कई लाख जीन होते हैं। जो मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के निर्माण एवं संचालन का कार्य सम्पन्न करते हैं।

शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों के जीन्स द्वारा निर्माण की प्रक्रिया को अनुशासित रखने का दायित्व 'एन्जाइमों' का है। ए 'एन्जाइम' न्यूक्लिक अम्लों के माध्यम से- जीन्स से सम्बद्ध रहते हैं। चुम्बकत्व-शक्ति के प्रयोगों- उपचारों द्वारा इन एन्जाइमों को प्रभावित कर जीन्स के विकास-क्रम पर प्रभाव डाला जा सकता है। अभी वैज्ञानिक इस दिशा में अध्ययन कर रहे हैं।    भारत में अतीतकाल में सुसन्तति के लिए तप- साधना का विधान था, जो कि मनुष्य में अन्तर्निहित चुम्बकत्व-शक्ति का विकास-अभिवर्धन करता था। कृष्ण और रुकिमणी ने बद्रीनाथ धाम में बारह वर्ष तक तप कर अपनी चुम्बकत्व-शक्ति को अत्याधिक बना लिया था। तभी उन्हें प्रद्युम्न के रुप में मनोवांच्छित सन्तान प्राप्त हो सकी थी।

    वैज्ञानिकों का मत है कि जीन्स की विशेषताऐं विकिरणों द्वारा प्रभावित की जा सकती हैं। शरीर के भीतर रश्मियों के केन्द्रीकरण द्वारा ऐसी विकिरण-चिकित्सा व्यवस्था की जा सकती है। विद्युत्-क्षेत्र (इलेक्ट्रिक-फील्ड्स) द्वारा जीन्स की रासायनिक और विद्युतीय दोनों विशेषताओं में परिमार्जन संशोधन किए जा सकते हैं। ध्वनियों तथा अतिध्वनियों के क्षेत्र में भी खोजें चल रही हैं। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि उनके द्वारा भी जीन्स में परिवर्तन की विधि खोजी जा सकती है।

भौतिक विज्ञान से यह सम्भव हो या न हो, पर अध्यात्म विज्ञान से तो यह साध्य है ही। भारतवर्ष में साधना द्वारा शरीरस्थ जैवीय विद्युत् को प्रखर बनाकर मन्त्रों के माध्यम से उत्पन्न अतिध्वनियों तथा यज्ञादि के विकिरण का उपयोग इस दिशा में सफलतापूर्वक किया जाता रहा है। इन्द्र को जीतने में समर्थ वृत्रासुर की उत्पत्ति तथा राजा दशरथ के यहाँ राम भरत जैसी सुसन्तति की प्राप्ति ऐसे ही प्रयोगों द्वारा सम्भव हुई थी।        अध्यात्म विज्ञान वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ भौतिक विज्ञान की सीमाऐं प्राय: समाप्त हो जाती हैं। स्थूल की अगली सीड़ी सूक्ष्म है। अन्त: स्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाले विचित्र हॉर्मोन स्रावों की तरह आनुवंशिकी क्षेत्र के रहस्यमय घटक 'जीन' भी उतने ही विलक्षण हैं। इन्हें प्रभावित करने में, भौतिकी सफल न हो सके तो इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। सुनियोजित अध्यात्म विज्ञान के पीछे वे सम्भावनाऐं झाँकती हैं जिनसे न केवल हॉर्मोन और जीन वरन् ऐसे-ऐसे अनेकों रहस्यमय केन्द्र प्रभावित परिष्कृत किए जा सकते हैं जो सामान्य मनुष्य जीवन को असामान्य देवोपम बना सकने में समर्थ है। अध्यात्म विज्ञान की 'अन्नमय कोश' की कक्षा-प्रयोग प्रक्रिया इसी उद्देश्य को पूरा करती है। उस सन्दर्भ में यदि शोध और प्रयोग के लिए आवश्यक उत्साह जुटाया जाय, तो व्यक्ति को निकृष्ट से उच्च, उच्च से उच्चतर और उच्चतर से उच्चतम बनाया जा सकना सम्भव हो सकता है।


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