गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति-प्राण

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ऋषियों का अभिप्राय प्राण से क्या है, इसका  परिचय उस शब्द के नामकरण के आधार पर प्राप्त  होता है। प्राण शब्द की व्युत्पति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु जीवन, शाक्ति, चेतनावाचक है। इस प्रकार उसका अर्थ प्राणियों की  जीवनी शक्ति के रूप में किया जाता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेतन की जीवनी शक्ति क्या हो सकती है। यहाँ उसका उत्तर ‘संकल्प’  बल के रूप में दिया जा सकता है। जिजीविषा से लेकर  प्रगतिशीलता ही तक उसके असंख्य रूप हैं। अन्तःकरण  की आकांक्षा ही विचार शक्ति और क्रिया शक्ति को  उत्तेजना एवं दिशा देती है। मात्र आकांक्षा रहने से काम  नहीं चलेगा। उसे तो कल्पना या ललक मात्र  कहा जा सकता है। आकांक्षा के साथ उसे पूरा करने  की साहसिकता भी जुड़ी हुई हो तो उसे संकल्प कहा  जा सकेगा। संकल्प में आकांक्षा, निष्कर्ष, योजना  और अग्रगमन के लायक अभीष्ट साहसिकता जुटी रहती  है। यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल  है। उसी के सहारे पतन उत्थान के आधार बनते हैं।  परिस्थितियाँ इसी संकल्प भरी मनःस्थिति के आधार पर खिंचती चली आती हैं। इसी संकल्प तत्व को चेतन  का प्राण कहा जा सकता है। इसी की उपासना करने  के लिए अभिवर्धन के लिए तत्व दर्शियों ने निर्देश  दिये हैं। प्रश्नोपनिषद ने प्राण की व्याख्या संकल्प  रूप में की है।      
यच्चित्तस्तेनैष प्राण मायाति प्राणस्तेजसा युक्तः       
                           महात्मना यथा संकल्पित लोकंनयति।                                                                      -प्रश्नोपनिषद् ३। १०   
          
आत्मा का जैसा संकल्प होता है वैसा ही स्वरूप  संकल्प इस प्राण का बन जाता है। यह प्राण ही जीव के  संकल्पानुसार उसे विभिन्न योनियाँ प्राप्त कराता है।

विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में  उत्पन्न हुए एक कोशीय जीवाणु इसी संकल्प शक्ति की  प्रेरणा से क्रमशः आगे बढ़े और विकसित हुए। अध्यात्म  शास्त्र के अनुसार ब्रह्म ने एक से बहुत होने की इच्छा  की और ब्रह्म इच्छा शक्ति ही प्रकारान्तर से परा-अपरा  प्रकृति बनकर जगत् बन गई। उसी का विस्तार पंच तत्वों और पंच प्राणों में होता चला गया है।

विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र  सामर्थ्य को व्याख्या के रूप में प्राण कहा जाता है। वह  जड़ और चेतन दोनों को ही प्रभावित करती है।  उपासना उसके इस एक पक्ष की ही की जाती है। जो  मनुष्य को सत्प्रयोजनों की स्थिति में अग्रसर करने के  लिए प्रयुक्त होती है। चेतना की सामर्थ्य तो उभय पक्षीय  है। वह दुष्टता के क्षेत्र में दुस्साहस बनकर भी काम  करती है। इस निषिद्ध पक्ष को नहीं जीवन को  उत्कृष्टता की ओर अग्रसर करने वाले सत्संकल्पों को  उपास्य प्राण माना गया है। उसको जितना मात्र  उपलब्ध होता है, उसी अनुपात से प्रगतिशीलता का  लाभ मिलता है। इन विशेषताओं को देखते हुए उसे  ब्राह्मी शक्ति-ब्रह्म प्रेरणा एवं साक्षात् ब्रह्म कहा गया है।  सुविधा के लिए इसे अन्तरात्मा की पुकार भी कह सकते  हैं। शास्त्र की दृष्टि में प्राण तत्व की व्याख्या इस प्रकार  होती है-      
प्राणो ब्रह्मेति ह स्माह कोषीतकिस्तस्य ह वा
एतस्य प्राणस्य ब्रह्मणो मनो दूतं वाक्परिवेष्ट्री चक्षुर्गात्र
श्रोत्र संश्रावयितृ यो ह वा एतस्य प्राणस्य ब्राह्मणो मनो
दूतं वेद दतवान्भवति यश्चक्षु गोप्तृ गोप्तृमान्भवति यः
 श्रोत्रं संश्रावयितृ संश्रावयितृमान्भवति यो वाचं परिवेष्ट्री
परिवेष्ट्रोमान्भवति।                  
                                 -कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् २। १

यह प्राण ही ब्रह्म है। यह सम्राट है। वाणी उसकी रानी है। कान उसके द्वारपाल हैं। नेत्र अंगरक्षक, मन दूत, इन्द्रियाँ दासी, देवताओं द्वारा यह उपहार उस प्राण ब्रह्म को भेंट किये गये हैं।
                 प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
             यो भूतः सर्वस्येश्वरी यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्।।                               
                           -अथर्व० कां० ११

उस प्राण को मेरा नमस्कार है, जिसके अधीन यह सारा जगत् है, जो सबका ईश्वर है, जिसमें यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है।
प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या। तं मामायुरमृत भित्युपमृत
भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः।
याग्वदस्मिञ्छरीरे प्राणो वसति तावदायुः।
प्राणेन हि एव गस्मिन् लोकेऽमृतत्व        
  माप्नोति                                           
               -शांखायन

मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत जानकर उपासना करो। जब तक प्राण है, तभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है।
स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्रोणोग्निरूदयते।                                            
                                                      प्रश्नो १।७

वह प्राण रूपी तेजस सूर्य के उदय के साथ समस्त विश्व में फैलने लगता है।
प्राणो भवेत् परंब्रह्म जगत्कारणमव्ययम।
                            प्राणो भवेत् यथामंत्र ज्ञानकोश गतोऽपिवा।।                                                                                  -ब्रह्मोपनिषद्

प्राण ही जगत् का कारण परमब्रह्म है। मंत्र ज्ञान तथा पंच कोश प्राण पर आधारित है।

प्राण शक्ति का वही ब्रह्म तेज आँखों में, वाणी में, चिन्तन और क्रिया में चमकता है। यह चमक ही बौद्धिक क्षेत्र में तेजस्विता और क्रिया क्षेत्र में ओजस्विता कहलाती है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यही मनस्विता प्रतिभा बनकर दीप्तिवान होती है। प्राण शक्ति ही सर्वतोमुखी समर्थता कही जाती है।
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष पर्जन्यो मद्यवानष्।
                एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत्।।                                
                                           -प्रश्नो २।५

यह प्राण ही अग्निरूप धारण करके तपता है। यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है। सत्-असत् तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही है। अन्यत्र भी ऐसे ही उल्लेख हैं-

अमृत सु वै प्राण?।                               
-शतपथ        
यह प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है।

प्राणोवाव आशाया भूयान्यथा।                               
             -छद्दान्दोग्य        
इस प्राण शक्ति की सम्भावना आशा से अधिक है।

प्राणो वै यशो वलम्।
                       -वृहदारण्यक      
प्राण ही यश और बल है।

प्राणश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।                             
 -यजुर्वेद     
 मेरी प्राण शक्ति सत्कर्मो में प्रवृत हो।      

प्राण को कई व्यक्ति वायु या साँस समझते हैं और श्वांस प्रश्वांस क्रिया के साथ वायु का जो आवागमन निरन्तर चलता रहता है उसके साथ प्राण की संगति बिठाते हैं। यह भूल इसलिए हो जाती है कि अक्सर प्राण के साथ ‘वायु’ शब्द और जोड़ दिया जाता हैं। यह समावेश सम्भवतः वायु के समान मिलते-जुलते गुण प्राण में होने के कारण उदाहरण की तरह हुआ हो। चूंकि प्राण भी अदृश्य है और वायु भी। प्राण भी गतिशील है और वायु भी। प्राण भी सारे शरीर एवं विश्व में व्याप्त है और वायु भी इसलिए प्राण की स्थिति मोटे रूप में समझने के लिए उसे वायु के उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। किन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। वायु पंचतत्वों में से एक होने के कारण जड़ है, किन्तु प्राण तो चेतना का पुञ्ज होने से उसका वस्तुतः कोई सादृश हो नहीं सकता। प्राण को प्रकृति की उत्कृष्ट सूक्ष्म शक्तियों (नेचर्स फाइनर फोर्सेज) में से एक कह सकते हैं। भारतीय योगियों ने इसे मानसिक या इच्छा सम्बन्धी श्वांस प्रक्रिया (रेशपाइरेशन) के रूप में लिया है। वास्तव में ऐसी ही दिव्य धारा के प्रभाव से उच्च कोटि की आत्मिक शक्तियाँ प्राप्त होनी सम्भव है। श्वास प्रश्वास की किया का प्रभाव तो फेफड़ों तक अधिक से अधिक भौतिक शरीर के बलवर्धन तक सीमित हो सकता है।
प्राणोऽयास्तीति प्राणी।   
अर्थात् प्राणवान् को प्राणी कहते हैं।

सांख्यकार ने प्राण को तत्व नहीं अन्तःकरण का धर्म माना है। सांख्य कारिका में कहा गया है-
स्वालक्षण्यं वृत्तिस्त्रयस्य तेषा भवत्य सामान्या।
सामान्यकरण वृत्तिः प्राणद्या वायवः पञ्च।
           
अन्तःकरण के चार पक्ष हैं। चारों का अपना- अपना धर्म है। मन का संकल्प, बुद्धि का विवेक चित्त की धारणा और अहं का अभिमान। इन चारों का सम्मिलित स्वरूप समग्र प्राण है। विभिन्न कार्यो में होने वाले उसके प्रयोगों को देखते हुए प्राण अपान, समान, उदान, व्यान भेद से उसे पाँच प्रकार का कहा गया है।
 
न्याय दर्शन में प्राण को वायु अर्थ में प्रयुक्त किया गया है              
सम्भवतः उनका तात्पर्य ‘ऑक्सीजन’ या वैसी ही किसी अन्य प्रकृति क्षमता से रहा हो। वैशेषिक के अनुसार-
शरीरान्तः संचारी वायुः प्राणः संचैकोऽपि
उपाधि भेदात् प्राणायानादि संज्ञा लभते।

शरीर के भीतर संचारित होने वाले वायु प्राण हैं। वह एक होने पर भी उपाधि भेद से पाँच प्रकार की है। योगदर्शन का अभिमत भी उसी से मिलता-जुलता प्रतीत होता है। वेदान्तकार ने इससे अपना मत भेद व्यक्त किया है। ब्रह्म सूत्र में कहा गया है-
ना वायु क्रिये प्रथगुपरेशात्।
अर्थात् वायु प्राणी नहीं है, उनकी क्रिया और सत्ता में भेद है।    
 
छान्दोग्य और प्रश्नोपनिषद् में प्रजापति द्वारा इन्द्रियों की शक्ति परीक्षा के सम्बन्ध में आती है। वे समर्थ भर दीखती तो थी पर प्राण शक्ति के बिना कुछ भी कर सकने में समर्थ न हो सकी। तब उन सब ने मिलकर प्राण की श्रेष्ठता स्वीकार की और उसे नमन किया।

अधिकांश उपनिषद्कारों ने प्राण को आत्मसत्ता की किया शक्ति माना है और उससे अविच्छिन्न कहा है। आत्मा को ब्रह्म भी कहा जाता है। दोनों की एकता बोधक कितने ही प्रतिपादन मिलते हैं। इस दृष्टि से प्राण को ब्राह्म शक्ति भी कहा गया है।

प्रश्नोपनिषद् में प्राण को व्रात्य ऋषि कहा गया है-  ‘व्रात्य स्त्वं प्राणैकर्षि’ हे प्राण तू (व्रात्य) कर्तव्य च्युत तो रहता है फिर भी मूलतः  ऋषि ही है। व्याख्याकारों ने अन्य कई ऋषियों के नामों पर प्राण का उल्लेख किया है। उसे ‘गृत्समदं’ कहा गया है। ‘गृत्स’ कहते हैं नियंत्रण कर्त्ता को, मद कहते हैं कामुकता एवं अहंकार को। जो इन पर नियंत्रण कर सके वह ‘गृत्स मद’ सब का मित्र होने से उसे ‘विश्वामित्र’ कहा गया है।  पापों से बचाने वाला-अत्रि। पोषक होने से भारद्वाज और विशिष्ट होने से उसकी संज्ञा वशिष्ठ बताई गई है।

कषाय कल्मषों और कुसंस्कारों का निराकरण उन्मूलन इस प्रचण्ड संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव होता है। ढीले पीले स्वभाव वाले आत्म परिष्कार की बात सोचते भर हैं, पर वैसा कछ कर नहीं पाते। कल्पना जल्पनाओं में उलझे रहते है। प्रचण्ड संकल्प के बल पर उत्पन्न आत्मिक साहस ही दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों और कुसंस्कारों से जुझता है। उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा और अवरोधों से जुझने की क्षमता उसी आत्मबल से मिलती है जिसे प्राण कहा जाता है। प्राण देवता के अनुग्रह से मनोनिग्रह और विमृतियों के उन्मूलन होने की बात वृहदारण्यक उपतिषद् में इस प्रकार कही गई है-
               सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्य
                यत्रासां दिशामन्तस्तद्गमयांचकार तदासां
                 पाप्मनो विन्यदधात् तस्मान्न
       जनमियान्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्चवायानीति।                                
                                     -वृ० उ० १।३।१०  
   
प्राण देवता ने इन्द्रियों के पापों को दिगन्त तक पहुँचाकर विनष्ट कर दिया। क्योंकि वह पाप ही इन्द्रियों के मरण का कारण था। इन कल्मषों को इस निश्चय के साथ भगाया कि पुनः न लौट सकें।
अथ चक्षुरत्यवहत् तद् यदा।
मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽभवत्।
              सोऽसावादित्यः परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति।                               
                                                       -वृ० उ० १।३।१४     
 
जब प्राण की प्रेरणा से चक्षु निष्पाप हुए तो वे आदित्य बनकर अमर हो गये और तपते हुए सूर्य की तरह अपने तप से ज्योतिर्मय हो उठे।     
          
इसी प्राण शक्ति को गायत्री कहते हैं। यों वह क्षमता स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के कण-कण में संव्याप्त है, पर उसका केन्द्र संस्थान मल-मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र गहर में माना गया है। प्राण-शक्ति के अभिवर्धन से इसी संस्थान का द्वार खटखटाना पड़ता है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए उसका फाटक खोलना या तोड़ना पड़ता है। मूलाधार चक्र की साधना से यही प्रयोजन पूरा होता है। गायत्री की प्राण शक्ति मूलाधार चक्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख गायत्री मंजरी में मिलता है-
यौगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये।
                        गायत्री मतालोके मूलाधारा विदो वरैः।                         
                                                -गायत्री मंजरी
     
विद्वानों का मत है कि समस्त यौगिक साधनाओं का मूलाधार गायत्री ही है।
प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रह्मपुरे जाग्रति।                       
                      -प्रश्नोपनिषद्    
 
इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती हैं।
यद्वाव प्राणा जागर तदेवं जागारितम् इति।                          
                       -ताण्डय०     

 प्राण को जागृत करना ही महान जागरण है। प्राण का ज्ञान एवं जागरण ही अमृत्व एवं मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। उसी से यह लोक और परलोक सुधरता है। इसी से भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए वेद ने कहा है-हे विचार शीलो प्राण की उपासना करो- गायत्री महामंत्र का आश्रय लो और आत्म कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ चलो।
य एषं विद्वान्प्राणं वेद रहस्य प्रज्ञा
                          हीयतेऽमृतो भवति तयेव श्लोकः।                        
                                      -प्रश्नोपनिषद्      
जो ज्ञानी इस प्राण के रहस्य को जानता है उसकी परम्परा कभी नष्ट नहीं होती वह अमर हो जाता है।


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