गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

उपवास से उपत्यिकाओं का शोधन

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अन्नमय कोश की शुद्धि के लिये उपवास की विशेष आवश्यकता है। शरीर में कई जाति की उपत्किायें देखी जाती हैं, जिन्हें शरीरशास्त्री 'नाड़ी गुच्छक' कहते हैं। देखा गया है कि कई स्थानों पर ज्ञान तन्तुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियाँ आपस में चिपकी होती हैं। यह गुच्छक कई बार रस्सी की तरह आपस में लिपटे और बँटे होते हैं। कई जगह वह गुच्छक गाँठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं।

कई बार यह समानान्तर लहराते हुए सर्प की भाँति चलते हैं और अन्त में उनके सिर आपस में जुड़ जाते हैं। कई जगह इनमें बरगद के वृक्ष की तरह शाखा-प्रशाखायें फैली रहती हैं और इस प्रकार के कई गुच्छक परस्पर सम्बन्धित होकर एक परिधि बना लेते हैं इनके रंग आकार एवं अनुच्छेदन में काफी अन्तर होता है। यदि अनुसंधान किया जाय तो, उनके तापमान अणु परिक्रमण एवं प्रतिभापुंज में भी काफी अन्तर पाया जायेगा।

वैज्ञानिक इन नाड़ी गुच्छकों के कार्य का कुछ विशेष परिचय अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं, पर योगी लोग जानते हैं कि यह उपत्यिकायें शरीर में अन्नमयकोश की बन्धन ग्रन्थियाँ हैं। मृत्यु होते ही सब बन्धन खुल जाते हैं और फिर एक भी गुच्छक दृष्टिगोचर नहीं होता। यह उपत्यिकायें अन्नमय कोश के गुण-दोषों का प्रतीक हैं। 'इन्धिका' जाति की उपत्यिकायें चंचलता, अस्थिरता उद्विग्नता की प्रतीक हैं। जिन व्यक्तियों में इस जाति के नाड़ी गुच्छक अधिक हों तो उनका शरीर एक स्थान पर बैठ कर काम न कर सकेगा, उन्हें कुछ खटपट करते रहनी पड़ेगी। 'दीपिका' जाति की उपत्यिकायें जोश, क्रोध, शारीरिक उष्णता, अधिक पाचन, गर्मी, खुश्की आदि उत्पन्न करेंगी। ऐसे गुच्छकों की अधिकता वाले लोग चर्म रोग, फोड़ा-फुन्सी, नकसीर फूटना, पीला पेशाब, आँखों में जलन आदि रोगों के शिकार होते रहेंगे।

'मोचिकाओं' की अधिकता वाले व्यक्ति के शरीर से पसीना, लार, कफ, पेशाब आदि मलों का निष्कासन अधिक होगा। पतले दस्त अक्सर हो जाते हैं और जुकाम की शिकायत होते देर नहीं लगती। 'आप्याविनी' जाति के गुच्छक आलस्य, अधिक निद्रा, अनुत्साह, भारीपन उत्पन्न करते हैं। ऐसे व्यक्ति थोड़ी-सी मेहनत में थक जाते हैं। उनसे शारीरिक या मानसिक कार्य विशेष नहीं हो सकता।

'पूषा' जाति के गुच्छक काम वासना की ओर मन को बलात् खींच ले जाते हैं। संयम, ब्रह्मचर्य के सारे आयोजन रखे रह जाते हैं। 'पूषा' का तनिक-सा उत्तेजन मन को बेचैन कर डालता है और वह बेकाबू होकर विकार ग्रस्त हो जाता है। शिवजी पर शर संधान करते समय काम देव ने अपने कुसुम वाण से उस प्रदेश की 'पूषाओं' को उत्तेजित कर डाला था।

'चन्द्रिका' जाति की उपत्यिकायें सौन्दर्य बढ़ाती हैं। उनकी अधिकता से वाणी में मधुरता, नेत्रों में मादकता, चेहरे पर आकर्षण, कोमलता एवं मोहकता की मात्रा रहेगी। 'कपिल' के कारण नम्रता, डर लगना, दिल की धड़कन, बुरे स्वप्न, आशंका, मस्तिष्क की अस्थिरता नपुंसकता, वीर्यरोग आदि लक्षण पाये जाते हैं। 'घूसार्वि' में संकोचन शक्ति बहुत होती है। फोड़े देर में पकते हैं, कफ मुश्किल से निकलता है। शौच कच्चा और देर में होता है, मन की बात करने में झिझक लगती है। ऊष्माओं की अधिकता से मनुष्य हाँफता रहता है। जाड़े में भी गर्मी लगती है। क्रोध आते देर नहीं लगती। जल्दबाजी बहुत होती है। रक्त की गति, श्वास-प्रश्वास में तीव्रता रहती है।

'अमाया' वर्ण के गुच्छक, ढृढ़ता, मजबूती, कठोरता, गम्भीरता, हठधर्मी के प्रतीक है। इस प्रकार के शरीरों पर ब्राह्य उपचारों का कुछ असर नहीं होता। कोई दवा काम नहीं करती, ये स्वेच्छापूर्वक रोगी या रोग मुक्त होते हैं। उन्हें कोई कुपथ्य रोगी नहीं कर पाता परन्तु जब गिरते हैं तो संयम नियम का पालन भी कुछ काम नहीं आता।

चिकित्सक लोगों के उपचार अनेक बार असफल होते रहते हैं। कारण कि उपत्यिकाओं के अस्तित्व के कारण शरीर की सूक्ष्म स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि चिकित्सा कुछ विशेष काम नहीं करती। 'उद्गीथ' उपत्यिकाओं की अभिवृद्धि से सन्तान होना बन्द हो जाता है। यह जिस पुरुष या स्त्री में अधिक होंगी वह पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी सन्तानोत्पादन के आयोग्य हो जायेगा।

स्त्री- पुरुष में से 'असिता' की अधिकता जिनमें होगी वही अपने लिंग की सन्तान उत्पन्न करने में विशेष सफल रहेगा। 'असिता' से सम्पन्न नारी को कन्यायें और पुरुष को पुत्र उत्पन्न करने में सफलता मिलती है। जोड़े में से जिसमें 'असिता' की अधिकता होगी उसकी शक्ति जीतेगी।

'युक्त हिसा' जाति के गुच्छक क्रूरता, दुष्टता, परपीड़न की प्रेरणा देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को चोरी, जुआ, व्यभिचार, ठगी आदि करने में बड़ा रस आता है। आवश्यक धन, सम्पत्ति होते हुए भी उनका अनुचित मार्ग अपनाने को मन चलता रहता है। कोई विशेष कारण न होते हुए भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या द्वेष और आक्रमण का आचरण करते हैं। ऐसे लोग मांसाहार मद्य-पान, शिकार खेलना, मारपीट करना या लड़ाई-झगड़े को और पंच बनने को बहुत पसन्द करते हैं। 'हिंसा' उपत्यिकाओ की अधिकता वाला मनुष्य सदा ऐसे काम करने में रस लेगा, जो अशान्ति उत्पन्न अपने बच्चों को बेतरह पीटने और कुकृत्य करते देखे जाते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में कुछ थोड़ी-सी उपत्यिकाओं का वर्णन किया गया है। इनकी ९६ जातियाँ जानी जा सकी हैं। सम्भव है ये इससे भी अधिक होती हैं। यह ग्रन्थियाँ जानी जा सकी हैं जो शरीरिक स्थिति को इच्छानुकूल रखने में बाधक होती हैं। मनुष्य चाहता है कि मैं अपने शरीर को ऐसा बनाऊँ, वह उसके लिये कुछ उपाय भी करता है, पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते। कारण यह है कि ये उपत्यिकायें भीतर ही भीतर शरीर में ऐसी विलक्षण क्रिया एवं प्रेरणा उत्पन्न करती हैं जो बाह्य प्रयत्नों को सफल नहीं होने देतीं और मनुष्य अपने को बोर-बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है।

अन्नमय कोश को शरीर से बाँधने वाली यह उपत्किायें शारीरिक एवं मानसिक अकर्मों से उलझकर विकृत होती हैं तथा सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती हैं। बुरा आचरण तो खाई खोदना है और शरीर को उस खाई में गिराकर रोग, शोक आदि की पीड़ा सहनी पड़ती है। इन उलझनों को सुलझने के लिये आहार-विहार का संयम एवं सात्विक रखना दिनचर्या ठीक रखना, प्रकृति के आदेशों पर चलना आवश्यक है। साथ में कुछ ऐसे ही विशेष योगिक उपाय भी हैं जो उन आन्तरिक विकारों पर काबू पा सकते हैं, जिनको कि केवल बाह्योपचार से सुधारना कठिन है।

उपवास का उपत्यिकाओं के संशोधन, परिमार्जन और सुसंतुलन से बड़ा सम्बन्ध है। योग साधना में उपवास का एक सुविस्तृत विज्ञान है। अमुक पर, अमुक मास में, अमुक मुहूर्त में, अमुक प्रकार से उपवास करने का अमुक फल होता है। ऐसे आदेश शास्त्रों में जगह-जगह पर मिलते हैं। ऋतुओं के अनुसार शरीर की छ: अग्नियाँ न्यूनाधिक होती रहती हैं। ऊष्मा, बहुवृच, ह्वादी, रोहिता, आत्पता, व्याति यह छ: शरीरगत अग्नियाँ ग्रीष्म से लेकर बसन्त तक छ: ऋतुओं में क्रियाशील रहती हैं। इनमें से प्रत्येक के गुण भिन्न- भिन्न हैं।     १- उत्तरायण, दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति, २- चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलायें, ३- नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव, ४- सूर्य की अंश किरणों का मार्ग। इन चारों बातों का शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ सम्बन्ध होने से क्या परिणाम होता है, इनका ध्यान रखते हुए ऋषियों ने ऐसे पुण्य-पर्व निश्चित किये हैं, जिनमें अमुक विधि से उपवास किया जाय तो उसका अमुक परिणाम हो सकता है। कार्तिक कृष्णा चौथ जिसे करवा चौथ कहते हैं, उस दिन का उपवास दाम्पत्य प्रेम बढ़ाने वाला होता है क्योंकि उस दिन की गोलार्द्ध स्थिति, चन्द्रकलायें, नक्षत्र प्रभाव एवं सूर्य मार्ग का सम्मिश्रण परिणाम शरीरगत अग्नि के साथ समन्वित होकर शरीर एवं मन की स्थिति को ऐसा उपयुक्त बना देता है, जो दाम्पत्य सुख को सुदृढ़ और चिरस्थायी बनाने में बड़ा सहायक होता है।

इसी प्रकार के अन्य व्रत, उपवास हैं जो अनेक इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में तथा बहुत से अनिष्टों को टालने में उपयोगी सिद्ध होते हैं।

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