गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

त्रिविधि बंधन और उनसे मुक्ति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
कैदी तीन जगह से बँधा होता है। हाथों में हथकड़ी  पैरों में बेड़ी गले में तौक या कमर में रस्सा। इस प्रकार  सभी प्रमुख क्रिया अंग जकड़ जाने से वह उन बन्धनों को  छुड़ाकर भागने की स्थिति में नहीं रहता। किन्तु जो  प्रयत्नशील होते हैं, मुकदमा लड़ते या भूल का प्रायश्चित  करते हैं उनकी सजा समय से पहले भी छूट जाती है और  बन्धनों से छूट मिल जाती है।

ठीक इस प्रकार मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में कई  जगहों पर बँधन बँधे हुए हैं। उन्हें खोलने, काटने एवं  छूटने का प्रयत्न मनुष्य को करना होता है। इसी को  बन्धन मुक्ति कहते हैं।

बन्धन तीन हैं- वासना, तृष्णा और अहंता।  इन्हीं के कारण निरन्तर खिन्न उद्विग्न रहना पड़ता है। इन तीन के अतिरिक्त मानव जीवन में अशान्ति छाई  रहने का और काई कारण नहीं। इन्हीं को काम, क्रोध  लोभ कहा गया है। इन्हीं तीनों सम्मिश्रण से अनेकों  प्रकार के मनोविकार उठते हैं और उन्हीं की प्रेरणा से  अनेकानेक पाप कर्म बन पड़ते हैं। इन तीनों बन्धनों को  खोला काटा जा सके तो समझना चाहिए बन्धनों मुक्ति का  सौभाग्य बन गया। साधना विज्ञान में इन तीनों बन्धनों  के खुलने पर तीन दिव्य शक्तियों के दर्शन एवं अनुग्रह  का लाभ मिलने की बात कही गई है। बन्धन की स्थिति  ही कष्ट कारक है। इनके खुलने पर तो आनन्द है।  अन्तरंग की दिव्य सम्पदाओं अलौकिक सिद्धि भण्डार पर  यही तीन ताले बड़े हुए हैं। उनके खुलने पर वह सब  कुछ उपलब्ध होता है जो परम पिता ने अपने राजकुमार  की जीवन यात्रा पर भेजते समय आवश्यक साधनों के  रूप में साथ ही बाँध कर एवं दिया है। यह पाथेय गुम  जाने के कारण ही अभावों विक्षोभों और संकटों से भरा  जीवन जीना पड़ता है। इन्हें खोज निकालने तिजोरी  खोल कर उपयोग में ला सकने का अवसर प्राप्त करना  ही ग्रन्थि भेद की साधना है।

बन्धनों को अध्यात्म की भाषा में ग्रन्थि बेध कहते  हैं। ग्रन्थियाँ तीन बताई गई हैं (१) ब्रह्म ग्रन्थि (२)  विष्णु ग्रन्थि (३) रुद्रग्रन्थि। इनके स्थान (१) हृदय  स्थान (२) नाभिस्थान (३ )मस्तक प्रदेश हैं। इसलिए  षट्चक्रों के बेधन एवं पंचकोशों के जागरण की तरह-  ग्रन्थि बेध साधना का भी अपना महत्व एवं विधान है।        तीन शरीर माने गये हैं। स्थूल, सूक्ष्म और  कारण। यही ब्रह्मा विष्णु महेश हैं। इन्हें तीन लोक भी  कहा गया है। गायत्री त्रिपदा है। यज्ञोपवीत में तीन लड़ें  और तीन ग्रन्थियाँ होती हैं। यह सब भी ग्रन्थि विज्ञान की  ओर ध्यान दिलाने के लिए हैं। यज्ञोपवीत कंधे पर धारण  किया जाता है। उसका एक तात्पर्य यह भी है मनुष्य पर  देव- ऋण, ऋषि ऋण, और पितर ऋण तीन लदे हुए  हैं। उन्हें चुकाकर संसार से प्रयाण करना चाहिए।  अन्यथा ऋणी की जो दुर्गति होती है वह अपनी भी होगी।  कहीं अन्यथा चला जाय और वहाँ से पकड़ा जाता है। घर  परिवार कुर्क हो जाता है। इन बातों का स्मरण दिलाने के  लिए ग्रन्थिबेध विज्ञान में बहुत कुछ तत्वदर्शन  सन्निहित है।

साधना विज्ञान के तत्व दर्शी वैज्ञानिकों ने तीन  ग्रन्थियों का विस्तृत विवेचन एवं निरूपण किया है। उन्हें  खोलने के साधन एवं विधि विधान बनाये हैं। उनके  नाम है ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि। रुद्र  ग्रन्थि का स्थान नाभि स्थान माना गया है। इसे अग्नि  -चक्र भी कहते हैं। माता के शरीर से बालक के शरीर में  जो रस रक्त प्रवेश करता है। उसका स्थान यह नाभि  स्थान ही है। प्रसव के उपरान्त नाल काटने पर ही माता  और सन्तान के शरीरों का सम्बन्ध विच्छेद होता है। इस  नाभि चक्र द्वारा ही विश्व ब्रह्माण्ड की वह अग्नि प्राप्त  होती रहती है जिसके कारण शरीर को तापमान मिलता  और जीवन बना रहता है। स्थूल शरीर को प्रभावित  करने वाली प्राण क्षमता का केन्द्र यही है। शरीर शास्त्र  के अनुसार नहीं अध्यात्म शास्त्र के सूक्ष्म विज्ञान के  अनुरूप प्राण धारण का केन्द्र यही है। कुण्डलिनी शक्ति  इसी नाभि चक्र के पीछे अधो भाग में अवस्थिति है। मूला  धार चक्र का मुख द्वार नाभिस्थान में है और अधो भाग में  मल मूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र में। इस केन्द्र के जागरण  अनावरण का जो विज्ञान विधान है वह त्रिपदा गायत्री के  प्रथम चरण का क्षेत्र समझा जा सकता है।

दूसरी ग्रन्थि है। विष्णु ग्रन्थि यह मस्तिष्क मध्य  ब्रह्मरन्ध्र में है। आज्ञा चक्र, द्वितीय नेत्र इसी को कहते  हैं। पिट्यूटरी ओर पीनियल हारमोन ग्रन्थियों का शक्ति  चक्र यही बनता है।

मस्तिष्क के खोखले को विष्णु लोक भी कहा गया  है। इसमें भरे हुए भूरे पदार्थ को क्षीर सागर की उपमा दी  गई है। सहस्रार चक्र को हजार फन वाला शेषसर्प कहा  गया है। जिस पर विष्णु भगवान सोये हुए हैं। ब्रह्मरन्ध्र  की तुलना पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से की गई है। अनन्त  अन्तरिक्ष में अन्तग्रही प्रचण्ड शक्तियों की वर्षा निरन्तर  होती रहती है। ध्रुवों में रहने वाला चुम्बकत्व इस  अन्तग्रही शक्ति वर्षा में से अपने लिए आवश्यक सम्पदायें  खींचता रहता है। पृथ्वी के वैभव की जड़ें इसी ध्रुव प्रदेश  में हैं, वहां से उसे आवश्यक पोषण निखिल ब्रह्माण्ड की  सम्पदा में से उपलब्ध होता रहता है। ठीक इसी प्रकार  मानवी काया एक स्वतन्त्र पृथ्वी है। उसे अपनी अति  महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर इसी  ब्रह्मरन्ध्र के माध्यम द्वारा उपलब्ध होता है। यह ध्रुव प्रदेश  अवरुद्ध रहने से, मूर्छित स्थिति में पड़े रहने से सूक्ष्म  जगत के अभीष्ट अनुदान मिल नहीं पाते और पिछड़ेपन  की आत्मिक दरिद्रता छाई रहती है। विष्णु ग्रन्थि के  जाग्रत होने पर वह द्वार खुलता है। जिससे दिव्य  अनुदानों की अभीष्ट मात्रा आकर्षित और उपलब्ध की जा  सके।

मस्तिष्क का बहुत थोड़ा अंश प्राय: सात प्रतिशत ही  जाग्रत होता है। उसी से तथा कथित विद्वता बुद्धिमानी  आदि की ज्ञान सम्पदा से जिन्दगी की गाड़ी घसीटी जाती  है। शेष ९३ प्रतिशत ज्ञान संस्थान प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। उसी को विष्णु भगवान का शेष शैय्या शयन कहा  गया है। इस क्षेत्र के बन्द कपाट खोले जा सकें और उस  अधँरी कोठरी में प्रकाश पहुँच सके तो वहाँ की रत्न राशि  टटोली और काम में लाई जा सकती है, अतिन्द्रिय ज्ञान  का केन्द्र उसी प्रसुप्त संस्थान में छिपा पड़ा है। दूर  दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य ज्ञान, विचार संचालन, प्राण  प्रहार आदि अनेक योग और तन्त्र में वर्णित शक्तियों का  निवास इसी क्षेत्र में है। सिद्धियों की चौसठ योगिनियाँ  यही समाधिस्थ बनकर लेटी हुई हैं। उन्हें यदि जगाया जा  सके तो मनुष्य सहज ही सिद्धि पुरुष बन सकता है  उनकी अविज्ञात क्षमता विकसित होकर देवतुल्य समर्थता  का लाभ दे सकती है।

बुद्धिमत्ता प्राप्त करने के लौकिक उपाय शिक्षा,  स्वाध्याय, अनुभव अभ्यास परामर्श आदि हैं। यह साधन  जिसे जितनी मात्रा में मिल जाते हैं। वह उतना ही  बुद्धिमान विद्वान बन जाता है। यह सर्व विदित उपाय  हुए। सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार रहस्य मय उपाय  मस्तिष्कीय क्षेत्र की ध्यान धारणा तथा दूसरे साधनात्मक  उपाय उपचारों से विशाल क्षेत्र की ढूंढ़ खोज की जा सकती  है। और उस अन्वेषण का असाधारण लाभ उठाया जा  सकता है। कोलम्बस ने अमेरिका महाद्वीप खोज निकाला  तो योरोप निवासियों ने उसका पूरा पूरा लाभ उठाया,  वैज्ञानिक शोधों का लाभ समस्त जाति उठा रही है मन  संस्थान की सुनिश्चित संपदाओं को खोजना नहीं पड़ता  उन्हें जगाने, उठाने भर की मेहनत करनी पड़ती है।  इसी प्रयास को विष्णु ग्रन्थि खोलने की साधना कहते हैं।

भ्रान्तियों का जंजाल ही माया बन्धन है। तरह  तरह के कुसंस्कार भ्रम कुविचार ही मन को भटकाते और  कुमार्ग पर चलने के लिए बहकाते हैं। मृग तृष्णा में  भटकने और कस्तूरी की खोजने मारे मारे फिरने वाले  हिरन जैसी ही मूर्खता अपना मन भी करता रहता है।  जाल में फँसने वाले पक्षी, कांटे में गला फँसाने वाली  मछली की तरह मन भी सस्ते प्रलोभन में आतुरता पूर्वक  टूट पड़ता है और भारी विपत्ति में फँसता है। सारा शहद  एक साथ खजाने के लिए व्याकुल मक्खी अपने पंखों को  फँसा बैठती है और सस्ते लाभ के बदले प्राण घातक संकट  उठाती है। ऐसी ही दुर्गति भ्रम ग्रसित मन की होती है।  यदि जीवन का स्वरूप और लक्ष्य समझने में भूल न हो  तो सामान्य स्थिति का मनुष्य भी महामानवों के स्तर तक  पहुँच सकता है। भ्रम ही है जो मनुष्य को पथ भ्रष्ट करता  और उसके अनुपम सौभाग्य को व्यर्थ की बर्बादी में नष्ट  करता है। इस विपत्ति से छुटकारा मिल सकने के  साधनात्मक उपाय को, विष्णु ग्रन्थि को खोलना कहते हैं।  यह द्वार खुल जाने पर अनन्त आकाश में बिखरी पड़ी  बहुमूल्य ज्ञान सम्पदा को बटोर लेना भी सहज संभव हो  सकता है। सामान्य शिक्षा से जितना जिस स्तर का ज्ञान  सम्पादन किया जाता है, उसकी तुलना में कहीं ऊँचा कहीं  अधिक सुविस्तृत, परिष्कृत जान जागृत मन: संस्थान  अनायास ही उपलब्ध किया जा सकता है। विष्णु ग्रन्थि के  जागरण से मिलने वाली सफलता के अनुपात से इस  प्रकार के अनेकों दिव्य ज्ञान साधना प्रयोगों द्वारा सहज ही  उपलब्ध होने लगते हैं। त्रिपदा गायत्री का दूसरा चरण  विष्णु ग्रन्थि खुलने से सम्बधित है।

त्रिपदा का तीसरा चरण ब्रह्म ग्रन्थि से सम्बधित  है। इसका स्थान हृदय चक्र माना गया है। इसे ब्रह्म चक्र  भी कहते हैं ब्रह्म परमात्मा को कहते हैं। भावश्रद्धा  संवेदना एवं आकांक्षाओं का क्षेत्र यही है। शरीर शास्त्र  के अनुसार भी यहाँ रक्त का संचार एवं संशोधन करने  वाला केन्द्र यही है। इस धड़कन को ही पेण्डूलम की खट  खट की तरह शरीर रूपी घडी़ का चलना माना जाता है।  अध्यात्म शास्त्र की मान्यता इससे आगे की है उसके  अनुसार हृदय की गुहा में प्रकाश ज्योति की तरह यहाँ  आत्मा का निवास है। परमात्मा भाव रूप में ही अपना  परिचय मनुष्य को देते हैं। श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में  ही परमात्मा को पकड़ा जाता है। यह सारा मर्म स्थल यही  है। किसी तथ्य का हृदयंगम होना किसी प्रियजन का  हृदय में बस जाना जैसी उक्तियों से यह प्रतीत होता है कि  आत्मा का स्थान निरूपण इसी क्षेत्र में किया गया है। उर्दू  का प्रसिद्ध शेर है। ''दिल के आइने में है तस्वीरे यार की  जब जरा गरदन उठाई देखली।                                                                                   हृदय चक्र ब्रह्म ग्रन्थि है। वहां से भावनाओं का-  आकांक्षा अभिरुचि का परिवर्तन होता है। जीवन की दिशा  धारा बदलती है। बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली,  विल्वमंगल अजामिल आदि का प्रत्यावर्तन- हृदय परिवर्तन  ही उन्हें कुछ से कुछ बना देने में समर्थ हुआ। जीवन का  समग्र शासन यहीं से संचालित होता है। आकांक्षाएँ  विचारों को निर्देश देती हैं। और मन: संस्थान को अपनी  मर्जी पर चलाती हैं। मन के अनुसार शरीर चलता है। शरीर कर्म करता है कर्म के अनुरूप परिणाम और  परिस्थितियाँ सामने आती हैं। परिस्थितियों में सुधार  करना हो तो कर्म ठीक करने होंगे। शरीर पर नियंत्रण  मस्तिष्क का और मस्तिष्क का अधिपति हृदय है। प्रियतम  को हृदयेश्वर और हृदयेश्वरी कहा जाता है। मानवी सत्ता  का स्वामित्व हृदय का ही है।

इस स्थान पर जो शक्ति चक्र काम करते हैं। उन्हीं  के कारण सूक्ष्म जगत से महत्व पूर्ण अनुदान प्राप्त करने  का अवसर मिलता है और यहा से अन्तर्जगत की कुरेद बीन  का सिलसिला चलता है। यह हृदय ग्रन्थि जागृत होने पर  महान जागरण की सर्वतोमुखी प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

तेज प्रवाह में बहती हुई नदी के मध्य जो भँवर पड़ते  उनकी शक्ति सामान्य प्रवाह कीं तुलना में सैकड़ों गुनी  अधिक होती है सुदृढ़ नावों जहाज और मल्लाहों को भँवर  में फस कर डूबते देखा गया है। हवा गरम होने पर चक्र  बात उठते हैं। उनकी तूफानी शक्ति देखते ही बनती है।  मजबूत छत, छप्पर पेडू और मकानों को वे उठाकर कहीं  से कहीं पटक देते हैं। रेत को आसमान में छोड़ते हैं ओर  आंधी तूफान के बवंडर उठकर अपने प्रभाव क्षेत्र को बुरी  तरह अस्त-व्यस्त कर देते हैं। ऐसे ही कुछ चक्रवात  केन्द्र- भंवर चक्र अपने शरीर में भी है उनकी गणना  षट्चक्रों के नवचक्रों के रूप में की जाती है। छोटे चक्र  और भी हैं। जिनकी गणना १०८ तक की गई हैं। इन  सब में तीन प्रधान हैं। इन्हें रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और  ब्रह्म ग्रन्थि कहा गया है वे तीनों शरीर को परस्पर भी  जोड़े हुए हैं और सूक्ष्म जगत के साथ आदान प्रदान का  सिलसिला भी बनाये हुए हैं। स्थूल शरीर नाभि चक्र के  नियंत्रण में हैं। सूक्ष्म शरीर पर आज्ञाचक्र का, कारण  शरीर पर हृदय चक्र का आधिपत्य है। ताले खोलने को  चावी डालने के छिद्र यही तीन हैं। योगाभ्यास से इन्हीं  की साधना को रुद्र विष्णु और ब्रह्मा की साधना माना  गया है। इसी समूचे सत्ता क्षेत्र को त्रिपदा गायत्री की  परिधि कहा गया है।

गुणों की दृष्टि से त्रिपदा को निष्ठा प्रज्ञा और  श्रद्धा कहा गया है। निष्ठा का अर्थ है तत्परता दृढ़ता।  प्रज्ञा कहते हैं- विवेकशीलता दूर दर्शिता को, श्रद्धा कहते  हैं आदर्श वादिता और उत्कृष्टता को। कर्म के रूप में  निष्ठा-गुण के रूप में प्रज्ञा और स्वाभाव के रूप में श्रद्धा  की सर्वोपरि गरिमा है स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों के  परिष्कार का परिचय इन्हीं तीनों के आधार पर मिलता  है। गुण, कर्म, स्वभाव ही किसी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता  निकृष्टता के परिचायक होते हैं।

ग्रन्थि बेध का आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष  यह है कि वासना, तृष्णा और अहन्ता में छिपी हुई  दुष्प्रवृत्तियों का जितना अंश जिस रूप में भी छिपा पड़ा हो  उसे ढूँढ़ निकाला जाय, उन पर कड़ी नजर रखी जाय,  और घटाने हटाने का प्रयत्न निरन्तर जारी रखा जाय  इनमें से वासनाओं की स्वामिनी जननेन्द्रिय है वह  यौनाचार से ही तृप्त नहीं होती वरन् चिन्तन क्षेत्र में भी  कामुकता के रूप में समय कुसमय छाई रहती और  कल्पना चित्र बनाती रहती है। मनुष्य इसी से  बन्धन में बँधता है। विवाह करता है। उसके साथ ही  सन्तानोत्पादन का सिलसिला चल पड़ता है। स्त्री, बच्चों  की जिम्मेदारी साधारण नहीं होती। पूरा जीवन इसी  प्रयोजन के लिए खपा देने पर भी उसमें कमी ही रह जाती  है, और मरते समय तक मनुष्य इन्हीं की चिन्ता करता  रहता है। इस पूरे प्रपंच को ऐसा बन्धन समझना चाहिए  जिसे बाँधता तो मनुष्य हँसी-खुशी से है पर फिर उसी के  बोझ से इतना लद जाता है कि अन्य कोई महत्वपूर्ण काम  नहीं कर पाता।

दूसरी विष्णु ग्रन्थि का स्थान उदर क्षेत्र है। इसमें  तृष्णा रहती है। यह तृष्णा पशु पक्षियों में तो पेट भरने  तक सीमित है। इन्हें इतना ही उपार्जन करना पड़ता है।  किन्तु मनुष्य का पेट तो समुद्र जितना बड़ा है। जिसमें  आहार नहीं वैभव भी चाहिए। आज के लिए ही नहीं जन्म  भर के लिए, औलाद के लिए संग्रह और व्यसनों के लिए  भी चाहिए। यही तृष्णा है जो प्रचुर परिमाण में धन वैभव  कमाने पर भी शान्त नहीं होती। इसके लिए उचित  अनुचित सब कुछ करना पड़ता है। मनुष्य अनीति और  पाप उत्पादन करने में भी नहीं चूकता।

तीसरी ग्रन्थि रुद्र ग्रन्थि है। रुद्र को विक्षोभ का  देवता माना गया है। वे जब ताण्डव नृत्य करते हैं तो  प्रलय उपस्थित हो जाती है। मनुष्य जीवन में अहन्ता का  भी वही स्थान है। दूसरों को तुच्छ और अपने को महान  सिद्ध करने के लिए जो विक्षोभ मन में उत्पन्न होते रहते  हैं उनकी गणना अहन्ता में गिनी जाती है। इसी हेतु  दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप डालने के लिए आत्म  विज्ञापन करता है। ठाट-वाट बनाता है। अपव्यय का  मार्ग अपनाकर अपनी अमीरी की धाक जमाता है।  संस्थाओं में, शासन में, समाज में बड़ा पद पाने के लिए  इतना आतुर रहता है कि आये दिन साथियों से झगड़ना  पड़ता है और उन्हें समता करने से रोकना होता है। दर्प  के कारण रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, वृत्रासुर, दुर्योधन  आदि न जाने कितनों को नीचा देखना और संकटों में  फँसना पड़ा।

वासना के सम्बन्ध में दृष्टिकोण परिष्कृत करने का  तरीका यह है कि जननेन्द्रिय को मूत्रेन्द्रिय मात्र माना  जाय। मल द्वार की तरह मूत्र मार्ग को भी उसी काम तक  सीमित रखा जाय। सभी वासनाग्रस्त प्राणी जब अपनी  शक्ति सामर्थ्य से कहीं अधिक प्रजनन में जुटे हुए हैं तो  कुछेक आदर्श वादी व्यक्ति परिवार में इतने लोगों के बीच  रहकर अपना गुजारा बिना किसी कठिनाई के कर सकते  हैं। विवाह करना ही हो तो जय प्रकाश नारायण एवं  जापान के गान्धी जैसा स्तर अपनाया जा सकता है। दो  मित्रों की तरह लक्ष्य की ओर बढ़ने में मिलजुल कर काम  करते रहा जा सकता है।

तृष्णा का नियमन एक सिद्धान्त अपनाने भर से हो  सकता है। औसत भारतीय स्तर का जीवन जिया जाय। उन लिप्साओं को निरस्त किया जाय जो लोभ, लालच  संग्रह एवं अपव्यय के लिए दौलत जमा करने की हवस  भड़काती रहती है। परिवार भावना अपनाने पर यह  ललक सहज मिल जाती है। विश्व परिवार की भावना  रखी जा सके तो अपने लिए अधिक और दूसरों के लिए  कम का अनौचित्य मन से हट सकता है और न्यायपूर्वक  श्रमपूर्वक कमाई से भी भली प्रकार गुजारा हो सकता है।

अहन्ता से छुटकारा पाने के लिए शिष्टता, नम्रता,  विनयशीलता, सज्जनता अपनाने पर जो आत्मसन्तोष  और लोक सम्मान का लाभ मिलता है उस पर विचार  करना चाहिए। उद्वत आचरणों में दूसरों पर छाप डालने  के लिए जितना दम्भ अपनाना पड़ता है उसको  बचकानापन समझा जा सके तो अहंकारी को अपने ऊपर  आप हँसी आती है और शालीनता अपनाकर दूसरों को  सम्मान देने का मार्ग चुना जा सके तो अहंकार का दुर्गुण  सहज शान्त हो सकता है। शरीर सत्ता को मलमूत्र की  गठरी मानने वाला मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह अटका  हुआ तुच्छ प्राणी किस बात का अहंकार करे ?

''सादा जीवन उच्च विचार'' के सूत्र संकेत में  बँधन मुक्ति के सभी सिद्धान्तों' का समावेश है। इस सूत्र  को तीनों क्षेत्रों पर लागू किया जा सकता है। तीनों  ग्रन्थियों को हम विवेक दृष्टि से वस्तुस्थिति का पर्यवेक्षण  करते हुए सहज ही बन्धन मुक्त हो सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118