गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

पाँच प्राणों की साधना-पाँच कोशों की सिद्धि

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सम्पूर्ण विश्व प्राण-ऊर्जा से संचालित है। भूमा प्राण ही इस विश्व का आधार है। विकिरण-ऊर्जाओं के पाँच प्रधान-स्तरों कास्मिक किरणों, पराकासनी, विकिरण दृश्य (प्रकाश) विकिरण, अवरक्त विकिरण एवं रेडियो  विकिरण के स्तर पर सक्रिय चेतन-सत्ताएँ ही पाँच  प्रधान देवसमूह हैं, जो पाँच प्रकार की प्राण-शक्ति से प्राणित रहते हैं। प्राण-ऊर्जा का अपेक्षाकृत स्थूल रूप ही पंचभूतों के रूप में प्रकट होता है। न्यूक्लियान, मेसान, फोटान और लेप्टान ये चार प्राथमिक कण प्राण ऊर्जा की भूत, स्तरीय परिणति हैं, जो शास्त्रीय शब्दावली में क्रमशः पृथ्वी तत्व, आपः तत्व, अग्नि-तत्व एवं वायु-तत्व के नाम से अभिहित हैं। सूक्ष्म प्राण-तरंगें आकाशतत्व का स्वरूप है। तरल प्रवाहमयता के कारण को आपः शरीर कहा गया है-
‘अथैतस्य प्राणस्य आपः शरीरम्।’                               
(वृह० उप० १। २। १)

इस प्रकार प्राण-ऊर्जा का तरंग प्रवाह ही सृष्टि का मूल है। पंचभूतों से ही यह अग-जग विनिर्मित है। प्राणियों का शरीर भी निर्मित है। इसमें पाँच उपप्राण होते हैं। उन्हीं की प्रतिनिधि स्वरूपा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँच कामेन्द्रियाँ मनुष्य को प्राप्त हैं जो पाँच प्रकार के बोधों की मूल हैं। शरीर में पाँच आवर्त या पाँच परतें हैं जिन्हें पंचकोश कहते हैं। मनुष्य चित्त में पाँच मूल वृत्तियाँ, संस्कारानुरूप उत्पन्न होती है। पांच प्रकार के क्लेश जीव को बाँधे रहते हैं। यही संसार प्रपंच है। इसीलिए संसार प्रपंच की तुलना श्वेताश्वतर उपनिषद् में नदी से की गई है, जो सतत् प्रवाहमान है-

पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां  पञ्च प्राणोर्मि पञ्चबुद्धयादिमूलाम्।
                         पञ्चावर्ता पञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशभ्देदां पञ्चपर्वामधीम।।"                                                                              ( श्वे० १। ५)
अर्थात् पाँच स्रोतों से आने वाले जल से उत्पन्न और पाँच उद्गमों से उद्भूत वक्गति उग्रा यह पाँच प्राणतरंगो वाली एवं पांच प्रकार के बोधों की मूल, पाँच आवर्तो या भंवरों वाली, पाँच दुःख प्रवाहों से वेग सम्पन्ना, पाँच पर्वो वाली इस पचास भेदों वाली जगत् सरिता को जानना चाहिये।

इस संसार प्रपंच को भलीभाँति जानने और उस पर स्वामित्व प्राप्त करने के लिए पंचप्राणों की साधना द्वारा पंचकोशों की सिद्धि करनी होती है। यही गायत्री की पंचमुखी साधना है।

गायत्री विद्या प्राण-विद्या है। गायत्री को प्राण कहा गया है-
 ‘यो वै स प्राण, एषा सा गायत्री।।”                   
                     (शतपथ ब्रा० १। ३। ५। १५)
          अर्थात् जो वह प्राण है वही यह गायत्री है। सूर्य जगत् के प्राण का प्रतीक है। सर्व व्यापी चेतना-प्राण को सविता कहते हैं। सूर्य उसी का आधिभौतिक रूप है। उसका आध्यात्मिक रूप सविता है। इसीलिए सविता को चेतना-सूर्य कहा जा सकता है।

सृष्टि में संव्याप्त पाँच विकिरण-ऊर्जाएँ और सृष्टि का आधार पंचभूत समष्टिगत पंच प्राण हैं तथा प्रकाश विद्युत चुम्बकत्व, ऊष्मा एवं ध्वनि ये पाँच समष्टिगत उपप्राण हैं। व्यक्ति सत्ता में भी पाँच प्राण एवं पाँच उपप्राण क्रियाशील रहते हैं। इन पाँचों प्राणों और पाँच उपप्राणों पर अधिकार प्राप्त करना ही प्राण विद्या, गायत्री विद्या है। इसीलिए ऋग्वेद में कहा गया है कि व्यक्ति-सत्ता में प्रवाहमान महाप्राण वन्दनीय है। वही अग्नि ऋषि है-
 “अग्निऋषि पवमान पाल्वजन्यः पुरोहितः।
   तमीमहे महागयम्।                           
                                    (ऋग्वेद १। ६६। २०)
अर्थात् यह अग्निऋषि हमें पवित्र करते हैं और पाँच कोशों में प्रकाश भरते हैं, उनका मार्गदर्शन करते हैं। उन्ही महाप्राण की हम शरण जाते हैं।

यहाँ महाप्राण को महागम कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट किया गया है कि गय ही प्राण हैं।
साहैषा गायांस्तत्रे प्राणा वै गयात्पाणांस्तत्रे।
                             तद्यद् गयास्तत्र तस्माद् गायत्री नाम।”                       
                                                   ( शतपथ ब्रा० १४। ८। १५। ७)
अर्थात् गय ही प्राण हैं जो गयों का यानी प्राणों का त्राण परित्राण करती हैं। वह गायत्री है। काषीतकि उपनिषद् में भी स्पष्ट किया गया है कि प्राण ही गायत्री है-
"प्राणो वै गायत्र्यः।”      
                                                 (कोशी० १५। २)

वृहदारण्यक उपनिषद् में इसी तथ्य का विशद विवेचन है-
‘प्राणो वै बलं। यत्प्राणे प्रतिष्ठित तस्मादाहुर्बलम्।
सत्यादोगीय इत्येवं वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता।
सा हैषा गयाँस्तत्रे प्राणा वै गयास्तत्याणाँ स्तत्रे तद्यद्
                गयाँ स्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।।                            
                                   (वृहदप्त उ० ५। १४। ४)
अर्थात् प्राण ही बल है। जो प्राण में प्रतिष्ठित है, वही बल है। सत्य बल ही प्राण-बल है। इसीलिए प्राणाधिष्ठिता गायत्री अध्यात्म में प्रतिष्ठित है। गय ही प्राण है। गायत्री प्राणों का त्राण करती है। प्राणों का त्राण करती है, इसी से इसका नाम गायत्री है।

यह गायत्री त्रिपदा है अर्थात् यह तीन स्तरों पर एक साथ सक्रिय है। शरीर के स्तर पर यह प्राण-शक्ति ओजस के रूप में क्रियाशील रहती है। मस्तिष्क के स्तर पर यही प्राण-शक्ति चिन्तन् की तेजस्विता के रूप में सामने आती है। इसे ही तेजस कहा जाता है। अन्तःकरण स्थित आस्थाओं के स्तर पर यह प्राण शक्ति मूल चेतना की सर्वोच्च उत्कृष्टता से जुड़ने का आधार बनती है। वहाँ जितनी ही जागृत यह शक्ति होगी, व्यक्ति ब्रह्म सत्ता से उतनी ही गहराई से जुड़ सकने में समर्थ होगा। उसका अन्तःकरण उतना ही अधिक सविता प्रकाश से, ब्राह्म-सत्ता की ज्योति से आलोकित होगा। इसी आलोक को ‘वर्चस’ या ब्रह्मवर्चस कहते हैं। ‘वर्च’ धातु उज्जवल या आभायुक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। उससे असुन प्रत्यन करने पर नपुंसकलिंगी शब्द ‘वर्चस्’ बनता है। वीर्य प्रकाश कांति, आभा आदि उसके पर्याय हैं। तात्पर्य यह है कि त्रिपदा गायत्री प्राण शक्ति शरीर में ओजस बल, चिन्तन में तेजस बल तथा आस्था भूमि में वर्चस बल या ब्रह्मसता के आलोक बल के रूप में अभिव्यक्त होती है। वही गायत्री शक्ति समष्टि जगत में आधिभौतिक या द्रव्य ऊर्जा आधिदैविक या दिव्य ऊर्जा तथा आध्यात्मिक या चेतन ऊर्जा के रूप में निरन्तर क्रियाशील है। सूर्य आधिभौतिक ऊर्जा का स्रोत है। आदित्य दैवी ऊर्जा का स्रोत है। आदित्य दैवी ऊर्जा का आधार है तथा सविता आध्यात्मिक ऊर्जा का वितरण, नियन्ता एवं निर्देशक है। एक ही मूल शक्ति के ये विविध वर्गीकरण हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न नहीं मानना चाहिये। जिस प्रकार एक ही काव्य पंक्ति में अभिघा, लक्षणा एवं व्यञ्जना भेद से तीन भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार एक ही परम सत्ता से तीन प्रकार की ऊर्जाएँ, तीन प्रकार के प्रकाश-प्रवाह एवं प्रेरणा प्रवाह निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं। वही परम सत्ता गायत्री का प्राण सविता है।

वस्तुतः प्राण चेतना की बलिष्ठता का ही नाम है। वही चेतना इन्द्रिय क्षेत्र या शरीर क्षेत्र, मन-मस्तिष्क या चिन्तन क्षेत्र एवं आस्था-क्षेत्र में भिन्न-भिन्न रूपों में सक्रिय है। तीनों ही क्षेत्रों में प्राण-तत्व का अभिवर्धन गायत्री की त्रिपदा साधना है।

यह त्रिपदा-साधना पाँच तहों या स्तरों पर की जाती है। इसीलिए त्रिपदा गायत्री को पंचमुखी कहा जाता है। पाँचों ही स्तरों पर प्राण-विद्या को प्रखर बनाना ही पंचकोशी साधना है। प्रश्नोपनिषद् में यह स्पष्ट किया गया है। महर्षि पिप्पलाद ने भार्गव ऋषि को बताया कि एक बार शरीरस्थ पंच महाभूत सभी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण अपनी-अपनी श्रेष्ठता का दावा करने और परस्पर झगड़ने लगे। तब प्राण-सत्ता ने उनसे कहा कि तुम लोग व्यर्थ झगड़ते हो। मैं ही पाँच भागों में विभक्त होकर तुम सबको आश्रय दे रहा हूँ। जब प्राण की इस बात को उन सबने नहीं माना तब वह अपना प्रभाव दिखलाने के लिए बाहर जाने के लिए ऊपर उठने लगा, तब सबने अनुभव किया कि इसके निकलने का प्रयास करते ही हम सब क्षीण, निष्किय हुए जा रहे हैं। तब वे सब प्राण की स्तुति करने लगे और उसकी वरिष्ठता स्वीकार की। इस रोचक कथा द्वारा प्राण-शक्ति की मौलिकता बताते हुए आगे कहा है-
 "एकोऽग्निस्तपत्येष सूर्यएक पर्जन्योमघवानेष वायुः।
                             एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतम् च यत्।।”                        
                                ( प्रश्नो० द्वितीय प्रश्न-५वाँ श्लोक)
 अर्थात् यह प्राण-शक्ति ही अग्नि है, यही सूर्य है, यही इन्द्र है, यही वायु और यही पृथ्वी है। जो कुछ भी है, उन सबमें अमृत-तत्व यही है। आगे कहा गया है-
‘प्राणाग्नय एवै तस्मिपुरे जाग्रति’                                   
 ( प्र० ४। ३)
अर्थात् इस काया नगरी में पाँच प्राण रूप पाँच अग्नियों का निवास है-

इस प्रकार शरीर में ये पंचाग्नियाँ उसी प्रकार तपती रहती हैं, जैसे सम्पूर्ण विश्व में पंचस्तरीय प्राण-ऊर्जाएँ सतत् प्रवाहमान हैं। समष्टि यज्ञ उन्हीं पंच प्राण-ऊर्जाओं से सम्पन्न होता रहता है। इसी प्रकार व्यष्टि यश भी इन्हीं पाँच प्राणाग्नियो से सम्पन्न होता  रहता है।

शरीरस्थ पंच प्राण हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान। इन्हें ही पंचाग्नि रूप में इस प्रकार वर्णित किया गया है-
"गार्हपत्यो हवा एकोऽयानो, व्यानोउन्वाहार्यपचनो
यद्गार्हपत्यात् प्रणीते प्रणायनादाहवनीयः प्राणः।
     यदुच्छासनिः श्वासावेत्तावाहुती समं नयतीति स समानः।
 मनोह वाव यजमानः इष्टफलमेवोदान स एनं यजमानम्
            अहरहर ब्रह्म गमयति।।                                  
                          (प्रश्नो० ४। ३ व ४)
अर्थात् अपान ‘गार्हपत्य’ अग्नि है, व्यान अन्वाहार्य पचन नामक अग्नि यानी दक्षिणाग्नि है। गार्हपत्य से जो उठाकर ले जायी जाती है, उसे आहवनीय अग्नि कहते हैं। इसीलिए ऊपर उठने वाला मुख्य प्राण प्रवाह आह्वनीय अग्नि है।

श्वासों का आवागमन ही आहुतियों का अविच्छिन्न क्रम है। इन दोनों श्वास निःश्वास या ऊध्र्वर्श्वास, अधःश्वास रूपी आहुतियों को सम्पूर्ण शरीर में समायोजित करने वाली प्राण शक्ति समान है अर्थात् श्वास से खींचे गये पोषण तत्व को सम्पूर्ण शरीर में समानता से वितरित करने वाली और विजातीय वायु को सम्पूर्ण शरीर से खींचकर बाहर फेंकने वाली प्राण शक्ति को समान कहते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया के फलस्वरूप जो तेज की वृद्धि होती है, जो तीव्र वेग की क्षमता उत्पन्न होती है, वही उदान नामक प्राण-शक्ति है। इस प्रकार पंचाग्नि सेवित इस शरीर यज्ञ का यजमान मन है और होता है समान नामक प्राण शक्ति। उससे जो तेजस् क्रमशः वृद्धिगत होता है, वह दिनानुदिन यजमान को ब्रह्मलोक या ब्रह्मवर्चस की दिशा में आगे बढ़ाता है। पंचप्राणों की साधना का यही रहस्य है कि उन पर अधिकार प्राप्त करते हुए क्रमशः ब्रह्मवर्चस की दिशा में बढ़ा जाय, उत्कृष्टता का, सात्विकता का, आध्यात्मिकता का अधिकाधिक समावेश किया जाय। श्रेष्ठता की ओर प्रखरता पूर्वक बढ़ा जा सके, यही प्राण-साधना का सत्परिणाम है।

शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के क्या-क्या कार्य है ?  इसका वर्णन आयुर्वेद शास्त्र में इस प्रकार किया गया है-      
(१) अपान- अपनयति प्रकर्षेण मल निस्सारयति अपकर्षाति च शक्तिम् इति अपानः।

अर्थात जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है। मल-मूत्र, स्वेद, कफ रज, वीर्य आदि का विसर्जन, भ्रूण का प्रसव आदि बाहर फेंकने वाली क्रियाएँ इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती हैं।

(२) समान- रसं समं नयति सम्यक् प्रकारेण नयति इति समानः।

अर्थात्-जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता है और वितरित करता है वह समान है। पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है।

पातञ्जलि योग सूत्र के पाद ३ सूत्र ४० में कहा गया है- “समान जयात् प्रज्वलम्” अर्थात् समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है।

(३) प्राण- प्रकर्षेण अनियति प्रकर्षेण वा बलं ददाति आकर्षति च शक्ति स प्राणः।

अर्थात जो श्वास, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है। शब्दोचार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है।

(४) उदान- उन्नयति यः उद्आनयति वा तदानः।

अर्थात्- जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे-वह उदान है। ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएँ इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

(५) व्यान- व्याप्नोति शरीरं यः स ध्यानः।

अर्थात्-जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है-वह व्यान है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियाँ इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

इस तरह प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का सम्पादन स्थान छाती है। इस तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है और षटचक्र वेघन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता पाया जाता है।

द्वितीय-अपान का कार्य शरीर के विभिन्न मार्गो से निकलने वाले मलों का निष्कासन एवं स्थान गुदा है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया है और मूलाधार चक्र को प्रभावित करता है।

तीसरा समान-अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक करता है और स्थान नाभि है। हरे रंग की आभा वाला और मणिपूर चक्र से सम्बन्धित इसे बताया गया है।

चौथा उदान-का कार्य है आकर्षण ग्रहण करना, अन्न-जल, श्वास, शिक्षा आदि जो कुछ बाहर से ग्रहण किया जाता है वह ग्रहण प्रक्रिया इसी के द्वारा सम्पन्न होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरान्त का विश्राम सम्भव करना भी इसी का काम है। स्थान कण्ठ, रंग बैंगनी तथा चक्र विशुद्धाख्य है।

पाँचवाँ व्यान-इसका कार्य रक्त आदि का सञ्चार, स्थानान्तरण। स्थान सम्पूर्ण शरीर। रंग गुलाबी और चक्र स्वाधिष्ठान है।

ये पाँच प्राण पाँच विशिष्ट रूपों में अभिव्यक्त होकर पाँच उपप्राण कहे जाते हैं, उनके नाम हैं-      
(१) देवदत्त, (२) नाग, (३) धनंजय, (४) कूर्म और (५) कृंकर या कृकल।

पाँच उपप्राण इन्हीं पाँच प्रमुखों के साथ उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे मिनिस्टरों के साथ सेक्रेटरी रहते हैं। प्राण के साथ नाग। अपान के साथ कूर्म। समान के साथ कृकल। उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है। नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु। कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप कृकल का भूख-प्यास, देवदत्त का जँभाई, अँगड़ाई धनञ्जय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यो का उत्तरदायी बताया गया है, पर वस्तुतः वे इतने छोटे कार्यो तक ही सीमित नहीं हैं। मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रखने में उनका पूरा योगदान रहता है। इन प्राण और उपप्राणो के भेद को और भी अच्छी तरह समझना हो तो तन्मात्राओं और ज्ञानेन्द्रियों के सम्बन्ध पर गौर करना चाहिये। शब्द तत्व को ग्रहण करने के लिए कान, रूप तत्व की अनुभूति के लिए नेत्र, रस के लिए जिव्हा, गन्ध के लिए नाक और स्पर्श के लिए जो कार्य त्वचा करती है, उसी प्रकार प्राण तत्व द्वारा विनिर्मित सूक्ष्म संभूतियों को स्थूल अनुभूतियों में प्रयुक्त करने का कार्य यह उप प्राण सम्पादित करते हैं।

इस तरह देवदत्त, जिव्हा, समेत मुख-मण्डल और उसके साथ जुड़े नेत्र, कर्ण, नासिका आदि की गतिशीलता क्रा नियन्त्रक निदेशक है, जबकि नाग जननेन्द्रियों का नियंत्रक है। सहस्त्रार क्षेत्र की प्राण-ऊर्जा का संचालन देवदत्त के अधीन है, तो मूलाधार क्षेत्र की प्राण-शक्ति नाग के अधीन है। प्रजनन, कामवासना एवं कुंडलिनी-शक्ति का नियंत्रण यही करता है। इससे निचले क्षेत्र-जाँघ से एडी तक धनंजय उपप्राण के अधीन रहते हैं। अग्रगमन, गतिशीलता का उत्साह इसी की प्रखरता से बढ़ता रहता है। कूर्म उपप्राण पाचन-तंत्र की साज-सम्हाल करने वाली प्राण-ऊर्जा है तो कृकल उपप्राण गायन, सम्भाषण आदि कंठ से जुड़ी क्रियाओं का नियामक निर्देशक है। यों सामान्यतः प्राणामयकोश से ही पाँचों प्राणों और पाँचों उपप्राणों का सम्बन्ध माना जाता है। सामान्य स्वास्थ्य के लिए भी प्राण-शक्ति का सौम्य संतुलन अत्यावश्यक है। उनमें उत्पन्न विक्षोभ विभिन्न व्याधियों खड़ी करता है। प्राणायाम कोश की साधना में प्राणायाम द्वारा प्राण-ऊर्जा को प्रखर बनाया जाता है। उसी के द्वारा साधक मनस्वी एवं मनोजयी बन सकता है। गहरे अर्थो में प्राण-ऊर्जा ही पाँचों कोषों का आधार है और पंच प्राणों की सम्पूर्ण साधना का अर्थ चैतन्य प्राण ऊर्जा के सनातन प्रवाह पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है। व्यष्टि-प्राण समष्टि प्राण से संयुक्त है और संयम पूर्वक साधना करने वाला विश्वप्राण पर भी अधिकार पा सकता है। इसीलिए छान्दोग्य उपनिषद् में तीसरे अध्याय के त्रयोदश खण्ड में हृदयाकाश की पाँच विशेष प्राण-धाराओं की बात कही गई है, जो पाँच-मार्गो में बहती है। वहाँ पंच प्राणों को देवसुषि कहा गया हैं-
‘‘तस्य ह वो एतस्य हृदयस्य पञ्च देवसुषय”                                      
 (द्यां० ३। १३। १)

ये पाँच प्राण, व्यान, अपान, समान एवं उदान, जब तक वशवर्ती नहीं बनाये जाते, वे क्रमशः चक्षु, श्रोत्र, वाक् मन एवं प्राणों को बाह्य विषयों की ओर आकर्षित करते रहते हैं, ऐसा श्री शंकराचार्य ने द्यान्दोग्य उपनिषद् के भाष्य में कहा है। इन्हें वशवर्ती बना लेना ही प्राण-साधना है। जो इन प्राणों का यथार्थ स्वरूप जान लेता है, वह ऊर्ध्वगामी बनता है। उत्कृष्टता से सम्पन्न होता है, स्वर्ग को प्राप्त करता है। इसीलिए इन पाँचों प्राणों को ब्रह्मसता के सहयोगी ब्रह्मुपुरुष कहा है।

नाग-उपप्राण शरीर विद्युत का पर्याय है और कूर्म उपप्राण शरीर की चुम्बकीय शक्ति का। इस प्रकार सूक्ष्म अर्थ में ये प्राण ऊर्जाएँ पाँचों कोशों का आधार हैं, इन्हें स्वर्ग के पाँच द्वारपाल कहे जाने का हेतु यही है। इसी सूक्ष्म अर्थ में ही ऋग्वेद में प्राणों को अग्निऋषि कहकर उन्हें पाञ्चजन्य पुरोहित या पाँचकोशों का मार्गदर्शक कहा गया है।

उच्चस्तरीय प्राण साधना, जिससे मानसिक परिष्कार एवं भाव-परिष्कार भी होता है। उसकी चार स्थितियाँ कही गई हैं- (१) स्वरित (२) प्राप्ति (३) सवित् (४) प्रसाद। दूषित कर्मो एवं मनोविकारों का उल्मूलन ‘अस्ति’ है। प्रखरता, तेजस्विता का अभिवर्धन प्राप्ति है। दिव्यज्ञान की ज्योति दीप्तिमान हो, सूक्ष्म लोकलोकान्तरों से सम्बन्ध जुड़ना, त्रिकालदर्शित्व प्राप्त होना ‘संवित्’ है और आनन्द-उल्लास की सतत अनुभूति की स्थिति ‘प्रसाद’ है। इस विवरण से स्पष्ट होता है कि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय पाँचों ही कोशों का जागरण उच्चस्तरीय प्राण साधना का परिणाम होता है। इसीलिए तो कौशीतकि उपनिषद् में कहा है-
“यो वै प्राणः स प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः”                                
                                                    (कोशी० ३। ३)

अर्थात् प्राण ही प्रज्ञा है, प्रज्ञा ही प्राण है। प्राण-साधना की चरम परिणति है ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति। सच्चिदानन्द परमात्मा से तादात्म्य की वही स्थिति है।          


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