गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

नादयोग- दिव्य सत्ता के साथ आदान प्रदान

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नाद ब्रह्म अथवा शब्द ब्रह्म का अभिप्राय उस अनाहत ध्वनि से है जो प्रकृति और पुरुष के संयोग स्थल से निरन्तर प्रसृत और निनादित होती रहती है। ॐ कार वही स्वयं भू ब्रह्मनाद है। उससे सप्त स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति शास्त्र में प्रयुक्त होने वाले उदात्त अनुदान स्वरूप उसी के आरोह अवरोह हैं। संगीत शास्त्र में आगे चलकर वे ही सा रे ग म प ध नि के स्वर सप्तक बन गये। सूर्य रथ के सप्त अश्व उसके प्रभा किरणों में सन्निहित रंग हैं। उसी प्रकार ब्रह्मनाद का ध्वनि गुंजन सप्तधा स्वर लहरी में निनादित होता है।

यों सुनने में सप्त स्वर और उनके आरोह- अवरोह मात्र शब्द ध्वनि का उतार चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य- गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है। पर वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। मनुष्य कृत स्वर- लहरी के अतिरिक्त प्रकृति गत स्वर प्रवाह जीवधारियों द्वारा विविध विधि उच्चारण भी कम महत्व के नहीं हैं। मेघ गर्जन, समुद्र, तर्जन, विद्युत कड़क, वायु सनसनाहट, निर्जन की साँय साँय, अग्नि शिखा की धू धू निर्झर निनाद, प्रकृति गत ध्वनियाँ हमें समय- समय पर सुनने को मिलती रहती हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पुश पक्षी,आवश्यकतानुसार अपनी- अपनी बोलियाँ बोलते हैं। रात्रि की नीरवता में झिल्ली की झंकार सुनते ही बनती है। सूर्योदय के समय पक्षियों के कंठ कितने प्रकार की कितनी मधुर स्वर लहरियाँ प्रस्तुत करते हैं, उन्हें सुनकर मुग्ध हो जाना पड़ता है। लगता है स्वर ब्रह्म अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता बहाता रहता है।

यह सब आहत ध्वनियाँ हैं जो कानों से सुनी जा सकती है। विज्ञान की पकड़ में वे ध्वनियाँ भी आ गई हैं जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊँची हैं या नीची। हमारे खुले कान उन्हें सुन नहीं सकते फिर भी साधना उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है, जैसे खुली आँख से न दीखने वाले लघुकाय जीवाणु माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से भली प्रकार देखे जा सकते हैं। यह प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं। कान की पकड से बाहर होने के कारण ही इन्हें सूक्ष्म कहा जाता है अन्यथा वस्तुतः ग्रह स्थूल ही है, क्योंकि यन्त्रों के माध्यम से उन्हें हमारे कान भी सुन समझ सकते हैं।

इसमें ऊँचे स्तर की ध्वनियाँ वे ही हैं, जिन्हें जड़ जगत के अण्ड परमाणुओं द्वारा स्पन्दित नहीं कहा जा सकता है। उनका सम्बन्ध चेतन जगत के जीवन- प्रवाह से है। उन्हें एक प्रकार से अतीन्द्रिय भी कह सकते हैं। उन्हें एक प्रकार से अतीन्द्रिय भी कह सकते हैं। उनका मूल स्रोत चेतना तत्व है। इसलिए उन्हें ब्रह्म- वाणी भी कहते हैं। इन्हीं ध्वनियों का आलंकारिक वर्णन शिव के डमरू घोष, सरस्वती के वीणा- वादन एवं कृष्ण के बंशी दुर्गा के निनाद, ताल-नृत्य एवं भैरव नाद जैसे सरस उपाख्यानों और घटनाक्रमों के रूप में किया गया है।

यह दिव्य ध्वनियाँ अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिय स्वयमेव विनिसृत होती रहती हैं। यह चेतन हैं दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतीन्द्रिय हैं। इसलिए उन्हें देववाणी भी कहते हैं। उन्हें ध्यान-योग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से है, अस्तु सूक्ष्म एवं चेतन- श्रवण भी शब्द- संस्थान के इसी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है। प्रत्येक इन्द्रिय की तन्मात्राऐं स्थूल से सूक्ष्म का सम्बन्ध बनाती हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पाँच तत्व के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों से ही हमें अवगत कराती हैं। यह स्थूल का सूक्ष्म की ओर गति का एक चरण हुआ। उसके अगले चरण विशुद्ध चेतन एवं अभौतिक हो जाते हैं। जिन दिव्य ध्वनि- प्रवाहों की चर्चा इन पंक्तियों में ही रही है, वह उसी चेतन जगत के उच्चस्तर से सम्बन्धित हैं। ब्रह्मवाणी- देवध्वनि को इसी रूप में समझा जाय।

नादयोग का केन्द्र बिन्दु उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर सरलता पूर्वक जाना जा सकता है पंचकोश अनावरण की साधना में एक महत्त्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उँगलियों से, शीशी वाले कार्क से, कपड़े की गोली से, इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि आधार से विलग किया जाता है और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेन्द्रिय का- उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता है पर वह श्रवण है, वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिए, कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं।

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में बंशी बजाये जाने और गोपियों के घर-बार छोड़कर उस रास  आह्वान के लिए निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भागवत आदि पुराणों में वर्णित है। यह व्यावहारिक, सामाजिक भौतिक व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल होते हुए भी अध्यात्म परम्परा के पूर्णतया अनुकूल भी है। वस्तुतः कथा- गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का ही उद्घाटन किया गया है। रास- लीला के पीछे नादयोग की व्याख्या विवेचना ही सन्निहित है। भगवान बंशी बजाते हैं- मधुर रस चखाने का आसान करते हैं। गोपियाँ समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती हैं। संकेत आह्वान का स्वागत करती हैं, और उसी के लिए आकुल- व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती हैं। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरकन, नाचना आरम्भ कर देती हैं। यही तो रासलीला है। कृष्ण अर्थात् परमात्मा -बंशी ध्वनि अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत- गोपियाँ अर्थात् आत्मा की भौतिक एवं आत्मिक सम्पदायें- रास नृत्य अर्थात् दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसे भाव- विभोर आचरण हैं।

रासलीला में सम्मिलित गोपियों के आनन्द मुग्ध होने का तथ्य सर्वविदित है। उसी का स्थूल रूप देखने- दिखाने के लिए जहाँ- जहाँ रासलीला के अभिनय किये जाते हैं। ये एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का कामुक नृत्य न तो अभिनन्दनीय ही हो सकता है और न अभिनीय। फिर भी आत्मा और परमात्मा के बीच आदान- प्रदान का जो भाव भरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है वह पहेली जैसा लगते हुए भी अर्थपूर्ण और तथ्यपूर्ण ही कहा जायेगा। रास की प्रधान नायिका राधा है और अन्य सभी सखियाँ- सहेलियों उनके साथ पूर्ण स्नेह -सहयोग के साथ सहनृत्य में तल्लीन होती हैं।

राधा अर्थात् आत्मा, उनकी सहयोगिनी सखियाँ- अन्तरंग की सत्प्रवृत्तियाँ- बौद्धिक विभूतियाँ और सांसारिक सम्पदाऐं- क्षमताऐं प्रतिभाऐं- यह सभी आत्मा की आकांक्षा में स्नेहित सहयोग देती हैं। कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती अर्थात् आत्मा के परमात्मा से मिलने के सदुद्देश्य सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण- समग्र नियोजन प्रस्तुत कर देती हैं। आत्मा का दिव्य आकांक्षा की पूर्ति के लिए उनका पूरा- पूरा समर्थन मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके, तो हर आत्मा का हर राधा को, रासलीला का दिव्य आनन्द मिल सकता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन का ब्रह्मानन्द उपलब्ध हो सकता है।

नादयोग में कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। कई बार ये अतिमन्द होती हैं। कई बार कुछ प्रखर। इनमें प्रायः कृष्ण की बंशी जैसी, सर्प पकड़ने में काम आनेवाले बीन जैसी ध्वनियाँ रहती हैं। रास में प्रयुक्त वेणुनाद की चर्चा ऊपर की चुकी है। कुमार्गगामी- भौतिक तृष्णा और वासना का विष पिण्ड मन- एक प्रकार से विषधर सर्प है। उसे भी आनन्द उल्लास की, दिव्य प्रेरणाओं के अनुगमन के रूप में लहराने का अवसर इस वेणु की ध्वनि सुनने से मिल सकता है। सपेरा विषधर सर्पो को पकड़ने को बीन बजाता है। जब वह लहराने लगता है, तो उसे चुपके से पकड़कर पिटारे में बन्द कर लेता है। मन के निग्रह में, प्राणों के निरोध में, नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत सफल रहता है। दिव्य ध्वनि श्रवण के साथ- साथ उपरोक्त दो विचार धाराओं का अदल- बदल कर समन्वय करना चाहिए। भगवान के वेणुनाद पर राधा और उसकी सखियों का रासनृत्य करना और मन सर्प का इस दिव्यनाद में तन्मय होकर अपना आत्म- समर्पण कर बैठना, यही है नादयोग की विधि साधना के साथ जुड़ा हुआ अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व दर्शन।

बंशी और बीन के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती है। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है, भगवती सरस्वती, अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं और भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। उससे प्रलय के- मरण के संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अन्त करने वाला ताण्डव किसी भी क्षण सम्मुख आ सकता है, इसलिए प्रमाद से न उलझा जाय, लक्ष्य की प्राप्ति में आलस्य एवं उपेक्षाभाव न बरता जाय। मायामोह छोड़कर यथार्थ को समझा जाय। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पाँच जन्य का महाकाल के भैरवनाद का उद्घोष माना जाय और अनुभव किया जाय कि अब महाप्रयाण का ऐसा समय आ पहुँचा जिसमें आनाकानी या सोच- विचार करने की गुंजायश नहीं है। युग की कर्तव्य की पुकार गूँज रही है और उभार रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय। बिजली की कड़क- दावानल मल धू- धू की बादलों की गर्जन, समुद्र का तर्जन इस संकेत को लेकर आते हैं कि अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए। पशु स्तर को निरस्त करके दिव्य स्तर अपनाया ही जाना चाहिए और उस उलट-पुलट में जो उफान- तूफान प्रस्तुत होते हैं उनका समाना किया ही जाना चाहिए। कभी झिल्ली की झंकार कभी चिड़ियों की चहचहाहट के शब्द सुनाई पड़ते हैं, इन्हें छोटे जीवों द्वारा मानवी प्रमाद को हिला देने वाला उद्बोधन समझा जाय। जब इतने छोटे जीव अपने नियत- नियमित आनन्द बिखेरने वाले क्रिया- कलाप में निरत रहते हैं, तो मनुष्य के लिए यह कैसे शोभनीय होगा कि वह जीवनोद्देश्य के साथ जुड़े हुए अपने महान कर्त्तव्य का परित्याग करके मात्र, पेट और प्रजनन के लिए जीवन सम्पदा को कौड़ी मोल गँवा देने की मूर्खता अपनाये ?

नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं, इनकी कोई सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं, सो सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों को विवेक- बुद्धि के द्वारा सहज संगति बिठा सकते हैं। कोयल की कूकन, मुर्गे की बाँग, मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिघांड़, शब्द सुनाई पड़े तो उनमें इन प्राणियों को उच्चारण समय की मन- स्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का ताल- मेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रन्दन, हर्षोल्लास, अट्टहास, उच्छ्रास जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं, उसे अपनी अन्तरात्मा का सन्तोष- असन्तोष समझा जा सकता है। कुमार्गगामी गतिविधियों से असन्तोष और सत्प्रवृत्तियों का सन्तोष स्पष्ट है। आत्म निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय- समय पर अपनी भली- बुरी गतिविधियों पर संतोष- असन्तोष प्रकट करने के अवसर आते हैं, इन्हीं की प्रतिध्वनि, हर्ष क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है, उसे नादयोगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। उसकी विस्तृत चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं। तथ्य इतना भर हैं कि इन दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की उच्च प्रेरणाऐं होती हैं और उन सब का प्रयोजन एक ही रहता है, कि हमें आत्मा की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए, साहस पूर्ण कदम बढ़ाना चाहिए।

कानों के छिद्र बन्द करके अन्तर्जगत की दिव्य ध्वनियाँ सुनने की साधना जब परिपक्व होने लगती है तो भावोत्कर्ष क्षेत्र से आगे बढ़कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों की समझने का अवसर मिलता है। इस संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रिय से शब्दरूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की सफलता, साधना में परिपक्वता आने के साथ- साथ सहज ही बढ़ने लगती है और यह प्रतीत होने लगता है कि सूक्ष्म जगत में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है किसी व्यक्ति विशेष क्षेत्र, देश अथवा लोक के संबन्ध में इस प्रकार की सही स्थिति का पूर्वाभास होने लगता है। अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली होती है। यों शब्द, रूप, रस, गन्ध स्पर्श, की किसी भी प्रक्रिया के आधार पर बनी हुई साधना पद्धति से भी वही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। पर नादयोग का इसी प्रयोजन के लिए अपना अत्यधिक महत्व है।

नाद संकेत वे सूत्र हैं, जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति-स्त्रोतों के साथ हमारे आदान- प्रदान संभव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान- प्रदान करते हैं।

ठीक इसी प्रकार ईश्वर के विभिन्न शक्ति-केन्द्रों के साथ इन विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से सम्बन्ध मिला सकते हैं और इस स्थिति पर पहुँच सकते हैं, कि अपनी बात ईश्वर तक पहुँच सके और उसके उत्तर प्राप्त कर सकें। इतना ही नहीं, यह ध्वनि प्रवाह सड़कों का, भार वाहनों का भी काम करते हैं। व्यक्ति की व्यथाऐं लादकर परमात्मा तक पहुँचाना और परमात्मा के अनुदान- वरदान लाद कर व्यक्ति तक पहुँचाना भी इन ध्वनियों के माध्यम से संभव हो सकता है। सिद्ध पुरुष प्रायः ऐसे ही साधना माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़ कर अभीष्ट आदान- प्रदान को लाभ प्राप्त करते हैं।

आनन्दमय कोश का जागरण होने पर मनुष्य सब प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। हमारा दृष्टि दोष ही समस्त दुःखों का तात्विक कारण है। अज्ञान, मोह एवं स्वार्थरूपी अन्धकार में जीव भटकता और ठोकरें खाता है। प्रकाश उदय होने पर किसी को अँधेरे के कारण उत्पन्न होने वाली असुविधाओं एवं कठिनाइयों से सामना नहीं करना पड़ता  उसी प्रकार दृष्टिकोण परिष्कृत होते जाने पर दुःख, कष्ट, अभाव, क्षोभ, व्यथा, वेदना, शोक, सन्ताप, क्लेश, कलह एवं अन्तर्द्वन्दों का सामना नहीं करना पड़ता। इसी निरामय स्थिति को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं, इस भूमिका में जाग्रत हुआ व्यक्ति दिव्य दृष्टि प्राप्त करके निरन्तर सर्वत्र भगवान का दर्शन करता है और हर घड़ी आनन्द विभोर रहता है।

इस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति मनुष्य- आकृति में रहता हुआ भी ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। अवतारी आत्माऐं इसी स्थिति में रहा करती हैं। उनकी सामर्थ्य का कोई वारापार नहीं रहता। वे ईश्वर का कार्य करते हैं और परमेश्वर के अनन्त ऐश्वर्य का उपयोग एवं उपभोग करने में समर्थ रहते हैं।

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