आनन्दमय कोश की स्थिति पञ्ज भूमिका है। इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं। समाधि अनेक प्रकार की हैं। काष्ठ या जड़- समाधि, भाव-समाधि, ध्यान-समाधि, प्राण-समाधि, सहज- समाधि आदि २७ समाधियाँ बताई गई हैं। मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफॉर्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ-समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना अतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टा संज्ञाशून्य हो जायें उसे भाव-समाधि कहते है। ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाय कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उन्हें ध्यान समाधि कहते हैं, इष्ट देव के दर्शन जिन्हें होते हैं, ध्यान-समाधि की अवस्था में ऐसी चेतना आ जाती है कि वह अन्तर उन्हें विदित होने पाता है कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण-समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।
इस प्रकार २७ समाधियों में से वर्तमान देशकाल पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्हें सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है-
साधो ! सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ॥
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ॥
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा ॥
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी ॥
कहैं ‘कबीर’ वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ॥
उपरोक्त पद में सदगुरु कबीर ने सहज की समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है, सर्व सुलभ है, सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ-साधनायें कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्ट-साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या षट्कर्मो की श्रम- साध्य साधना सब किसी के लिए सुलभ नहीं है। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियायें साधनी हैं, फिर यदि उनकी साधना खण्डित हो जाती है तो संकट भी सामने आ सकते हैं। जो योग-भ्रष्ट लोगों के समान कभी भयंकर रूप से आ खड़े होते हैं। कबीरजी सहज् योग को प्रधानता देते हैं, सहज योग का तात्पर्य है, सिद्धान्तमय जीवन कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम। क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह की तुच्छ इच्छाओं से प्रेरित होकर आमतौर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भाँति- भाँति के कष्टों का अनुभव करते हैं।
सहज समाधि असंख्य प्रकार की योग-साधनाओं में से एक है। इसकी विशेषता यह है कि साधारण रीति के सांसारिक कार्य करते हुए भी साधना- क्रम चलता है। इसी बात को ही यों कहना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति जीवन के सामान्य सांसारिक कार्य, कर्त्तव्य, यज्ञ, कर्म, ईश्वरीय आज्ञा-पालन की दृष्टि से करता है। भोजन करने में उसकी भावना रहती है कि प्रभु की एक पवित्र धरोहर शरीर को यथावत रखने के लिए भोजन किया जा रहा है। खाद्य पदार्थो का चुनाव करते समय शरीर की स्वस्थता उसका ध्येय रहती है। स्वादों के चटोरेपन के बारे में वह सोचता तक नहीं, कुटुम्ब का पालन-पोषण करते समय वह परमात्मा की एक सुरम्य वाटिका के माली की भाँति सिंचन, सम्वर्धन का ध्यान रखता है, ईश्वरप्रदत्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक पुनीत साधनामात्र समझता है। अमीर बनने के लिए जैसे भी बने वैसे धन-संग्रह करने की तृष्णा उसे नहीं होती हैं। बातचीत करना, फिरना, खाना- पीना, सोना- जागना, जीविकोपार्जन, प्रेम, द्वेष आदि सभी कार्यों को करने से पूर्व परमार्थ को, कर्तव्य को, प्रधानता देते हुए करने से वे समस्त साधारण काम-काज भी यज्ञ-रूप हो जाते हैं।
जब हर काम के मूल में कर्तव्य भावना की प्रधानता रहेगी तो उन कार्यों में पुण्य प्रमुख रहेगा। सद्बुद्धि से सद्भाव से किये हुए कार्यों द्वारा अपने आपको और दूसरों को सुख-शान्ति ही प्राप्त होती है। ऐसे सत्कार्य मुक्तिप्रद होते हैं, बन्धन नहीं करते। सात्विकता, सद्भावना और लोक-सेवा की पवित्र आकांक्षा के साथ जीवन-संचालन करने पर कुछ दिन में वह नीति एवं कार्य-प्रणाली पूर्णतया अभ्यस्त हो जाती है और जो चीज अभ्यास में आती है, वह प्रिय लगने लगती है, उसमें रस आने लगता है। बुरे स्वाद की, खर्चीली, प्रत्यज्ञ हानिकारक, दुष्पाच्य, नशीली चीजें, मदिरा, अफीम, तम्बाकू आदि जब कुछ दिन के बाद प्रिय लगने लगती हैं, और उन्हें बहुत कष्ट उठाते हुए भी छोड़ने नहीं बनता, जब तामसी तत्व कालान्तर के अभ्यास से इतने प्राणप्रिय हो जाते हैं, तो कोई कारण नहीं कि सात्विक तत्व उससे अधिक प्रिय न हो सकें।
सात्विक सिद्धान्त को जीवन-आधार बना लेने से उन्हीं के अनुरूप सार-विचार और कार्य करने से आत्मा को सत्-तत्व में रमण करने का अभ्यास पड़ जाता है यह अभ्यास जैसे-जैसे परिपक्व होता है, वैसे-वैसे सह- योग का रसास्वादन होने लगता है, उसमें आनन्द आने लगता है। जब अधिक दृढ़ता, श्रद्धा, विश्वास, उत्साह एवं साहस के साथ सत्परायणता में, सिद्धान्त संचालित जीवन में, संलग्न रहता है तो वह उसकी स्थायी वृत्ति बन जाती है। उसे उसी में तन्मयता रहती है, एक दिव्य आवेश सा छाया रहता है, उसकी मस्ती, प्रसन्नता, सन्तुष्टि असाधारण होती है। इस स्थिति को सहज-योग की समाधि या “सहज समाधि” कहा जाता है।
कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है, कहते हैं- हे साधुओं ! सहज समाधि श्रेष्ठ है जिस दिन से गुरु की कृपा और वह स्थिति प्राप्त हुई है, उस दिन से सूरतु दूसरी जगह नहीं गई, चित्त डावाँडोल नहीं हुआ, मैं आँख मूँदकर, कान मूँदकर कोई हठयोगी की तरह काया में कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँख खोले रहता हूँ और हँस- हँसकर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है, जो सुनाता हूँ सो सुमिरन है, जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक -सा देखता और अद्वैत का अभाव मिटाता हूँ जहाँ- जहाँ जाता हूँ सोई परिक्रमा है, जो कुछ करता हूँ सोई- सोई सेवा है। जब सोता हूँ तो वह मेरी दण्डवत् है। मैं एक को छोड़कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़कर निरन्तर शब्द में, अन्तःकरण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूँ। ऐसी ताली लगी है, निष्ठा जमी है कि उठते- उठते वह कभी नहीं बिसरती। कबीर कहते हैं कि “मेरी यह उनमनि- हर्ष शोक से रहित स्थिति है, जिसे प्रकट करके गाया है। दुख-सुख से परे जो एक परम सुख है, मैं उसी में समाया रहता हूँ।”
यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत’ रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षिण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं, सत् की दिशा में चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं और उन्हीं को जीवन- नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत’ सहसज योगी उस परम आनन्द की सहज समाधि में सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊँचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भर रहता है, इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप बन जाते हैं। जैसे खाँड़ से बने खिलौने आकृति में कैसे ही क्यों न हों, होंगे मीठे ही, इसी प्रकार सद्भावना और उद्देश्य परायणता के साथ किए हुए काम बाह्य आकृति में कैसे ही क्यों न दिखाई देते हों, होंगे वे यज्ञ रूप ही, इसी प्रकार पुण्यमय ही। सत्य परायण व्यक्तियों के सम्पूर्ण कार्य, छोटे से छोटे कार्य, जहाँ तक कि चलना सोना, देखना तक ईश्वर-आराधना बन जाते हैं।
स्वल्प प्रयास में समाधि का शाश्वत सुख उपलब्ध करने की इच्छा रखने वाले अध्यात्म मार्ग के पथिकों को चाहिए कि वे जीव का दृष्टिकोण उच्च उद्देश्यों पर अवलम्बित करें, दैनिक कार्यक्रम का सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्णय करें। भोग से उठकर योग में आस्था का आरोपण करें। इस दिशा में जो जितनी प्रगति करेगा, उसे उतने ही अंशों में समाधि के लोकोत्तर सुख का रसास्वादन होता चलेगा।
आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से कुछ प्रमुख साधनाऐं नीचे दी जाती हैं। सहज समाधि की भाँति यह कुछ महासाधनाऐं भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं, साथ ही उनकी सुगमता भी असंदिग्ध है।