गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

मनोमय कोश और आज्ञा चक्र

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मस्तिष्कीय क्षमता से चमत्कार सामान्य लोक व्यवहार में पग-पग पर दृष्टिगोचर होते हैं। सूझ-बूझ वाले बुद्धिमान मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ते और सफलता पाते हैं। इसके विपरीत मूढ़ मति और मन्द बुद्धि लोग अनुकूल परिस्थितियाँ रहने पर भी पिछड़ी स्थिति में ही पड़े रहते है। जीवन की गहन समस्याओं को सुलझाने में, आत्मोत्कर्ष का लाभ प्राप्त करने में भी मन:स्थिति की प्रखरता ही लाभ देती है।

ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से यह विकार तत्व समस्त शरीर में फैला हुआ है। मस्तिष्क उसका केन्द्रीय कार्यालय है। यह सुविस्तृत ज्ञान-विस्तार आध्यात्म की भाषा में मनोमय कोश कहलाता है। बौद्धिक प्रगति के लिए सामान्यतया प्रशिक्षण के स्कूली तथा दूसरी तरह के उपाय काम लाये जाते हैं। मन चेतना के आध्यात्मिक उपचार साधनात्मक हैं। उनके माध्यम से मनशक्ति विकसित और परिष्कृत की जाती है। मन :क्षेत्र में प्रवेश का द्वार आज्ञा चक्र माना गया है। इस संस्थान को जाग्रत करने से चेतना की उन गहरी परतों से सक्रियता उत्पन्न होती है, जो व्यक्तित्व के समग्र विकास की भूमिका बनती है। आज्ञा चक्र का जागरण प्रकारान्तर से मस्तिष्कीय संस्थान की चेतन और अचेतन दोनों ही परतों को प्रभावित करता है। उन्हें इस योग्य बनाता है कि भौतिक सफलताओं और आत्मिक विभूतियों के उपलब्ध होने की सम्भावना बन सके। मनोमय कोश को परिपुष्ट बनाने के लिए आज्ञा चक्र की साधना का विधान आत्म विज्ञान के मनीषियों ने बताया है।

दोनों भवों के मध्य एक तीसरा नेत्र है। जिसे दिव्य दृष्टि का केन्द्र माना जाता है। योग शास्त्र में इसे आज्ञा चक्र एवं दिव्य नेत्र कहा गया है। पौराणिक अलंकारिक चित्रण में इसे तृतीय नेत्र चित्रित किया गया है। शिव तथा दुर्गा की आकृतियों में उनके तीन नेत्र दिखाये जाते हैं। यह तीसरा नेत्र दोनों भवों के बीच है। यह तिरछा न होकर सीधा है। दोनों आँखें तो दाँये बाँये चौड़ाई में होती हैं, पर यह तीसरा नेत्र ऊपर से नीचे की ओर ऊँचे से नीचे की दिशा में है। इसे दीपक की लौ के सदृश दर्शाया गया है।

आज्ञा चक्र को दूरदर्शन के उपयुक्त 'टेलीविजन' स्तर का सूक्ष्म यन्त्र कह सकते हैं। महाभारत के सारे दृश्य संजय ने इसी माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये थे। चित्र लेखा द्वारा प्रद्युम्न प्रणय इस दिव्य दर्शन शक्ति के माध्यम से ही सम्भव हुआ था। ऐसे और भी कितने ही कथानक बिना नेत्रों की सहायता देखे जाने के सम्बन्ध में कथा में भरे पड़े हैं। यह तीसरा नेत्र न केवल दूरदर्शन वरन् अदृश्य एवं अप्रत्यक्ष को भी देख सकने में पूरी तरह समर्थ है। जिस प्रकार 'एक्सरेज' ठोस पदार्थो में होकर पार चली जाती है और आँखों से न दीख पड़ने वाली वस्तुओं के भी चित्र खींचती है उसी प्रकार आज्ञा चक्र के केमरे का शक्तिशाली लेंस अदृश्य को देख और अविज्ञात को जान सकता है। न केवल पदार्थ की स्थिति वरन् जीवधारियों की मनःस्थिति को भी देख जान सकना इस यन्त्र के माध्यम से सम्भव हो सकता है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म में जिस बेधक दृष्टि से दूसरों को प्रभावित किया जाता है वह स्थूल नेत्रों नहीं की वरन् आज्ञा चक्र की सूक्ष्म नेत्र की ही क्षमता होती है।

मस्तिष्कीय चेतना में यों अन्य कितने ही शक्तिशाली केन्द्र संस्थानों का अस्तित्व विद्यमान है पर उनमें अधिक सरलतापूर्वक जगाया जा सकने वाला और अति महत्वपूर्ण जानकारियाँ देने वाला केन्द्र आज्ञा चक्र ही है। इसमें पाई जाने वाली दिव्य दृष्टि-क्षमता के सम्बन्ध का कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों में विवेचन हुआ है। टीन लोवसग रम्पा की ''थर्ड आई'' सुग्न अल जहीर की ''दि आकल्ट जर्नी'' डेनियल वारे की- "दि मैका आफ हैवनली ट्राउजस" पुस्तकों में आज्ञा चक्र की दिव्य क्षमता की है जिनसे सिद्ध होता है कि इन दिव्य संस्थानों की सहायता से ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हो सकती हैं जो सर्वसाधारण के लिए तो अज्ञात ही रहती हैं, पर जो उनका आभास प्राप्त कर लेते हैं वे अपना तथा दूसरों का बहुत हित साधन कर सकते हैं।

नव ग्रहों और उपग्रहों के केन्द्र सूर्य हैं। पृध्वी का केन्द्र ध्रुव प्रदेश है। परमाणु का शक्ति केन्द्र उसका मध्यवर्ती केन्द्र 'नाभिक' न्यूक्लियस कहलाता है। मस्तिष्क मानवी चेतना का केन्द्र है और उसका मध्य बिन्दु 'आज्ञा चक्र' कहलाता है। इस तनिक से केन्द्र को मस्तिष्क रूपी ताले की ताली कह सकते हैं। उसे जीवन दुर्ग का प्रवेश द्वार कह सकते हैं।

भ्रूमध्य-जहाँ आज्ञा चक्र की स्थिति मानी जाती है, उसी सीध में कपाल के अन्दर रक अस्थिका नुकीला-सा भाग है, इसे 'ग्लेबिला' कहते हैं। इसका कुछ स्पष्ट उद्देश्य स्थूल किया-कलापों के अन्तर्गत नहीं मिलता है, किन्तु उस स्थान विशेष पर एक विशेष आकार की स्थिति कुछ सोचने समझने को बाध्य करती है। विज्ञान का नियम है कि नुकीले स्थल विद्युत चुम्बकीय सूक्ष्म तरंगों के संचारण एवं सग्रहण के लिए उपयोगी होते है। रेडियो संकेतों के लिए एरियल-एन्टीना और आकाशीय विद्युत से विशाल भवनों की रक्षा के लिए 'तड़ित चालक' (लाइटनिंग कन्डक्टर) इसी सिद्धान्त पर बनाये जाते हैं। इस दृष्टि से नुकीले अस्थि भाग की उपस्थिति उस स्थल में शक्ति संचरण संग्रहण की क्षमता होने का स्पष्ट संकेत करती है।

उसी सीध में दृष्टि संस्थान का एक महत्वपूर्ण घटक आता है। जिसे 'आप्टिक चियाज्मा' कहते हैं। आँख से दृष्टि संकेतों का संवहन करने वाले विशेष रज्जु (ट्रैक्ट) इसी स्थल पर एक दूसरे का क्रास करके, मुड़कर मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्रों की ओर बढ़ जाते हैं। दो भिन्न-भिन्न नेत्र गोलकों में अंकित भिन्न-भिन्न दृश्यों को एक सन्तुलित प्रामाणिक स्वरूप में बदलने में इस स्थल की प्रत्यक्ष भूमिका रहती है। यह स्थल दृष्टि संस्थान का एक सूक्ष्म नियंत्रक कहला सकता है।

इसी 'आप्टिक चियाज्मा' से लगी हुई ही एक अति महत्वपूर्ण ग्रन्थि 'पिट्यूटरी' होती है। अब तक जो खोजें हुई हैं उनके अनुसार इस ग्रन्थि को अति महत्वपूर्ण ग्रन्थि माना जाता है। किन्तु वैज्ञानिकों का मत है कि इसके सम्बन्ध में जैसे-जैसे जाना जा सकेगा इस ग्रन्थि की महत्ता अब की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक सिद्ध होगी। इसमें चमत्कारी सम्भावनायें सन्निहित हैं।

मनोवैज्ञानिक आधार पर शरीर विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिट्यूटरी ग्रन्थि को प्रभावित करके कामेन्द्रियों की सक्रियता को समाप्त प्राय किया जा सकता है। यह निष्कर्ष शिव के तृतीय नेत्र खोलने से कामदहन के उपाख्यान के सर्वथा अनुरूप है। जाग्रत आज्ञा चक्र से कामवासना का शमन-दमन सर्वथा सम्भव है।

इस केन्द्र का महत्व प्रदर्शित करने वाला एक और तथ्य शरीर विज्ञान के अर्न्गत मिलता है। मस्तिष्क के महत्वपूर्ण भागों के चारों ओर तथा मेरुदण्ड (स्पाइनल कार्ड) के अन्दर तथा बाहर एक विशेष द्रव भरा रहता है। इसे 'सैरिबो स्पाइनल फ्ल्यूड' कहते हैं। वैज्ञानिक मान्यता है कि यह द्रव इस सारे संस्थान के संरक्षण एवं पोषण का कार्य करता है। इस द्रव की संचार प्रणाली का एक ध्रुव ठीक भ्रूमध्य की सीध में स्थित है।

मोटी दृष्टि से अन्न भी शरीर को पोषण मात्र देता है किन्तु थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो अन्न के सूक्ष्म संस्कारों का सीध प्रभाव शरीर पर पड़ने की बात भी स्पष्ट रूप से सामने आती है। इस मस्तिष्कीय द्रव में भी मस्तिष्क एवं मेरुदण्ड संस्थान को पोषण देने की क्षमता के साथ-साथ सूक्ष्म संस्कार एवं शक्तियों के संचरण की क्षमता का होना इस दृष्टि से नितान्त स्वाभाविक है फ्राँसिस ल्यूकेल ने अपनी पुस्तक "इन्ट्रोडक्शन टू साइकोलॉजिकल फिजियालॉजी" में यह स्वीकार किया है कि मस्तिष्क के 'हाइपोथैलेमस' जैसे महत्वपूर्ण भाग की सक्रियता पर इस द्रव की आन्तरिक स्थिति का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।

स्पष्ट है कि यदि इस पोषक द्रव्य को किन्हीं शक्तियों से प्रभावित किया जा सके तो मस्तिष्क एवं सारे स्नायु संस्थान को संस्कार विशेष प्रदान किए जा सकते हैं। भूमध्य तक उपर्युक्त द्रव की नलिका को पहुँचाने के पीछे प्रकृति का सुनिश्चित उद्देश्य अवश्य है। पिर्निपल ग्रन्थि में दृश्यांकन क्षमता है, स्थूल प्रकाश उस तक नहीं जा सकता। किन्तु एक्स रे जैसी सूक्ष्म किरणें तो उस तक सीधी पहुँच ही सकती हैं तथा वह ग्रन्थि उनके प्रति संवेदनशील होने से उनके आधार पर स्थूल आँख से न दीखने वाले तथ्यों का भी बोध करा सकती है।

चर्म चक्षुओं से बहुत ही मोटी वस्तुएँ देखी जा सकती हैं। जीवाणुओं एवं परमाणुओं तक को उनके द्वारा देखा नहीं जाता। उसके लिए माइक्रोस्कोप का प्रयोग करना पड़ता है। दूरी की दृष्टि से भी सीमित परिधि को वस्तुएँ ही दिखाई देती हैं। दूरवर्ती वस्तुएँ देखने के लिए दुर्बीनों के बिना काम नहीं चलता। जब प्रत्यक्ष पदार्थो के सामने होने पर भी इन आँखों से देखा जा सकना सम्भव नहीं होता तब सूक्ष्म जगत की परोक्ष हलचलों की जानकारी दे सकने में इन गोलकों के सहारे कैसे काम चल सकता है। विशेषतया आत्मिक-चेतनात्मक तत्वों की जानकारी तो इनसे मिल ही नहीं सकती। आत्म साक्षात्कार ब्रह्म दर्शन जैसे प्रयोजनों के लिए तो अतिरिक्त दृष्टि ही चाहिए। सूक्ष्म दृष्टि इसी को कहते हैं यह दिव्य चक्षु में ही सन्निहित रहती है।

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप इन्हीं दिव्य चक्षुओं से दिव्य दृष्टि द्वारा दिखाया था। उनने स्पष्ट कहा है- चर्म चक्षुओं से यह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए जिन दिव्य चक्षुओं की आवश्यकता है, उन्हें तुम्हें देते हैं-
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य में योगमैश्वरम्।।
                                           -गीता ११। ८
''परन्तु मुझको तू अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसन्देह समर्थ नहीं है इसी से मैं तुझे दिव्य- अलौकिक चक्षु देता हूँ उससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख।''

शिव गीता में भी ऐसा ही वर्णन आता है। भगवान शिव अपना दर्शन कराने, के लिए साधक को दिव्य चक्षुओं में सन्निहित इसी दिव्य का अनुग्रह प्रदान करते हैं-
दिव्यं चक्षु: प्रदास्यामि तुभ्यं दशरथात्मज।
तेन पश्य भयं त्यक्त्वा मत्ते जोमण्डलं ध्रुवम्।।
इस कारण उसके देखने को मैं तुम्हें दिव्य नेत्र देता हूँ उन नेत्रों से भय त्याग कर तुम मेरा दिव्य  स्वरूप देखो।
न चर्मचक्षुषा द्रष्टुं शक्यते मामकं मह:।
नरेण वा सुरेणापि तन्ममानुग्रहं बिना।।
नरेन्द्र वा देवता इस मेरे तेरे स्वरूप को मेरे अनुग्रह बिना चर्म चक्षु से नहीं देख सकते।

दिव्य दृष्टि के केन्द्र यह दिव्य चक्षु भ्रूमध्य भाग में अवस्थित है। इस संस्थान को आज्ञा चक्र कहते हैं। इस तथ्य का प्रतिपादन साधना शास्त्र में स्थान-स्थान पर हुआ है। यथा-
आज्ञाचक्रे तदूध्र्वे च आत्मनाधिष्ठितं परम्।
                        आज्ञासंक्रमणं तत्र गुरोराज्ञेति कीर्तितम्।।                                                                           रुद्रयामल २७।८     
      
"तालू के ऊर्ध्व में आज्ञा चक्र है। वही आत्मा का अधिष्ठान है। इस स्थान में गुरुदेव की आज्ञा संक्रमित होती है।

भ्रूवोर्मध्ये ललाटे तु नासिकायास्तु मूलत:।
                      जानीयादमतं स्थानं तद्ब्रह्मायतनं महत्।।                                                                       -ध्यानबिन्दु
लालट में भ्रू युगल और नासामूल का संयोग स्थल ही अमृत स्थान है। वही विश्व का आधार है। इस स्थान मन संयोग होने पर जगत् के सब विषयों का ज्ञान हो जाता है।
                          भूमध्यनिलयो बिन्दु: शुद्धस्फटिकसंनिभः।
                        महाविष्णोश्च देवस्य तत्सूक्ष्म रूपमुच्यते।।                                                                               -योग०शि० ३।३४

समाधिक अभ्यास करते समय भ्रूयुगल के मध्य में ललाट के अभ्यान्तर जो शून्य बिन्दु देखा जाता है, वही महाविष्णु का सूक्ष्म रूप है।

                     मानुषं बिन्दुतीर्थ च कालीकुण्डं कलाल्मकम्।
                   आज्ञाचक्रं सदा ध्यात्वा स्नाति निर्वाजसिद्धये।।                                                                                       रुप्रयामके
मोक्ष का इच्छुक साधक, मनुष्य के शरीर रूपी तीर्थ में स्थित आज्ञा चक्र के ध्यानरूपी काली कुण्ड का स्नान नित्य करता है।

     आज्ञा चक्र में दिव्य दृष्टि की अवस्थिति मानी गई है। शिव और दुर्गा के चित्रों में इस स्थान पर तीसरा नेत्र दिखाया गया है जो दाँये-बाँये नहीं-ऊपर नीचे की ओर बना हुआ है। इस नेत्र का एक प्रयोजन उस कथा में बताया गया है जिसमें कामदेव पर कुपित होकर शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला था और उससे निकलने वाली ज्वाला में उनका शत्रु कामदेव देखते-देखते जलकर भस्म हो गया था। दमयन्ती के कोप से व्याध के जल मरने की  कथा में भी ऐसा ही वर्णन है। इससे प्रतीत होता है कि  शाप देने जैसी- नष्ट करने के लिए उपयुक्त कोई  विशेष शक्ति इस स्थान पर विद्यमान है।

       यह एकांगी वर्णन हुआ। दिव्य दृष्टि में वरदान की  भी क्षमता है। वह विनाश और सृजन दोनों ही प्रयोजनों  में सामान्य विद्युत शक्ति की तरह काम आती है। तृतीय  नेत्र को सामान्य जीवन में दूरदर्शिता का केन्द्र माना जा  सकता है। अदूरदर्शी व्यक्ति तात्कालिक लाभ भर को  देखते सोचते हैं, उस कदम की भावी प्रतिक्रिया क्या होगी  यह उन्हें सूझ ही नहीं पड़ता। असंयमी, आलसी,  अपव्ययी, अनाचारी उच्छ्रंखल प्रकृति के व्यक्ति मानसिक  दृष्टि से परखे जाने पर 'अदूरर्शिता' मनोरोग से ग्रसित  माने जायेंगे। भविष्य की कल्पना न कर सकने अथवा  उसे महत्व न दे पाने के कारण ही लोग ऐसे काम करते  हैं जिनमें तत्काल तो थोड़ा लाभ दीखता है पर अन्ततः  पश्चात्ताप करते रहने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं  पड़ता।

      आयरलैण्ड के प्रौ० वैरेट इस बात के लिए प्रसिद्ध  थे कि वे भूमिगत जल स्रोतों तथा धातु खदानों का पता  अपनी अन्त:चेतना से देख कर बता देते थे। विकली  पहाड़ी क्षेत्र में दूर- दूर तक कहीं पानी का नाम भी नहीं  था। जमीन कड़ी और पथरीली थी। उत्खलन विशेषज्ञों के  सामने कई घण्टे वे उस क्षेत्र में घूमे अन्तत: वे एक  स्थान पर रुके और कहा- मात्र १४ फुट गहराई पर यहाँ  एक अच्छा जल स्रोत है। खोदने पर १५ फुट नीचे पानी  का जोरदार स्रोत निकला उसने उस समूचे क्षेत्र की  जल आवश्यकता को पूरा कर दिया।

     फौज के साथ टैलिस्कोप रहते हैं और शत्रु की  गतिविधियों को उसी के सहारे ऊँचे चढ़ कर देखा जाता  है। ग्रह नक्षत्रों की चाल देखने के लिए खगोल विज्ञानी  भी ऐसी ही दुरबीन रखते हैं। जहाजों पर भी यह यन्त्र  लगा रहता है अन्य महत्वपूर्ण कार्यों में भी दूरदर्शन के  उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार जीवन  समस्याओं के समाधान में भी दूरदर्शिता के आधार पर हल  निकालने और समाधान खोजने की आवश्यकता पड़ती  है। भूमध्य भाग में अवस्थिति आज्ञा चक्र को इसी विशेष  क्षमता का केन्द्र माना गया है।

       आज्ञा चक्र को सूर्य भी कहा गया है। प्रकाश  का  केन्द्र सूर्य है। संसार में जितना भी प्रकाश है वह विभिन्न  मार्गों से सूर्य देवता द्वारा ही धरती पर अवतरित होता है। मनुष्य के नेत्र प्रकाश में ही कुछ देख पाते हैं अन्धकार  रहने पर तो पलक खुले रहने पर भी वे असहाय ही  सिद्ध होते हैं। नेत्रों की ज्योति प्रकारान्तर से सूर्य की  ज्योति से प्रभावित और परिचालित है । सूक्ष्म शरीर का  तृतीय नेत्र ज्योतिर्मय होने पर प्रत्यक्ष और परोक्ष क्षेत्र को  अपनी दिव्य दृष्टि से सुखी समुन्नत बनाता है।

     स्थूल नेत्रों की दृष्टि सीमित है। बढ़ी-चढ़ी क्षमता  वाले यन्त्रों की सहायता से दूरवर्ती वस्तुओं को बिना  किसी कठिनाई के देखा जाना सम्भव है। राडार यन्त्र से  आकाश में उड़ने वाले वायुयानों की हलचलों का ठीक  तरह पता चलता रहता है। रेडियो-दुरबीनें, आकाशीय ग्रह  नक्षत्रों की चाल तथा स्थिति की सही जानकारी देती हैं।  वेधशालाएँ अपना काम इन्हीं यन्त्रों के सहारे चलाती हैं।

      दिव्य दृष्टि को जगा सकना-दिव्य चक्षु को खोल  सकना मानव जीवन का बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। आज्ञा  चक्र साधना में व्यावहारिक जीवन में काम आने वाली  दूरदर्शिता और सूक्ष्म जगत के अन्तर्गत हो रही हलचलों  को समझ सकना उसी उपलब्धि के सहारे सम्भव होता  है। इतना ही नहीं उस जाग्रत दिव्य क्षमता से व्यक्तियों  को- पदार्थों को- परिस्थितियों को प्रभावित कर सकना भी  सम्भव होता है। मनोमय कोश से सम्बद्ध आज्ञा चक्र को  जाग्रत कर लेना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।



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