गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

सूक्ष्म शरीर की महती सामर्थ्य

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बर्तन में पानी भरा रहता है। वह स्थूल है। उसे नापा तोला जा सकता है और यह भी जाना जा सकता है कि उसने कितनी परिधि घेरी तथा कितना प्रयोजन पूरा कर सकता है।

किन्तु जब वह आग पर चढ़ाकर भाप बना दिया जाय तो उसका आकार विस्तार विस्तृत हो जाता है और हवा के झोकें के साथ कहीं भी पहुँच सकता है, यद्यपि भाप की सघनता कम हो जाने पर वह दृष्टिगोचर भी नहीं होता। तो भी उसका अस्तित्व बना रहता है। यह सूक्ष्म स्वरूप है। रात्रि की ठण्डक में वह आकाश से नीचे उतर कर ओस बूँदों के रूप में पत्तों पर आ विराजता है। स्थूल की आकृति और सीमा बन जाती है न।

यही बात मानवी चेतना के सम्बन्ध में भी है। वह काया के पिजड़े में कैद रहती है। सचेतन मस्तिष्क की अहन्ता उसे यही बोध होने देती है कि "मैं शरीर हूँ।" न यही मेरा आकार, प्रकार, उद्देश्य एवं अस्तित्व है। यह मान्यता जितनी सघन होती जाती है उतना ही व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धनों में बँधता जाता है। उसकी मान्यता भावना विचारणा आकाँक्षा रख क्रिया इसी सीमा बन्धन में काम करती है। स्थूलता सीमित होती है, इसलिए इस स्तर का व्यक्ति उतना ही सशक्त होता है जितना कि उसका शरीर एवं शरीर परिकर के अधिकार में रहने वाले साधन। यह स्थिति मनुष्य की अल्पता की द्योतक है। वह अपना और दूसरों का हित अनहित इसी परिधि में कर पाता है।

सूक्ष्मता इससे ऊँची स्थिति हैं। चेतना शरीर में रहती तो है पर उस हलकी उथली बाड़ को लाँघ कर बाहर भी जा सकती है। चिड़िया घोंसले में रहती तो है पर उससे बँधी नहीं रहती। लोंमड़ी अपनी माँद में रहती है पर जब उपयुक्त अवसर होता है, तभी उसमें से बाहर जहाँ चाहती है, वहाँ आहार, जल, धूप आदि प्राप्त करने के लिए निकल जाती है। सूक्ष्म शरीर के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह जब भी चाहता है, प्रयत्नपूर्वक बाहर निकल जाता है। यह स्थिति अनभ्यस्त, सर्वजनीन न होने के कारण इसका अभ्यास तो करना पड़ता है। पर असम्भव जैसा कुछ नहीं। सूक्ष्म शरीर आकाश की सुविस्तृत सीमा में भ्रमण कर सकता है और उसकी उन जानकारियों को एकत्रित कर सकता है जो स्थूल शरीर की ऊँची दीवार के कारण दृष्टिगोचर नहीं होती। स्थूल शरीर उतना ही जान समझ सकता है जितना कि उसका इन्द्रियजन्य मस्तिष्कीय अनुबन्ध समझने का अवसर देता है। किन्तु सूक्ष्म शरीर पर यह बन्धन नहीं है वह सूक्ष्म इन्द्रियों से सम्पन्न होता है। आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, स्थूल शरीर के साथ लिपटा होने पर भी सूक्ष्म शरीर, शब्द, रूप, रंग, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राओं के सहारे अपनी दौड़ की परिधि में बहुत कुछ देख और समझ सकता है। अतीन्द्रिय क्षमता इसी को कहते हैं। दूर दर्शन, दूर श्रवण, विचार परिचय, सम्भाव्य भविष्य आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ अनुभव कर सकता है। ऐसा अनुभव जिसे मात्र स्थूल शरीर की सीमा तक सीमित चेतना के लिए असम्भव, अदभुत माना जा सकता है।

सूक्ष्मशरीर अन्य शरीर धारियों के भीतर भी प्रवेश कर सकता है और वहाँ उलट-पुलट मचा सकता है। जब कि स्थूल शरीर दूसरों के स्थूल शरीर को ही सुविधा असुविधा पहुँचा सकता है। सूक्ष्मता की स्थिति में किसी के विचारों को पढ़ना स्तर समझना ही सम्भव नहीं होता वरन कर्त्तव्य की सीमा इस परिधि तक बढ़ जाती है कि अन्तस् को कुछ नया बता या सिखा सके। पुरानी आदतों को बदल या सुधार कर उसके स्थान पर ऐसा कुछ स्थापित कर सके जिसे अपूर्व या अद्भुत कहा जा सके।

मरने के बाद भूत प्रेत की योनि में गई हुई आत्माऐं कई बार किन्हीं सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ राग द्वेष चरितार्थ करने के लिए लिपट पड़ता है। उनके शरीर मस्तिष्क पर वे अधिकार कर लेती हैं और उसका मनचाहा उपयोग करती हैं। शरीर की उठक पटक वाणी की बहक रख मस्तिष्क की दिशाधारा में एक प्रकार का उन्माद छा याता है और वशीभूत व्यक्ति के आचरण में देखते देखते भारी परिवर्तन हो जाता है। शराब भी ऐसी ही उच्छ्रंखल मस्ती लगती है और खुमारी की स्थिति में स्वाभाविकता की अपेक्षा भारी अन्तर प्रस्तुत कर देती है। ऐसा ही उलट फेर सूक्ष्म शरीर जीवित स्थिति में भी कर सकता है। अपना मस्तिष्क दूसरों के मस्तिष्क में ठूँस सकता है और उसे वे विचार करने के लिए विवश कर सकता है जो प्रेरक है। इसी प्रकार शरीर में, स्वभाव में, गुण कर्म में भी अन्यान्यों को उलटकर नई दिशा में चलाया जा सकता है।

मनोविज्ञान के मूर्धन्य प्रयोक्ताओं ने ब्रेन वाशिंग की अनेकों विधियाँ आविष्कृत की हैं वे शत्रु पक्ष के बन्दियों को इस प्रकार की विचारधारा देते हैं जिससे उनके पूर्व विचार सर्वथा बदल जायें। मित्र को शत्रु एवं शत्रु को मित्र समझने लगें। यह ब्रेन वाशिंग प्रयोग पशुओं पर भी प्रयुक्त किया गया है वे अपनी जन्मजात मूल प्रकृति को भूल जाते हैं और उस नई प्रवृत्ति को अपना लेते हैं, जो इलेक्ट्रोडों द्वारा उन्हें बदलने के लिए विवश किया जाता है। हिरन सिंह पर आक्रमण करता है और सिंह अपनी जान बचाने के लिए भागता फिरता है। चूहे बिल्लियों पर आक्रमण करके उन्हें भगा देते हैं और अपना स्वरूप विजेता जैसा प्रकट करते हैं। यह ''ब्रेन वाशिंग'' के चमत्कार हैं। पर वे अस्थायी हैं। उतनी ही देर वह विपन्नता काम करती है, जितनी देर कि उनके शरीरों, मस्तिष्कों पर प्रेरित विधुत धारा का प्रभाव रहता है। ऐसा सामयिक परिवर्तन तो तब भी देखा जाता है जब तपोवनों के निकट जाकर वहाँ के प्राण प्रवाह से प्रभावित सिंह, गाय एक घाट पानी पीने लगते हैं। पुराना शिकार शिकारी का भाव भूल जाते हैं।     पौराणिक गाथाओं में वाल्मीकि, विल्व मंगल, अजामिल, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि के जीवन क्रमों में असाधारण परिवर्तन हुआ। ध्रुव, प्रह्लाद, पार्वती आदि ने वह नीति अपनाई, जो उनके जन्मजात वातावरण में सम्भव न थी। यह नारद जैसों का प्राण प्रहार ही था। जिसके कारण उन्हें अपनी पुरातन रीति नीति बदलनी पड़ी। यह कोई जादू नहीं, वरन् सूक्ष्म शरीर शरीर की बलिष्ठता का प्रभाव था, जिसने दंगल जीतने जैसा पराक्रम दिखाया।

यह प्रभाव कई बार और भी ऊँचे दर्जे का होता है अर्जुन का मन लड़ने का नहीं था किन्तु कृष्ण की सिखावन से उसे इस प्रकार युद्ध में प्रवृत्त होना पड़ा मानो वह स्वेच्छा से वैसा कर रहा है। यों पूर्व स्थिति में उसने ऐसे तर्क और तथ्य प्रकट किए थे, जो प्रकट करते थे कि वह युद्ध करने की मन:स्थिति में बिलकुल भी नहीं है पर उसे कुछ ही देर के विचार विनिमय में अपनी दिशा बदल कर बताई गई दिशा अपनानी पड़ी।

योग साधना में एक शक्तिपात प्रक्रिया का वर्णन है जिसके अनुसार एक समर्थ व्यक्ति अपने बल, पौरुष, तप आदि को दूसरे प्रियजन के लिए हस्तान्तरित कर सकता है। सुग्रीव अनेकों बार वालि से लड़ाई में हार चुका था पर जब राम द्वारा उसके गले में विजय माला पहनाई तो उसकी स्थिति पहले की अपेक्षा सर्वथा बदल गई और उसने जाते ही विजयी की भूमिका सम्पन्न की। हनुमान से लेकर रीछ वानरों के समुदाय का राम के साथ पूर्व परिचय नहीं था और न लंका विजय में उनका कोई निजी स्वार्थ साधन। फिर भी वे मन्त्र मोहित की तरह उस अभिनव प्रयोजन में इस प्रकार जुटे मानो वह उनकी निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। यह आदर्श और पौरुष दूसरों का किया हुआ था। इस अनुदान की प्रक्रिया को शक्तिपात परिभाषा में सम्मिलित किया जा सकता है।

चन्द्रगुप्त, चाणक्य, शिवाजी, समर्थ, आदि के प्रसंग भी ऐसे ही हैं जिनमें इस तरह का कर्तृव्य प्रकट हुआ जैसा कि कर्त्ताओं का न पौरुष था न मन और न अभ्यास। अनुदान भी कई बार निजी उपार्जन जैसा ही काम करते हैं। भामाशाह का दिया हुआ धन राणाप्रताप के डगमगाते हुए हौंसले बुलन्द करने में सहायक सिद्ध हुआ। अध्यात्म क्षेत्र में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिनमें समर्थ गुरुओं ने अपने शिष्यों को कहीं से कहीं पहुँचा दिया।

अनगढ़ युवक नरेन्द्र को स्वामी विवेकानन्द की वह भूमिका निभानी पड़ी, जिसके वे न तो इच्छुक थे और न योग्य। किन्तु रामकृष्ण परमहंस का अनुग्रह उन्हें उस स्तर का बना सका जिसके कारण उन्हें भारतीय संस्मृति का युगदुत कहा जाता है। उन्होंने लाखों करोड़ों के अन्तरंग में अश्रद्धा के स्थान पर श्रद्धा का बीजारोपण कर दिया।       विवेकानन्द ने अपने अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ''जब मैं बोलने खडा़ होता था तो आरम्भ में चिन्ता रहती थी कि क्या कुछ कह सकूँगा। जो ही बोलना आरम्भ करता तो प्रतीत होता कि मस्तिष्क पर किसी दिव्य लोक से ज्ञान वर्षण हो रहा है। जिह्वा जो बोलती थी, वह भी ऐसा होता था कि मानो जीभ किसी की है और वाणी किसी अन्य की।''

रामकृष्ण परमहंस के न रहने पर उनकी धर्मपत्नी शारदामणि को भी क्षमता और प्रकृति ऐसी हो गयी थी, जिससे भक्तजनों को वह अनुपस्थिति अखरी नहीं।

परामनोविज्ञान के शोधकर्त्ताओं ने संसार में ऐसी अनेकों घटनाऐं ढूँढ़ निकाली हैं, जिनमें किसी अशिक्षित के मुँह से आवेश की स्थिति में अपरिचित भाषाओं में उच्चस्तरीय प्रवचन होते सुने गए।

कई वैज्ञानिकों, कलाकारों ने अपने अनुभव बताते हुए लिखा है कि उनका मार्गदर्शन और प्रशिक्षण किन्हीं अदृश्य दिव्य आत्माओं द्वारा हुआ। थियोसॉफी के जन्मदाताओं में से मैडम व्लैवेट्स्की और सर ओलिवर लॉज को भी ऐसे ही अदृश्य सहायकों की आश्चर्यजनक दिव्य सहायताऐं प्राप्त होती रही हैं।

यह सूक्ष्म शरीर की क्षमता का प्रभाव परिचय है जिसे गहराई में उतारने वाले अभ्यासी भी उपलब्ध कर सकते हैं।


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