गायत्री की उच्चस्तरीय पंचकोशी उपासना में विज्ञानमय कोश के अनावरण का महत्व बहुत अधिक है। अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, आनन्दमय कोशों की मिलकर जितनी शक्ति बनती है उतनी अकेले विज्ञानमय कोश की होती है। क्योंकि भजन और भाव दोनों की तोल समान है। भजन के द्वारा जितनी आध्यात्मिक प्रगति होती है। उतनी ही भाव से भी होती है। इन दोनों पहियों के ठीक रहने पर ही साधना का रथ अग्रगामी बनता है। भावना का स्तर निकृष्ट रहने पर भजन में किया गया भारी परिश्रम भी निष्फल चला जाता है। विज्ञानमय कोश में सद्भावनाओं की जागृति की साधना करनी पड़ती है जो अन्य किसी भी साधना से कम महत्वपूर्ण नहीं है। विज्ञानमय कोश का विकास सद्भावनाओं की अभिवृद्धि में होता है। अन्य कोशों का अनावरण करने के लिए विभिन्न प्रकार के नियम साधन बताये गये हैं, पर विज्ञानमय कोश का जागरण तभी होता है जब अन्तःकरण में सद्भावनाएँ बढ़े। साधक का एक अत्यन्त आवश्यक गुण यह है कि उसका हृदय उदारता प्रेम, संयम और परमार्थ की भावनाओं से ओत-प्रोत रहे। निष्ठुर, स्वार्थी, नीरस, अनुदार, क्रोधी, व्यसनी एवं क्षुद्र प्रकृति के मनुष्य कितना ही जप, तप करें उनकी निकृष्ट जीवन स्थिति एक कदम भी प्रगति पथ पर बढ़ने न देगी। नाव को रस्सी के सहारे नदी तट के किसी पेड़ में बाँध दिया जाय तो फिर पतवार चलाने का परिश्रम क्यों न करता रहा जाय नाव जरा भी आगे न बढ़ सकेगी। इसी प्रकार मानवीय सद्गुणों का अधिकाधिक विकास किये बिना किसी भी अध्यात्म साधक के लिए यह संभव नहीं हो सकता कि वह केवल जप, तप के सहारे लक्ष को प्राप्त कर सके।
भजन भाव का जोड़ा है। बोल-चाल में कहते भी हैं- 'आजकल भजन भाव में मन लगने लगा है या नहीं लगता' भगवान भाव के भूखे हैं, वे साधक की नीयत, प्रवृत्ति और अन्तरात्मा को परखते हैं। जिसमें उदारता नहीं और न सज्जनता है ऐसे साधक को भगवान का न तो आशीर्वाद ही मिल सकेगा और न अनुग्रह ही। इसलिए अध्यात्म मार्ग के पथिकों को इस बात का बहुत अधिक ध्यान रखना पड़ता है कि उनके गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का अंश निरन्तर बढ़ता चले। देव स्वभाव का निर्माण किये बिना किसी के लिए भी यह संभव न हो सकता कि वह भगवान के दरवार में प्रवेश कर सके। इसलिए इस तथ्य को हृदयंगम करना ही होता है कि हमारे भजन विधान में आवश्यक प्रगति के साथ-साथ स्वभावगत सज्जनता, सात्विकता एवं सद्भावना की भी निरन्तर वृद्धि होती चले।
विज्ञानमय कोश का परिमार्जन आत्मा पर चढ़े हुए मल आवरण एवं विक्षेपों को हटाने से होता है। इस प्रकार विज्ञानमय कोष का गायत्री द्वारा जब परिष्कार कर लिया जाता है तो आत्मा के दिव्य प्रकाश का स्पष्ट अनुभव होने लगता है। गायत्री से अजपा जाप का 'सोऽहम्' मन्त्र अपने आप सिद्ध होता है। आत्म- चिन्तन, आत्म-अनुभव आत्म-दर्शन, आत्म-विकास एवं आत्म- प्राप्ति के द्वार इसी कोष में खुलते हैं। स्वरयोग की इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गाँधरी, जिह्वा, पूषा, याशस्विनी, अलंबुषा, कुहू शंखनी यह छहों नाडियाँ क्रियाशील हो जाती हैं और साधक की पहुँच लोक-लोकान्तरों तक हो जाती है। रुद्रग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा ब्रह्म ग्रन्थि खुलने से सत, रज, तम तीनों गुणों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है। वासना, तृष्णा, अहंता एवं काम-क्रोध एवं मोह पर विजय प्राप्त हो जाती है।
आत्म-साक्षात्कार की चार साधनायें नीचे दी जाती हैं, १- सोऽहम् साधना २- आत्मानुभूति, ३- स्वर संयम, ४- ग्रन्थि- भेद। यह चारों ही विज्ञानमय कोश को प्रबुद्ध करने वाली हैं।