गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

स्वर-संयम से दीर्घ जीवन

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प्रत्येक प्राणी का पूर्ण आयु प्राप्त करना दीर्घ जीवी  होना उसकी श्वाँस क्रिया पर अवलम्बित है। पूर्व कमी के  अनुसार जीवित रहने के लिए परमात्मा एक नियत संख्या  में श्वाँस प्रदान करता है, वह श्वाँस समाप्त होने पर  प्राणान्त हो जाता है। इस खजाने को जो प्राणी जितनी  होशियारी से खर्च करेगा, वह उतने ही अधिक काल तक  जीवित रह सकेगा और जो जितना व्यर्थ गँवायेगा उतनी  ही शीघ्र उसकी मृत्यु हो जायेगी। सामान्यतः हर एक  मनुष्य दिन रात में २१६०० श्वाँस लेता है। इससे कम  श्वाँस लेने वाला दीर्घजीवी होता है क्योंकि अपने धन का  जितना कम व्यय होगा, उतने ही अधिक काल तक वह  सञ्जित रहेगा। हमारे श्वाँस की पूँजी की भी यही दशा है  विश्व के समस्त प्राणियों में जो जीव जितनी कम श्वाँस  लेता है वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रहता है।  नीचे की तालिका से इसका स्पष्टीकरण हो जाता हैं।
नाम प्राणी       श्वास की गति प्रति मिनट     पूर्ण आयु
खरगोश               ३८ बार                       ८ वर्ष
बन्दर                  ३२ बार                       १० वर्ष
कुत्ता                 २९ बार                        ११ वर्ष
घोडा़                   १९ बार                       ३५ वर्ष
मनुष्य                 १३ बार                      १२० वर्ष
साँप                    ८ बार                       १००० वर्ष
कछुआ                  ५ बार                      २००० वर्ष
साधारण काम-काज करने में १२ बार, दौड़ धूप  करने में १८ बार और मैथुन करते समय २६ बार प्रति  मिनट के हिसाब से श्वाँस चलती है, इसलिए विषयी  और लम्पट मनुष्य की आयु घट जाती है और प्राणायाम  करने वाले योगाभ्यासी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं।  यहाँ यह न सोचना चाहिए कि चुपचाप बैठे रहने से कम  साँस चलती है इसलिए निष्क्रिय बैठे रहने से आयु बढ  जायेगी, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि निकम्मे बैठे रहने से  शरीर के अन्य अंग निर्बल, अशक्त और बीमार हो जायेंगे,  तदनुसार उनकी साँस का वेग बहुत ही बढ़ जायेगा।  इसलिए शारीरिक अंगों को स्वस्थ रखने के लिए परिश्रम  करना आवश्यक है। किन्तु शक्ति के बाहर परिश्रम भी  नहीं करना चाहिए।

साँस सदा पूरी और गहरी लेनी चाहिए तथा  झुककर कभी न बैठना चाहिए। नाभि तक पूरी साँस लेने  पर एक प्रकार से कुम्भक हो जाता है श्वाँसो की संख्या  कम हो जाती है। मेरुदण्ड के भीतर एक प्रकार का तरल  जीवन तत्व प्रवाहित होता रहता है जो सुषुम्ना  को बलवान् बनाये रखता है तदनुसार मस्तिष्क की  पुष्टि होती रहती है। यदि मेरुदण्ड को झुका हुआ रखा  जाय तो उस तरल तत्व का प्रवाह रुक जाता है और  निर्बल सुषुम्ना मस्तिष्क का पौषण करने से वञ्चित रह  जाती है।

सोते समय चित्त होकर लेटना चाहिए इससे  सुषुम्ना स्वर चलकर विघ्न पैदा होने की सम्भावना  रहती है। ऐसी दशा में अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई  पड़ते हैं। इसलिए भोजनोपरान्त प्रथम बाँये फिर दाहिने  करवट लेना चाहिए। भोजन के बाद कम से कम  १५ मिनट आराम किए बिना यात्रा करना भी उचित  नहीं है।

शीतलता से अग्नि मन्द पड़ जाती है और उष्णता से  तीव्र होती है। यह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता  है। सूर्य- स्वर में पाचन शक्ति की वृद्धि रहती है, अतएव  इसी स्वर में भोजन करना उत्तम है। इस नियम को सब  लोग जानते हैं कि भोजन उपरान्त बाँये करवट से लेटे  रहना चाहिए। उद्देश्य यही है कि बाँये करवट लेटने से  दक्षिण स्वर चलता रहता है,  जिससे पाचन-शक्ति प्रदीप्त होती है, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की गति-विधि पर ध्यान  रखने से वायु-तत्व पर अपना अधिकार होता है। वायु के  माध्यम से कितनी ही ऐसी बातें जानी जा सकती हैं जिन्हें  साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी को वर्षा से बहुत पहले  पता लग जाता है कि मेह बरसने वाला है तदनुसार वह  अपनी रक्षा का प्रबन्ध पहले से ही कर लेती है। कारण  यह है कि वायु के साथ वर्षा का सूक्ष्म संयोग मिला रहता  है, उसे मनुष्य समझ नहीं पाता, पर मकड़ी अपनी चेतना  से यह अनुभव कर लेती है कि इतने समय बाद इतने  वेग से पानी बरसने वाला है। मकड़ी में जैसी सूक्ष्म वायु  परीक्षण चेतना होती है उससे भी अधिक प्रबुद्ध चेतना  स्वर- योगी को मिल जाती है । वह वर्षा, गर्मी को ही नहीं  वरन् उससे भी सूक्ष्म बातें, भविष्य की सम्भावनायें,  दुर्घटनायें परिवर्तनशीलतायें, विलक्षणतायें अपनी दिव्य  दृष्टि से जान लेता है।

कई स्वर- ज्ञाता ज्योतिषियों की भाँति इस विद्या  द्वारा भविष्यवक्ताओं जैसा व्यवसाय करते हैं। स्वर के  आधार पर ही मूक प्रश्न, तेजी- मन्दी, खोई वस्तु का पता,  शुभ- अशुभ मुहूर्त आदि बातें बताते हैं। असफल होने की  आशंका वाले, दुस्साहसपूर्ण कार्य करने वाले लोग भी  स्वर का आश्रय लेकर अपना काम करते हैं। चोर, डाकू  आदि इस सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखते हैं, व्यापार,  राजद्वार, चिकित्सा आदि जोखिम और जिम्मेदारी के कामों  में भी स्वर विद्या के नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस  सम्बन्ध में अखण्ड-ज्योति पत्रिका में समय-समय पर  तद्विषयक जानकारी प्रकाशित होती रहती है। उस  सुविस्तृत ज्ञान का विवेचन यहाँ नहीं हो सकता। इस  समय तो हमें केवल यह विचार करना है कि स्वर  साधन से विज्ञानमय कोश की सुव्यवस्था में हमें किस  प्रकार सहायता मिल सकती है।


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