गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

मनुष्य देह में भरा विलक्षण विराट

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बाइं डाँगों अफ्रीका के गाँव मवाई तथा फ्राँस के 'केण्ड्री' स्थान में एक प्रकार का वृक्ष पाया जाता है जो वनस्पति विज्ञान के सभी नियमों का उल्लंघन कर एक ऐसा अपवाद बल गया है जिसका हल कोई भी वनस्पति शास्त्री आज तक खोज नहीं पाया। इस वृक्ष की जड़ें एक कील या चूल की तरह होती हैं जिसमें रखकर किसी यन्त्र को चारों ओर घुमाया जा सके। कभी कभी तूफान आते हैं तो प्रदेश के छोटे बड़े हजारों पेडू पौधे धराशायी हो जाते हैं किन्तु तूफान जब इस पेडू 'के समीप से गुजरता है तो वृक्ष चूल नुमा जड़ के सहारे चक्कर काटने लगता है जैसे कोई लट्टू नाचता है। जितनी देर तूफान वृक्ष नाचता रहेगा, तूफान खतम और नाच बन्द पौधा अपनी विकास यात्रा प्रारम्भ कर देता है। जड़ें अपना काम शुरू कर देती हैं। वृक्ष लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है।

मनुष्य देह में भी बहुत कुछ ऐसा है जिसके बारे में हम नहीं जानते पर वह इतना आश्चर्यजनक अद्वितीय क्षमताओं से परिपूर्ण है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक उस जैसी मशीन आज तक बना नहीं पाए। अपनी विचार शक्ति को केन्द्रित कर भारतीय योगियों ने जब इस शरीर गह्वर में प्रवेश कर उसका आद्योपान्त भ्रमण किया तो पाया कि जिसे हम शरीर कहते हैं वह तो विराट् ब्रह्माण्ड है सात लोक और उन्हें धारण करने वाला विराट् आकाश इसी में छिपा बैठा है। बड़ी बड़ी नीहारिकाओं से लेकर आकाश गंगा और सौर मण्डल तक अपने अपने ग्रह उपग्रह लिए इसमें चक्कर काट रहे हैं। मनुष्य शरीर दिखाई न दिया होता यदि इसमें पार्थिव कण विद्यमान न होते। स्थूल कणों की उपस्थिति स्वरूप अन्नमय कोश या प्रोटोप्लाज्मा की ईंटों से चुनाव की हुई इस बिल्डिग में स्थूल भाग दृश्य है इसलिए यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर केवल मात्र एक स्थूल पिण्ड है बरन् इसमें सूक्ष्म इतना है कि सारा आकाश ही अपने सम्पूर्ण घटकों के साथ छिपा बैठा है। इन सूक्ष्म शरीर को न जानने के कारण ही मनुष्य शारीरिक इन्द्रिय लिप्सा और भौतिक सुखों के आकर्षण में पड़ा जिन्दगी के दिन गँवाया करता है। एक दिन मृत्यु आती है और इस ईश्वर प्रदत्त महान् सौभाग्य को नष्ट करके चली जाती है।

मृत्यु के भय और अमरत्व की इच्छा ने भारतीय आचार्यों को विचार की एक नई दिशा दी उन्होंने खोज की

स्थूल शरीरं किम्? पंचीकृत पंच महाभूतैः कृत सत्कर्मजन्य सुख दुःखादि भोगायतनं शरीरम्। अस्ति जायते, वर्धते, विपरिणमते अपक्षीयते विनश्यतीति षइविकारवदेत स्थूल शरीरम्।।. (श्री शंकराचार्य कृत तत्वबोध )

अर्थात् स्थूल शरीर किसे कहते हैं? विश्लेषण से पाया गया कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और .आकाश इन पाँचों महाभूतों से किया गया, कर्मों के द्वारा उत्पन्न सुख दुःख आदि के भोगने का प्रधान आश्रय, नाश होने वाला, उत्पत्ति, वृद्धि, घटना, बढ़ना, ढीला पड़ना और नाश हो जाने वाला इन छः विकारों से युक्त यह शरीर है। इसमें अति सूक्ष्म आकाश है अर्थात् आकाश तत्व से शरीर की रचना प्रारम्भ होती है। आकाश तत्व दो भागों में बँटकर रहता है आधा तो वह अपने ज्यों के त्यों स्वरूप में रहता है शेष आधे को वायु भाग में मिला देता .है इस सम्मिश्रित भाग का आधा भाग अग्नि तत्व से मिलकर तेज या प्राण के रूप में व्यक्त होता है। इस तेज का आधा भाग जल से मिलकर तरल भाग रक्त आदि का निर्माण करता है इसी जल वाले आधे भाग से पृथ्वी तत्व अर्थात् स्थूल शरीर का निर्माण होता है। इस दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि भारी भरकम और स्थूल दिखाई. देने वाले शरीर में सर्वाधिक अंश आकाश है जिसके बारे में आज का विज्ञान कुछ भी नहीं जानता। और भारतीय योगियों ने उस सम्बन्ध में इतना अधिक जाना कि इसी शरीर में मूल चेतना ब्रह्म को प्राप्त कर लिया अमरत्व प्राप्त कर लिया। वेद में कहा गया है

यस्मिन भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्पस्मिन्न ध्याहिता। यत्रग्निश्वन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठ न्स्पार्पिताः ।। यस्य त्रय स्त्रिशद्देवा अंगे सर्वे समाहिताः ।। अर्थववेद १०। ७। १२। १३

अर्थात् भूमि अन्तरिक्ष और द्युलोक इसी शरीर में ही हैं जिसमें अग्नि चन्द्रमा,' सूर्य और वायु रहते हैं तैंतीस देवता भी इसी शरीर में रहते हैं।

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। अस्यां हिरण्यय कोश: स्वर्गा व्योतिषावृत। तस्मिन हिरण्यए कोशे त्र्यरे रेत्रिप्रतिष्ठिते। त्तस्मिन यद्यक्षमात्मन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः । अथर्व १०। २। ३१-३२ अर्थात्- यह देह देवताओं की पुरी अयोध्या है इसमें आठ चक्र हैं, नौ द्वार हैं सुनहरे कोशों से आच्छादित हृदय कमल है जो तेज से घिरे स्वर्ग के समान है। इस कोश में ही आत्मा विराजमान हैं उसे ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं।

भारतीय दर्शन और जीवन पद्धति में स्थूलता को कम महत्त्व दिया गया और देव भाग को अधिक यह यहाँ की सर्वोपरि विज्ञानवादिता थी। अब शरीर विद्या विशारद भी इन मान्यताओं पर उतरने लगे हैं कि वस्तुतः शरीर का सारा संचालन अधिकांश इन देव शक्तियों ग्रहों उपग्रहों या सूक्ष्म आकाश भाग से ही होता है। ओकाल्ट एनाटॉमी एण्ड दि बाइबिल'' पुस्तक में डा० कोराहन हेलिन ने कोलम्बिया विश्व विद्यालय के डा० लुइस वर्मन के निबन्ध व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाली ग्रन्थियाँ (ग्लैण्ड्स रेगुलेटिंग परसनैलिटी ) के हवाले से बताया है कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रन्थियाँ हैं। जो देखने में छोटी होती हैं। पर उनका महत्व असाधारण है। पाचन क्रिया से लेकर मनोवेगों तक सारा नियन्त्रण इन ग्रन्थियों से ही होता है। इन्हें वाहिनीहीन (डक्टलेस) ग्रन्थियों (ग्लैण्ड्स) कहा जाता है। अंतःस्रावी हॉर्मोन्स इन ग्रन्थियों से ही स्रवित होकर शारीरिक उतार चढ़ाव, घटना, बढ़ना. बुढ़ापा मृत्यु आदि का कारण बनते हैं।

एनाटॉमी मेडिकल कॉलेज कर्नेल विश्व विद्यालय के प्रोफेसर डा० चार्ल्स आर स्टार्क यार्ड ने इन ग्रन्थियों के आधार पर मनुष्य जीवन की एक नई धारणा प्रस्तुत. की है जो भारतीय आध्यात्मिक शोधों से शत प्रतिशत मेल खाती है। षट्चक्रों की भारतीय खोज और जीव शास्त्रियों द्वारा वर्णित सात ग्रन्थियों के क्रिया विज्ञान में कितना साम्य है इसे कभी फिर लिखेंगे तो पाठक आश्चर्य करेंगे जिन बातों को विज्ञान ने अत्यन्त कुशल मशीनों द्वारा जाना भारतीयों ने योग साधनाओं द्वारा उससे भी अधिक किस तरह प्राप्त कर लिया। डा० स्टाकर्ड लिखते हैं कि आन्तरिक स्राव वाली ग्रन्थियाँ एक महान् शासक के रूप में गर्भ धारण से लेकर मृत्यु तक स्त्रियों पुदृषों तथा समस्त रीढ़ की हड्डी वाले जीवों तक का नियन्त्रण करती है। "फिजीयोलॉजी" तथा सोशलॉजी की मान्यताएं भी अब '' अन्तराकाश" के अस्तित्व और उसके प्रचन्ड प्रभाव को स्वीकार करने लगे है। "ग्लैण्ड्स ऑफ डेस्टिनी " के लेखक डा० ईबो गैकी काब ने तो यहाँ तक मान लिया है कि अन्त: स्रावी (इन्डोक्राइन ग्लैण्ड्स" ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखने वाले लोगों ने ही इतिहास पर अधिकार रखा है और जमाने को कहाँ से कहाँ तक बदल दिया है। नैपोलियन बोनापार्ट का उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि यदि वाटरलू के युद्ध के समय नैपोलियन बोनापार्ट की "पिचुटी ग्लैण्ड" (पीयूष ग्रन्थि) में खराबी नहीं आ जाती तो वह हारता नहीं। जो नैपोलियन अत्यन्त दूरदर्शी निर्णय भी तुरन्त ले लेने की क्षमता रखता था। उसकी विवेक बुद्धि बुरी तरह लड़खड़ा गई। जिस समय वह एल्बा में निर्वासित था, उस समय उसकी लेगर्ड ग्रन्थि लड़खड़ा गई। यह सारी बातें तब प्रकाश में आई जब सेंट हेलेना में उसके शब की अन्त्य परीक्षा (पोस्टमार्टम) की गई। जब तक उसने इन ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखा, जब तक उसकी अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ सशक्त रही और नैपोलियन सारी दुनिया को जीतता रहा पर जैसे ही वह इन शक्तियों से वंचित हुआ वह नष्ट ही हो गया।

योग साधनाएँ इन देव शक्तियों के विकास का ही वैज्ञानिक उपक्रम हैं। आने वाली दिनों में जबकि अंतःस्रावी ग्रन्थियों के पदार्थ (मैटर) की खोज होगी और उसकी तुलना ग्रहों के पदार्थ से की जाएगी तो लोग आश्चर्य करेंगे कि मनुष्य शरीर में आकाश तत्व किस विलक्षणता के साथ के उपस्थित है और कितने आश्चर्यजनक ढंग से मनुष्य को अपनी इच्छा से बाँधे हुए है।

'' ओकाल्ट एनाटामी एण्ड दि बाइबिल'' पुस्तक के वैज्ञानिक लेखक ने उस तरह का तुलनात्मक अध्ययन, जिस तरह ''कुण्डलिनी तन्त्र'' में भारतीय योगियों ने किया है वैसा तो नहीं किया पर उसने माना है कि इन ग्रन्थियों का सम्बन्ध निश्चित रूप से नक्षत्र (स्टार्स) से है। उन्होंने इन्हें "आन्तक्षत्र" (इन्टीरियर स्टार्स) लिखा है और बताया है कि सूर्य और हरिग्रह पीनियल ग्लैण्ड से सम्बन्ध रखते हैं इसे तृतीय नेत्र ग्रन्थि भी कहा जाता है उससे भू मध्य में ''आज्ञा चक्र'' का ही स्पष्ट प्रमाण मिलता है। आज्ञा चक्र जागृत करने वाला "ऊँ '' ध्वनि सुन सकता है। सब तरफ की दूरवर्ती घटनाएँ देख सुन सकता है। यह सूर्य शक्ति का प्रभाव है। वरुण और चन्द्र का सम्बन्ध ?? ग्रन्थि' से है। चन्द्रमा के उतार चढ़ाव से मैन पर उतार चढ़ाव होता है यह इन दोनों तत्वों की एकता का प्रमाण है वृहस्पति उपवृक्क (एड्रिनल) पर, प्रजनन ग्रन्थि (गोनाड्स) पर, मंगल युद्ध का गल ग्रन्थि (थाय राइड्स) सूर्य का (पैरथायराइड्स) (उपगल ग्रन्थि) से सम्बन्ध हैं, इन ग्रहों के उतार चढ़ाव इन ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं। रामायण में कहा गया है कि

"उमादारु ज्योतिष की नाई, सबहिं नाचवत राम गोसाई"

हे गौरी! जिस प्रकार डोरी उंगलियों में बाँधकर कलाकार कठपुतलियों को नचाता है। परमात्मा उसी प्रकार सारी सृष्टि को। उसमें इसी तथ्य का प्रतिपादन है। मनुष्य इस आकाशीय प्रक्रिया से बँधा .हुआ नाचता रहता है पर जो लोग अपने इस सूक्ष्म शरीर को विकसित करके अपनी चेतना का उत्तरोत्तर विकास कर विराट् पुरुष से जोड़ देते हैं। वे इन ग्रन्थियों पर शरीर यन्त्र पर उसी तरह नियन्त्रण कर सकते हैं जिस तरह कोई अत्यन्त सुदूरवर्ती केन्द्रस्थ विराट् तारा समस्त ब्रह्माण्ड का नियन्त्रण करता है। .आने वाली खोजें बताऐगी कि सिद्ध योगी और ब्रह्माण्ड की महाशक्ति में कोई अन्तर नहीं होता। पैरासेल्स ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। वस्तुतः स्थूल शरीर भी एक देवता है। उसकी साधना की जा सके तो रुग्ण और दुर्बलकाय व्यक्ति चन्दगीराम, सेण्डो जैसे विश्व विख्यात पहलवान बन सकते हैं। पौहारी बाबा की तरह आवश्यक पोषण आहार आकाश से ही आकर्षित करते रह सकते हैं। गंगोत्री के स्वामी कृष्णाश्रम जी की तरह दो सौ वर्ष. की आयु पा सकते है।

तप तितीक्षा द्वारा सोती हुई शक्ति को जागृत किया जाता है तपाने से गर्मी बढ़ती है। गर्मी से परिशोधन होता है और दृढ़ता परिपक्वता की अभिवृद्धि होती है। धातुओं को तपाने से उनका अशुद्ध अंश विलग होता है। कुपाच्य खाद्य पदार्थों को अग्नि पर पकाकर सुपाच्य बनाया जाता है। मिट्टी के बर्तनों और कच्ची ईंटों को. भट्टे में पकाने से उनकी मजबूती बढ़ती है। आयुर्वेद की रस, भस्में अग्नि संस्कार में ही विनिर्मित होती हैं। तप तितीक्षा को स्थूल शरीर की साधना में ही सम्मिलित किया गया है। ब्रह्मचर्य तप है। अस्वाद व्रत उपवास को तप माना गया है। सर्दी, गर्मी सहन करने के लिए कम वस्त्र धारण करने, जूते न पहनने ठण्डे पानी से नहाने, जैसी तितीक्षाऐ की जाती हैं। कोमल शैय्या का त्याग, भूमि शयन अथवा तख्त पर सोना इसी प्रकार की साधना है। सुविधा का लाभ लेते रहने पर प्रतिरक्षा की शक्ति नष्ट होती है। जो लोग एयर कण्डीशन कमरों में रहते हैं, उनकी ऋतु प्रभाव सहने की क्षमता चली जाती है। जरा सी सर्दी गर्मी लगने पर वे तुरन्त बीमार पड़ते हैं। सहन शक्ति बढ़ाने से बलिष्ठता बढ़ती है। इसलिए तितीक्षा जहाँ आरम्भ में कष्ट कर लगती है, वहाँ उसके परिणाम अन्ततः लाभदायक ही होते हैं। व्यायाम भी एक प्रकार का तप ही हैं उसे करने में शरीर पर दबाव ही पड़ता है, पर सर्वविदित है कि इस तप साधना के फलस्वरूप बलिष्ठता बढ़ती है और पहलवान बना जाता है।

सक्रियता और स्फूर्ति में जो उत्साह भरती है; उस चेतना को ओजस् कहते हैं। ओजस्वी ऐसे ही व्यक्ति कहे जाते हैं, जिन्हें पराक्रम प्रदर्शित करने में सन्तोष और गौरव का भव होता है, जिन्हें आलसी रहने में लज्जा का अनुभव होता हे, जिन्हें अपाहिज अकर्मण्यों की तरह सुस्ती में पड़े रहना अत्यन्त कष्टकारक लगता है। सक्रियता अपनाए रहने में, कर्मनिष्ठा के प्रति तत्परता बनाए रहने में उन्हें आनन्द आता है, उन्हें ओजस्वी कह सकते हैं। आलसी के चेहरे पर उदासी, मुर्दानी छाई रहती है और उत्साही की आँखों में तेज चमकता है और चेहरा देखते ही उसकी सक्रियताजन्य चमक सहज ही दीप्तिवान दिखती है। शरीर वही रहता है, पर अकर्मण्यता और कर्मनिष्ठा की निर्जीवता और सजीवता की आलस्य और उत्साह की निराशा और आशा की प्रखरता और पराभव की परस्पर विरोधी मनःस्थितियों को मनुष्य का चेहरा देखते ही जाना और आँका जा सकता है। सौन्दर्य, आकर्षण और प्रभाव चुम्बक मात्र शरीर की बनावट पर ही निर्भर नहीं है। उत्साह और कर्मनिष्ठा की प्रवृत्ति उसमें चार चाँद लगा देती है। स्फूर्तिवान् कुरूप भी सुन्दर लगने लगते हैं। इसके विपरीत अच्छे रंग रूप वाले भी निर्जीव निष्प्राण, तेजहीन, मलिन, मुर्दनी लादे हुए दीखते हैं तो उनकी ओर से मुँह फेर लेने को ही जी करता है।

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे सफलता का प्रारूप यह ओजस्विता ही बनाती है। ऐसे लोग जो भी काम हाथ में लेते हैं उसमें विशेषता की छाप छोड़ते हैं। उनके कार्य अपने में ही उत्कृष्टता की साक्षी देते हैं और बताते हैं कि हमें मनोयोग उत्साह रख उत्तरदायित्व की भावना के साथ सम्पन्न किया गया है। स्वल्प साधनों से पुरुषार्थी लोग अपने कार्यों को अच्छे स्तर के साथ सम्पन्न करते हैं और कम समय में अधिक उत्कृष्टता के साथ निपटाते हैं। फूहड़पन उन्हीं कामों में दृष्टिगोचर होता हैं जिन्हें अकुशल हाथों से, उपेक्षापूर्वक अन्यमनस्क भाव से बेगार भुगतने की तरह, भार ढोने की वृत्ति से किया गया होता है। स्थूल शरीर की साधना मात्र श्रम एवं आहार विहार की सुव्यवस्था तक ही सीमित नहीं हैं उसके साथ वह' कुशलता स्फूर्ति एवं प्रसन्नता भी जुड़ी रहनी चाहिए। जिसे ओजस्विता के नाम से जाता है। जिन शरीरों में ओजस का समावेश करने की साधना की गई है वे बराबर की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी असामान्य कार्य करते हैं और विशिष्ट गौरवान्वित होते हैं

सक्रियता देखने में तो शारीरिक अवयवों का प्रयास मात्र लगती है; पर वस्तुतः वह आन्तरिक होती है। क्रिया स्थूल है पर स्फूर्ति को सूक्ष्म ही कहा जाएगा, वह शरीर का नहीं अन्तःचेतना का उभार उत्साह रख गुण है। शरीर तो साधारण उपकरण मात्र है जिसका विनियोग किसी कुशल कारीगर द्वारा होने पर ही कलात्मक चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होता है।

इस संसार में प्रकृति की तीन शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। इन्हीं की प्रेरणा से विभिन्न जड़ पदार्थ अपने अपने ढंग की विविध हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं। इन तीन शक्ति का नाम है ( १ )विद्युत( २ ) ताप( ३ ) प्रकाश। अगणित क्षेत्रों में अगणित प्रकार के क्रिया कृत्यों का संचार इन्हीं के द्वारा होता है। शरीर में भी यह तीन शक्तियाँ विद्यमान हैं और अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती हैं।

स्नायु मण्डल में 'विद्युत् धारा' का संचार रहता है। मस्तिष्क उसका केन्द्र है। इन्द्रिय केन्द्रों पर उसी का आधिपत्य है। ज्ञान तन्तुओं के द्वारा केन्द्र तक सूचना पहुँचाना और वहाँ से मिले निर्देशों को अवयवों के द्वारा सम्पन्न कराना इसी शक्ति का काम है। मन:. संस्थान की समस्त गतिविधियाँ इसी के द्वारा संचारित होती हैं। विकास से सम्बन्धित समस्त हलचलें प्रकाश तरंगों द्वारा सम्पन्न होती हैं। सूर्य की प्रकाश किरणें वनस्पतियों की अभिवृद्धि एवं प्राणियों में प्राण संचार का प्रयोजन पूरा करती हैं और भी बहुत कुछ उनके द्वारा होता है। आयु के साथ होने वाली अभिवृद्धि को यह प्रकाश तत्व ही सँजोता है।

आध्यात्मिक अलंकारों में विद्युत् को ब्रह्मा, प्रकाश को विष्णु और ताप को शिव माना गया है 1 मन :क्षेत्र में इनकी हलचलें भावना, इच्छा और किया .के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। वह ब्रह्माण्ड भी विराट् पुरुष का एक सुविस्तृत शरीर ही है। इसमें विद्युत् तत्व सत, प्रकाश रज और ताप को तम रूप में प्रतिपादित किया गया है।

आन्तरिक स्थिति में हेर फेर करके बाहर की स्थिति बदली जा सकती है। सभी जानते हैं कि मन : स्थिति ही भली बुरी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। अन्तरंग को. बदलने पर बाहरंग सहज ही बदला जा सकता है। शारीरिक स्थिति में सुधार परिवर्तन करना हो तो :उस उपकरण के अन्तराल में काम कर रही सूक्ष्म क्षमताओं को देखना सम्भालना होगा। कारखाने की मशीनें ठप्प हों तो समझना चाहिए कि विद्युत् धारा या भाप ताप के शक्ति स्रोतों में कहीं कुछ अड़चन उत्पन्न हो गई है! मशीनों की देखभाल करना भी उचित है, पर आधारतो शक्ति स्रोतों पर निर्भर है। शरीर गत दुर्बलता, रुग्णता को दूर करने के लिए आहार बिहार की गड़बड़ियाँ सुधारना और चिकित्सा उपचार पर ध्यान देना आवश्यक हैं पर काम इतने से नहीं चल सकता। देखना यह भी होगा कि अवयवों के संचार करने के लिए उत्तरदायी सूक्ष्म शक्तियों की प्रवाह धारा ठीक प्रकार चल रही है या नहीं। शरीर 'तीन फेस' पर चलने वाली मोटर है। इन सभी तारों का ठीक स्थिति में होना आवश्यक है जिससे शक्ति संचार में अवरोध उत्पन्न न होने पाए।

अवयवों को कई प्रकार की बुरी आदतें घेर लेती हैं इन्द्रियों को उच्छृंखलता बरतने का अभ्यास पड़ जाता है दुर्व्यसनों को इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लिया जा सकता है। आलस्य में अवयवों की अशक्तता का दोष कम और आन्तरिक स्फूर्ति की न्ययूनता का कारण अधिक काम कर रहा होता है। इन दोष दुर्गुणों को ठीक करने के लिए मात्र शारीरिक अवयवों को दोष देना अथवा उसी की ठीक पीट करना पर्याप्त न होगा। शरीर में संव्याप्त अन्तःचेतना की भी देख भाल करनी होगी। यही स्थूल शरीर का अध्यात्म विज्ञान है। यदि इस स्तर की गहराई तक पहुँचा जा सके और वहाँ सुधारने, उभारने का कौशल प्राप्त हो सके तो शरीरगत दोष दुगुणों दुर्बलता रख रुग्णता को निरस्त कर सकना सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।


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