१- किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइये। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए चुनना चाहिए। इस प्रकार का एक स्थान घर का स्वच्छ हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ-मुँह धोकर साधना के लिए बैठना चाहिए। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है।
सुविधापूर्वक बैठ जाइये तीन लम्बे-लम्बे श्वाँस लीजिए। पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा श्वाँस कहलाता है। तीन पूरे श्वाँस लेने से हृदय और फुफ्फुस की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है। जै स्नान करने, हाथ पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है
तीन पूरे साँस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए और हर अंग में से खिंचकर प्राणशक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है, ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ, पाँव आदि सभी अंग प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव, निष्प्राण हो गये हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। ''मस्तिष्क से जब विचार- धारायें और कल्पनायें शान्त हो गयी हैं और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नीला आकाश व्याप्त हो रहा है।'' ऐसी शान्त, शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है।
शरीर भली प्रकार शिथिल हो जाने पर हृदय स्थान में एकत्रित अँगूठे के बराबर, शुभ् श्वेत ज्योति-स्वरूप,- प्राण शक्ति का ध्यान करना चाहिए। ''अजर, अमर, शुद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप यही है, मैं सत् चित्त आनन्द-स्वरूप आत्मा हूँ।'' उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते हुए उपरोक्त भावनायें मन में रखनी चाहिए।
२- उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन करने की साधना इस योग में प्रथक साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चाहिए। दूसरी भूमिका में साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है।
३- ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए। उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति-स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिये। ''मैं ही यह प्रकाशवान आत्मा हूँ''- ऐसा निश्चय संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पन्द अवस्था में पड़ा हुआ देखिये, उसके अंग-प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। यह हर एक कल पुर्जा मेरा औजार है, मेरा वस्त्र है। यह यन्त्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिये प्राप्त हुआ है। इस बात को बार-बार मन में दुहराइये। इस निस्पन्द शरीर में खोपड़ी का ढक्कन उठाकर ध्यानावस्था से मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिये। वे दोनों हाथ बाँधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। बस शरीर और मन बुद्धि को देखकर प्रसन्न हूजिए कि इच्छानुसार कार्य करने के लिये यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्म- स्वार्थ के लिए ही करूँगा, यह भावनायें बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूँजती रहनी चाहिए।
४- जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए।
अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिये ''मैं समस्त भूमण्डल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्म-क्षेत्र और लीलाभूमि है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को में इच्छित प्रयोजनों के लिये काम में लाता हूँ पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंचभूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं, मैं किसी भी सांसारिक हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूँ। मैं आत्मा हूँ महान् आत्मा हूँ। महान् परमात्मा का विशुद्ध स्फुर्लिंग हूँ। '' यह मन्त्र मन ही मन जपिये।
तीसरी भूमिका का ध्यान जब अभ्यास के कारण पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय और हर घडी़ वह भावना रोम-रोम में प्रतिभासित होने लगे तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्रान्त हो गई, यह जागृत समाधि या जीवन-मुक्त अवस्था कहलाती हैं।