गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

आत्मबल तपश्चर्या से ही मिलता है

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दुनियाँ में जो कुछ हो रहा है, दिखाई दे रहा है, हो चुका है तथा जो होने जा रहा है वह सब शक्ति का ही क्रीड़ा-किलोल है। संसार जड़ तत्वों का बना है। पदार्थ में उसके गुण तो हैं पर क्रिया एवं चेतना न होने से वह कुछ कर नहीं पाता। हलचल का उत्पत्ति, विकास, पतन और परिवर्तन का क्रम तो शक्ति द्वारा ही संचालित होता है। शक्ति की प्रक्रिया जिस दिन सिमट जाती है, समाप्त हो जाती है, उसी दिन प्रलय आ उपस्थित होती है। शरीर से जिस दिन प्राण शक्ति गई उसी दिन मृत्यु हो जाती है। फिर यह सारा कलेवर चाहे वह संसार के रूप में हो या शरीर के रूप में निर्जीव एवं निकम्मा बन जाता है फिर इसकी कोई उपयोगिता नहीं रहती। दीपक का सारा प्रकाश उसकी ज्वलन्त शील लौ में केन्द्रित हैं। लौ बुझी नहीं कि वह तेल बत्ती तथा मिट्टी के ठीकरा एक कवाड़ा मात्र रह जाता है।

इस संसार में जो कुछ चमक दीखती है, जो कुछ हलचल होती है उसमें शक्ति की विद्युत काम करती है। इसलिये शक्ति ही उपासनीय है। शक्ति को ईश्वर में भी स्फुरता पैदा करने वाली माना गया है यह मान्यता रखी गई है शक्ति ही अव्यक्त बाह्य को व्यक्त रूप में, अचिन्त्य सत्ता को चिन्त्य रूप देने में समर्थ होती है। इसलिए उसी की महत्ता अधिक है। कहा गया है कि- ''शक्ति के बिना शिव, शव (लाश) मात्र है।''

इस शक्ति के दो रूप हैं एक स्थूल दूसरा सूक्ष्म। एक को क्रिया दूसरी को चेतना कहते हैं। स्थूल मंच भौतिक पदार्थों में सम्बद्ध होकर शक्ति के द्वारा जो हलचलें होती हें वे क्रिया कहलाती हैं और जो भावना, बुद्धि, संकल्प, इच्छा, एकाग्रता, आवेश, विचार आदि के संयोग से अन्तःप्रदेश में गतिविधि उत्पन्न करती है उसे चेतना कहते हैं। क्रिया शक्ति के द्वारा इस संसार में सारी मशीनें चल रही हैं, सारे वैज्ञानिक उपकरण काम कर रहे हैं, समस्त जीवों में शरीर अपने-अपने पाचन रक्त भिषरण आदि भीतरी एवं श्रम निर्माण, व्यवस्था कला आदि विविध प्रकार की क्रिया कलाओं का आयोजन कर रहे हैं। चेतना के द्वारा विद्या विलास, अन्वेषण, विचार विमर्श राग द्वेष, हर्ष-विषाद, सुख, आदि के कार्य चलते हैं। चेतना का एक भाग स्व संचालित हैं, उस पर मनुष्य का कोई नियन्त्रण नहीं, वृक्षों, वनस्पतियों में पदार्थों के विकास में, शरीरों के भीतर की स्वाभाविक गति विधियों में, चेतना शक्ति, सीधे सार्वभौम शक्ति भण्डार से आकर अपना काम करती रहती है और सृष्टि का कार्यक्रम अनवरत रूप से चलता रहता है।

अब उस चेतना शक्ति का प्रसंग आता है जो मनुष्य के मस्तिष्क, हृदय एवं अन्तःकरण में सन्निहित है। यह मानवीय चेतना इतनी प्रचण्ड है कि इसे सार्वभौम अविज्ञात, विश्वव्यापी चेतना शक्ति के समतुल्य ही कहा जा सकता है। यों सार्व भौम चेतना शक्ति के कार्यों को देख मानव बुद्धि ठगी सी रह जाती है पर मानवीय चेतना की गुरुता का वह सार्वभौम शक्ति मूल्याकंन करती होगी तो वह भी स्तब्ध ही रह जाती होगी।

बादलों के द्वारा करोड़ों मन पानी इधर से उधर करते रहना, भूकम्प, बिजली, वर्षा, वृक्ष और पौधों में हरियाली पत्र-पल्लव फल-फूल आदि की शोभा, वीर्य बिन्दु से शरीर और शरीर में बिन्दु की उत्पत्ति परमाणुओं की गतिशीलता, यह नक्षत्रों का परिधि भ्रमण आदि बातों पर जिस ओर दृष्टिपात किया जाय उधर आश्चर्य ही आश्चर्य दिखाई देता है। पर जब प्राणियों के अन्तर्गत- विशेषतया मानव अन्तःकरण में प्रस्फुटित चेतना शक्ति के कार्यों को देखा जाता है तो लगता है कि प्रकृतिगत शक्तियों पर उसने काबू पाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अपने बुद्धिबल से प्रकृति के गहन गह्वर को तिल- तिल करने के छान डालने में वह लगा हुआ है और कुछ अब तक भी प्राप्त कर सका है। वह आश्चर्य जनक है, फिर भविष्य की सम्भावनाओं का तो कहना ही क्या है ?

पृथ्वी के ध्रुव प्रदेशों में अवस्थित मध्य बिन्दु स्थल पर यदि वह थोड़े से भी परमाणु बम गिरा दें तो इस पृथ्वी का अपने धुरी से हटकर किसी अन्य ग्रह के साथ टकरा जाना और चूर-चूर होकर धूलि बन जाना सम्भव है। ऊबड़-खाबड़ धरती के वक्ष को चीर कर वह अपने बुद्धि बल से ही मनमानी मात्रा में अन्न, फल, जल, धातुयें, रत्न खनिज तथा विद्युत सम्पदा प्राप्त करता है, बुद्धिबल से ही उसने आकाश में उड़ने और जल में तैरने के यान बनाए हैं। इस बीहड़-डरावनी अस्त-व्यस्त धरती को चित्र भी सुन्दर और सुसज्जित बनाने में, एक नगण्य द्विपद पशु मनुष्य को देव तुल्य आनन्दों का अधिकारी बनाने में, नाना विधि सुख-साधन सामिग्री जुटाने में यह मानवीय अन्त:चेतना ही काम कर रही है। इससे प्रकृति पर, प्रकृति गत साधनों और शक्तियों पर विज्ञान के माध्यम से बहुत बड़ी मात्रा में अधिपत्य प्राप्त किया है और आगे इससे भी अधिक अधिपत्य प्राप्त करने की तैयारी है। इस चेतना शक्ति का जितना गुण गान किया जाय उतना ही कम है। उसने प्रयत्न करके वनों के सम्राट सिंह और मन्त्री हाथी को ही अपने हाथों का खिलौना नहीं बनाया है वरन् देवताओं को भी अपना वशवर्ती और आज्ञाकार बना कर छोड़ा है। स्वयं भगवान तक को उसके वश में होने को विवश होना पड़ा है। भक्त के वश में भगवान वैसे ही खेलता देखा गया है जैसे बालक गेंद से खेलते है।

इसी अन्त: चेतना का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण दिशा में विकास करने का नाम तपश्चर्या है। मनुष्य के शरीर में काम करने वाली क्षमताएँ तुच्छ हैं, उनके द्वारा उतना भी कार्य नहीं हो सकता जितना बैल, घोड़े आदि कर लेते हैं। फिर बुढ़ापा, बीमारी, चोट, दुर्घटना आदि के अवसर आ जाने पर तो वह भी समाप्त होकर शरीर को लुंज पुंज अपाहिज अवस्था में छोड़ सकती है। इसी प्रकार वह धन शक्ति जिसे आज महत्त्व दिया जाने लगा है। शरीर शक्ति से भी तुच्छ है। अग्नि प्रकोप, जल प्रवाह, चोरी, राज दण्ड, अपव्यय आदि में उसकी बड़ी मात्रा भी स्वल्प काल में नष्ट हो सकती है। भाषण, लेखन, शिल्प, कला कौशल एवं अन्य प्रकार के चातुर्य भी मस्तिष्कीय एवं स्नायविक शक्ति के आधार पर टिके होते हैं। इनमें गड़बड़ी पड़ जाने पर चतुर एवं प्रशंसित व्यक्ति भी अपना महत्त्व खो सकते हैं।

मानव शरीर में जो अनेकों बाह्य विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं उनके मूल में उसकी सूक्ष्म प्रतिभा ही काम करती है। यह आत्मबल की प्रतीक हैं। संकल्प बल इच्छा शक्ति, अन्तर्विद्युत इसी को कहते हैं। यह अन्तर्बल इतना कठिन है कि भारी से भारी कठिनाइयों से टक्कर लेकर असम्भव को सम्भव बना देता है। धैर्य, साहस, उत्साह, निष्ठा, तन्मयता, निर्भयता, आत्म-विश्वास, दृढ़ता इसी के प्रकट लक्षण हैं। यह तो हुई आत्मबल के सांसारिक उपयोग की बात। यदि सूक्ष्म जगत् में होने वाली इस आत्मबल की प्रतिक्रिया को देखा जाय तो लगता है कि ईश्वरीय विधान के बाद मनुष्य की अन्त: चेतना ही है जो प्रकृति के विभिन्न क्षेत्रों में अपना अधिकार जमाये और उसे इच्छानुसार चलाने में समर्थ है।

भारतीय इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ इन अध्यात्म विज्ञानी, तपस्वी महापुरुषों के चरित्रों से भरे हुए हैं जिन्होंने असम्भव को सम्भव कर दिखाया और प्रकृति के साधरण विषयों को ही उलट पुलट करके दिखा दिया। तप करके लोग ऐसी-ऐसी विचित्र शक्तियाँ, विचित्र वरदान, विचित्र पदार्थ प्राप्त करते थे जो साधारणत: देखने या सुनने में नहीं आती। शाप और वरदान के कारण ऐसे कार्य सम्पन्न होते थे जो साधारण जीवन में आश्चर्यजनक एवं असम्भव मालूम पड़ते थे। अष्ट सिद्धियों का वर्णन योग ग्रन्थों में मिलता है। पातञ्जलि योग दर्शन को विभिन्न साधनाओं के विभिन्न प्रतिफल बताये गये हैं। वे ऐसे हैं जो साधना और तपश्चर्या से विमुख व्यक्तियों को असत्य मालूम दे सकते हैं पर जिनके कारण अन्तर्बल को जाना और अभिवर्द्धन किया है वह भली प्रकार समझते हैं कि यह विभूतियाँ तो तुच्छ हैं, साधना के बल पर आत्मा को इतना महान् बनाया जा सकता है कि वह परमात्मा के समान बन जाय, परमात्मा सत्ता का साझीदार बनकर वही सब अधिकार प्राप्त कर लें जो स्वयं परमात्मा को प्राप्त हैं।

तप एक विशुद्ध विज्ञान है। जिस प्रकार रसायन विद्या, पशु विद्या, चिकित्सा विद्या, शिल्प शास्त्र, विद्युत विज्ञान, कृषि विद्या, संगीत शिक्षा आदि अनेकों स्थूल विद्याएँ इस संसार में विविध प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में काम कर रही उन प्रक्रियाओं पर नियन्त्रण प्राप्त करने में आत्मविद्या का उपयोग होता है। जिस प्रकार मस्तिष्क में जो करने का विचार आता है वही शरीर काम करने लगता है। उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में जो प्रक्रिया काम करती है वे ही कुछ समय उपरान्त घटनाओं के रूप में प्रकट हो जाती हैं।

जिस प्रकार विचारों पर नियन्त्रण करके हम अपने साधारण कर्मो को भलाई या बुराई की दिशा में मोड़ सकते हैं उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में काम कर रही प्रक्रियाओं को आत्मबल के आधार पर प्रभावित कर लिया जाय तो संसार में जैसे घटनाएँ घटित होने की तैयारी थी उसे रोका मोड़ा या बदला जा सकता है। प्राचीनकाल में जो भी लोग ऐसा करते भी रहे हैं। आज वैज्ञानिक बादलों पर बर्फ का चूरा छिड़क कर जहाँ चाहें वहाँ मन चाही वर्षा कराने में सफल हो गये हैं। आध्यात्म विज्ञान के वैज्ञानिक अपनी आत्म शक्ति को बरफ के चूरे से भी अनेकों गुना सूक्ष्म और सशक्त बना लेते हैं कि उसे विश्व की गतिविधियों को अनिष्ट की दिशा में जाने से रोककर मंगलमय परिस्थितियों की विश्वहितकारणी वर्षा करा सकें। विश्व की सार्वभौमिक परिस्थितियों को दुख दारिद्र की, रोग शोक की, भय कलह की परिस्थितियों से बहुत अंशों में बचा सकना और किन्हीं भयानक संकटों को अपने बढ़े हुए आत्मबल के द्वारा संतुलित करना योगियों की शक्ति के अन्तर्गत आ जाता है। वे ऐसा करते भी हैं। कई बार व्यक्तिगत रूप से भी कुछ सत्पात्रों को आवश्यक सहायता प्रदान करते हैं जिससे कि तात्कालिक कठिनाइयों से छुटकारा पाकर धर्म सेवा के कार्यों में अधिक प्रगति कर सकें।

तपस्वी लोगों के बारे में यह सोचना उचित नहीं कि वे केवल अपने ही लाभ के लिए इतने कष्ट उठाकर तप करते हैं। अपना निज का स्वार्थ तो उनका इतना ही होता है कि अपने आत्मा को तप की अग्नि में तपाकर खरे सोने के समान निर्मल बनालें जिससे उसे परमात्मा का सजातीय बनने और उसमें मिल सकने योग्य करना संभव हो सकें। जिस प्रकार के ऊपर चढ़ी राख के कारण उसका रंग काला और प्रकाश और का अभाव दीखता है उसी प्रकार आत्मा पर भी पाप तापों का आवरण चढ़ा होने से वह अल्पज्ञ एवं दीन-हीन स्थिति में पड़े हुए साधारण जीवों जैसा दिखाई पड़ता है पर जब साधनात्मक प्रयत्नों द्वारा वह राख का परत हट जाता है तो अंगार अपनी प्रकाशवान् उष्णतायुक्त स्थिति को पुन: प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार ईश्वर का अविनाशी अंश आत्मा भी तप अग्नि में अपने को तपाकर निर्मल, निष्पाप एवं निराबरण बनकर ईश्वरीय दिव्य प्रभा से चमकने लगता है। साथ ही उसमें वे सब विशेषताएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं जो ईश्वरीय प्रकाश से परिपूर्ण आत्मा में होनी चाहिए।

परमार्थ और परोपकार के बड़े-बड़े आयोजनों द्वारा लोगों को जो कुछ लाभ पहुँचाया जाना संभव है उतना लाभ आत्म बल के धनी अपनी-अपनी आत्म शक्ति के थोड़े से छींटे छिड़क कर ही पहुँचा देते किसी पुण्य प्रारब्ध से हीन दीन दरिद्र व्यक्ति को कोई अन्न दान करने वाला दानी कुछ दिन तक पेट ही भरके रहने की व्यवस्था कर सकता है उसके प्रारब्ध जन्य दारिद्र को दूर नहीं कर सकता। पर कोई तपस्वी अपने तप का एक छोटा अंश उसे दे दे तो उतने मात्र पुण्य से वह उम्र भर धनी सम्पन्न लोगों जैसा उन्नत जीवन व्यतीत कर सकता है। वैसा उन्नत जैसा शायद उस अन्न दान करने वाले का स्वयं का भी न हो। औषधालय खोलने वाला व्यक्ति तात्कालिक उपचार भी कष्ट निवारण में अपने चिकित्सा कार्य द्वारा कुछ लाभ पहुँचा सकता है पर यदि दुष्कर्मों के फलस्वरूप उसके शरीर और मन अनेकों कष्ट कारक विकृतियाँ समय-समय पर फूटती रहती हैं तो उनका उपचार कोई चिकित्सक नहीं वरन् आत्मबल सम्पन्न तपस्वी ही कर सकता है। स्कूली शिक्षा की व्यवस्था करने वाले विद्या दानी किसी को उच्च पदवीधारी बनाकर रोजी रोटी कमाने लायक बना सकते हैं पर आत्मबल का कहीं से एक कण मिल जाने पर तो बाल्मीकि सरीखे डाकू भी बिना किसी कालेज में प्रवेश किए आदि कवि महर्षि बाल्मीकि बन सकते हैं।

श्रम, समय, धन और मस्तिष्क द्वारा किये जाने वालें परोपकार लोगों का कुछ भला तो कराते हैं पर वह थोड़ा सा, तात्कालिक और अस्थिर होता है। उनका स्वरूप प्रकट दिखाई देने के कारण संसार में उनकी प्रशंसा तो खूब होती है पर पुण्य उसी अनुपात से होता है जिस अनुपात से कि लोगों को साधारण या गम्भीर समस्याओं का समाधान उनके द्वारा संभव होता है। कीर्ति भी सत्कर्मों का एक़ फल ही है। साधारण पुण्यों का फल भी कीर्ति तक ही सीमित है। लोग अपने नाम का पत्थर लगा कर अपनी प्रशंसा छापे में छपा कर अपने दान की कीमत जीते जी ही वसूल कर लेते हैं। फिर परलोक में तो थोड़ी छूँछ मात्र ही मिलनी शेष रह जाती है। गत अंक में छपे पिछले लेख में अनेक पुण्य परमार्थों की चर्चा और प्रशंसा की गई है। स्वार्थ में दिन रात डूबे हुए केवल अपना ही घर भरने और मोज मजा करने की सुन में लगे हुए लोगों के द्वारा इतना होना भी अच्छा ही है। सारे की सारी शक्तियाँ वासना और तृष्णा में लगने की अपेक्षा यदि उनका कुछ समय, श्रम और धन किसी शुभ कार्य में- परमार्थ में लग जाना है तो उतने अंशों में तो उनका समय या धनु का सदुपयोग ही माना जा सकता है। ''न कुछ से कुछ अच्छा'' वाली कहावत के अनुसार जो भी कोई थोड़ा बहुत पुण्य परमार्थ करले वह अच्छा ही है। इस निमित्त से उसके मन पर जितने कुछ धर्म संस्कार जमते हैं वे आगे चलकर सन्मार्ग में सहायक ही होते हैं। इस दृष्टि से परमार्थ के प्रयत्न उचित और उत्तम ही हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी तुलना आत्म बल उपार्जन करके तप के प्रयत्नों से की जाने लगे। दोनों की स्थिति में उतना ही अन्तर है जितना चींटी और हाथी में होता है।

संसार में सबसे बड़ा धन तप का धन है। स्वास्थ्य बल, धन बल, बुद्धि बल, उसके आगे तुच्छ हैं। जिनके पास सोने का ढेर जमा है वह पचासों मनुष्यों की आवश्यकताएँ क्षणभर में पूरी कर सकता है पर जिस की पोटली में आधा सेर आटा ही है वह कितना तो दूसरों को देगा कितना अपने लिए रखेगा। उससे कितना अपना भला करेगा कितना दूसरो का ? संसार को सुखी बनाने और सुधारने के लिए संगठनात्मक, प्रचारात्मक और रचनात्मक अनेकों प्रयत्न किये जाते हैं, पर उन लोक सेवियों से समुचित आत्मबल आवश्यक तपोबल न होने से वे कार्य एक प्रदर्शक मात्र बनकर रह जाते हैं। दूसरों पर जैसा प्रभाव पड़ना चाहिए वैसा नहीं पड़ता। उनकी बातों को लोग सुन तो लेते हैं पर जीवन में ढालने को तैयार नहीं होते क्योंकि उन नेताओं और मार्ग दर्शकों के पास उस शक्ति का अभाव रहता है जो दूसरों के अन्तःकरण में गहराई तक प्रवेश करके उसमें प्रकाश एवं परिवर्तन उपस्थित कर सकता है। योगी लोग अपनी वाणी या प्रत्यक्ष क्रिया का उपयोग न करते हुए भी अपने आत्मबल का प्रवाह प्रसारित करके अनेकों व्यक्तियों में सन्मार्ग के प्रति वह उत्साह उमंग, आकांक्षा और तत्परता उत्पन्न कर सकते हैं जो अनेकों धुंआधार भाषाणों में सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार गम्भीरतापूर्वक देखा जाय तो योगी लोग उच्चकोटि के परमार्थी ही सिद्ध होते हैं। उनका तप अपने तक ही सीमित नहीं होता, उसका प्रसाद अगणित लोगों को मिलता है। जैसे फूल खिलता है तो उसकी शोभा और सुगन्ध दूर दूर तक के लोगों को प्रसन्नता प्रदान करती है उसी प्रकार तपस्वी के शरीर और आत्मा में से अहर्निशि प्रवाहित होते रहने वाले विद्युत प्रवाह से अगणित लोग अनायास ही लाभान्वित होते रहते हैं। सान्निध्य में तो चन्दन के वृक्ष के समान अपने समीपवर्ती लोगों को भी अपने ही जैसा सुगन्धित बना देने का भी अनुग्रह करते हैं।

शक्ति का उत्पादन में घर्षण की कष्ट साध्य प्रकृया आवश्यक है। पहलवानी करने वाले जानते है कि कुश्ती पछाड़ने लायक क्षमता उत्पन्न करने के लिए उन्हें कितने दण्ड बैठक लगाने होते हैं। चाकू की धार तेज करने के लिए उसे सानगर के पत्थर पर बार-बार अपने आपको इतना रगड़वाना पड़ता है कि रगड़ के समय चिनगारियाँ उड़ने लगती हैं। मिट्टी के बर्तन पकाते समय इतनी आग सहनी पड़ती है कि बेचारा लाल हो जाता है, उत्तीर्ण होने वाले छात्र जानते हैं कि परीक्षा के दिनों में उन पर क्या बीतती है। यह कष्ट सहिष्णुता ही शक्ति की जननी है। प्राचीन काल में व्यक्ति अपने बच्चों को ऋषियों के आश्रम में कष्ट सहिष्णु जीवन यापन करते हुए विद्याध्ययन के लिए भेजते थे ताकि वे तपस्वियों के सान्निध्य में आवे और पकने वाले बर्तनों की तरह मजबूत और टिकाऊ होकर निकलें। आज सर्वत्र विलासिता, फैशन परस्ती और नजाकत का बोलवाला है। फलस्वरूप हम दृष्टि से कच्चे और कमजोर होते चले जा रहे हैं।

साधनों के लिए कोलाहल और जन विक्षेप से दूर वातावरण की आवश्यकता होती है। वैज्ञानिक और अन्वेषण कार्य ही वातावरण में सम्भव होते हैं। नाना प्रकार के विक्षेपों, चिन्ताओं, समस्याओं और प्रतिक्रियाओं के बीच साधारण राम नाम तो लिया जा सकता है, काम चलाऊ पूजा पाठ भी हो सकता है पर वह एकाग्रता और तन्मयता जिसमें साधक सारी शक्तियाँ एक ही दिशा में एकाग्र और तन्मय होकर लक्ष्य बेध कर सकें एकान्त में ही सम्भव हैं। इस दृष्टि से यदि तपस्वी लोग एकान्त स्थान ढूँढ़ लें तो उसमें कुछ अनुचित नहीं है। आध्यात्म को लोक शिक्षण करने की बहुत बड़ी व्यवस्था करने वालों से भी अरविन्द को भी अपने लिए व्यक्तिगत रूप से तो एकान्त की ही सुविधा रखनी पड़ती थी। हमें स्वयं भी इस मार्ग का अनुसरण करना पड़ा है।




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