गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

आहार और उसकी शुद्धि

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अन्नमय कोश की स्थूल शरीर की शुद्धि के लिए अस्वाद व्रत का पालन करना पड़ता है। शरीर का निर्माण खाने से होता है। जो हम खाते हैं उसी से रक्त माँस आदि सात धातुएँ बनती हैं। यह प्रक्रिया यही तक समाप्त नहीं होती वरन् हमारे चेतना क्षेत्र तक चली जाती है। रस, रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि, मेद, वीर्य इस सात स्थूल धातुओं के बनने के बाद इसी संदर्भ में ओज नामक सूक्ष्म तत्व बनता है और उसके बाद उसी से मन बुद्धि, चित्त अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टव बनता है। इस प्रकार स्थूल शरीर की उन्नति अवनति ही नहीं सूक्ष्म शरीर की- अन्तर्जगत की स्थिति भी अन्न पर ही अवलम्बित रहती है। ''जैसा खाये अन्न वैसा बने मन'' वाली कहावत अक्षरश:सत्य है। अभक्ष खाने वालों की मनोभूमि कभी भी उच्चकोटि की नहीं बन सकती। शरीर और मन जिस वस्तु से बनता है वह अन्न यदि निकृष्ट श्रेणी का है उसमें निकृष्ट कोटि के संस्कार समन्वित हैं तो यह आशा नहीं की जा सकती है कि हमारी चेतना उत्कृष्ट कोटि की होगी।

इसीलिए साधना क्षेत्र में प्रवेश करते हुए आहार की शुद्धि पर अत्यधिक ध्यान देना पड़ता है। चौका चूल्हे की छूत की प्रथा आज भी अपने भोंडे़ रूप में प्रचलित है। उसका वर्तमान स्वरूप तो जाति-पाँंति पर आधारित होकर उपहासास्पद एवं रूढ़िमात्र हो रह गया है। कुसंस्कारी और सुसंस्कारी व्यक्ति तो हर जाति में हो सकते हैं। जिस आधार को लेकर वह प्रथा आरंभ हुई थी वह आधार अभी भी यथावत् बना हुआ है। भोजन निर्माण में सुसंस्कारी व्यक्तियों का ही हाथ होना चाहिए।

कुसंस्कारी व्यक्तियों के हाथ का बना हुआ भोजन अपने साथ कुसंस्कार ही धारण किये रहता है उसे खाने पर मन में कुसंस्कारी ही भावनाएँ पैदा होती हैं। कोढ़ी के पीव टपकते हाथों से बनाया हुआ भोजन करने में हमें घृणा होती है क्योंकि उसका पीव भोजन में मिलकर हमारे शरीर में जायेगा तो हमें भी रोगी बना देगा। ठीक यही बात कुसंस्कारी लोगों के ऊपर लागू होती है। उनके संस्कार भी निश्चित रूप से उनके द्वारा बनाये हुए भोजन में रहते हैं और वे हमारी बुद्धि में भी वैसे ही हलचल पैदा करते हैं जैसे कोढ़ी का पीव मिला हुआ आहार हमारे शरीर में विकार उत्पन्न करता है।

वासी, सड़े, बुसे, झूठे, गंदे भोजन से हमें घृणा उत्पन्न होती है। वह स्वादिष्ट या कीमती हो तो भी उसे त्याज्य माना जाता है। अरुचिकर ओर बुरे स्वाद का भोजन भी नहीं खाया जाता। यही दृष्टि कुछ गहराई तक उतरे तो कुसंस्कारी भोजन को भी त्यागना पड़ेगा। बाजारों में, होटलों में अच्छी प्लेटों में सजे हुए तरह-तरह के स्वाद वाले भोजन करते समय लोग प्रसन्न होते और गर्व करते हैं पर यह नहीं देखते कि इनके बनाने वाले कौन हैं ? कैसी उनकी मनोवृत्ति है। कैसे संस्कार उनके भीतर पड़े हैं ? यदि यह विचार नहीं किया गया है और केवल स्वाद एवं सजावट को ही पसंद कर लिया गया है तो यह एक भारी भूल है। मानसिक दृष्टि से अहित ही इससे होगा। ऐसा आहार खाने वाले के विचार आधोगामी ही होंगे। बेचारी थोड़ी सी साधना भी उस विकार का कहाँ तक शमन करेगी ?

आहार बनाने वाले के कुसंस्कार जैसे अन्न पर पड़ते हैं वैसे ही उसके उपार्जन की स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। चोरी, बेईमानी रिश्वत, छल, से कमाया हुआ पैसा जब खाया जाता है तो उस आहार पर भी उस उपार्जन की छाया रहती है। बिना मेहनत का, बाप दादों की कमाई का, कूपन से प्राप्त हुआ धन जब हमारे पेट में जाता है तो यह आशा नहीं करना चाहिए कि इसे खाने पर भी हमारी बुद्धि सात्विक रह सकेगी।    चटोरेपन के वशीभूत होकर गरिष्ट, कुपाच्य निर्जीव जीभ जलाने वाले, चटपटे पदार्थ पेट की सामर्थ्य से अधिक मात्रा में खाने पर हमारा स्वास्थ्य नष्ट होता है। पाचन क्रिया खराब होने से नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते है और वे अकाल मृत्यु का ग्रास बनाने के लिए हमें घसीट ले जाते हैं। इसी प्रकार यदि आहार कुछ अनीति कमाई का है अथवा कुसंस्कारी व्यवस्था के द्वारा उसे पकाने ओर परोसने की क्रिया सम्पन्न हुई होगी तो उसका दूषित प्रभाव भी हमारे मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट किये बिना न रहेगा।

अन्नमय कोश का अनावरण करने के लिए हमें इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करते रहना चाहिए। ठीक तो यह होगा कि सप्ताह में एक दिन अस्वाद व्रत करने का नियम अपनावें। प्रारम्भ में इतना भी कम नहीं है पर आगे और भी अधिक सोचने और करने की आवश्यकता अनुभव होगी। तब सात्विक और सुसंस्कारित रसोई के प्रश्न पर भी कड़ाई-से व्यवस्था बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा। आरम्भ में कुछ कठिनाई इसमें प्रतीत हो सकती है, पर अभ्यास और मनोबल की दृढ़ता से हर कठिन काम सरल हो सकता है। हर कठिनाई का रास्ता निकल सकता है।     प्राचीन काल में संत और सत्पुरुष अपना आहार आप उपजाते और अपने श्रम से उसे सींचते काटते थे। अन्न के उत्पादन काल में जैसे संस्कार उस पर डाले जाते हैं उसकी प्रकृति वैसी ही बन जाती है। यज्ञ कार्य में प्रयुक्त होने वाले अन्न तथा औषधियों को विशेष विधि विधान के साथ बोने, उगाने, सींचने, काटने एवं शोधने का विधान है ताकि वह संस्कारवान् द्रव्य पदार्थ अपनी क्रिया शक्ति से जन मानस में कल्याणकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकें और उस रहस्यमय आध्यात्मिक विशेषता से देवताओं को भी प्रसन्न एवं आकर्षित कर सकें। हमारा शरीर भी एक यज्ञ है। जठराग्नि ही यज्ञाग्नि है, भोजन ही आहुति है इसके लिए भी यदि अन्न का उपार्जन विशेष शुद्धतापूर्वक, गायत्री का मानसिक जप करते हुए किया जाय तो उसका प्रभाव और भी महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जिसके पास थोड़ी सी जमीन है वे साधक आसानी से अपने लिए ऐसा अन्न उत्पन्न कर सकते हैं। एवं दूध देने वाली गौओं की उचित सेवा तथा परिचर्या करके उन्हें भी संस्कारित किया जा सकता है। यदि ऐसा आहार किन्हीं को प्राप्त हो सके तो उस साधक की साधना बहुत ही तीव्रता से फलित होगी। आज की स्थिति में सब के लिए इस सीमा तक व्यवस्था कर सकना सम्भव नहीं है। पर जितना कुछ बन पड़े उतना अधिकाधिक सावधानी हमें इस दिशा में रखनी ही चाहिए। अस्वाद व्रत का साप्ताहिक व्रत लेने के बाद अब हमारी विचार धारा का प्रवाह इसी दिशा में चलना चाहिए।     आहार की शुद्धि अपने आप में एक साधना है। प्राचीनकाल में आत्मकल्याण पथ के श्रेयार्थी पथिक इस ओर पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। पीपल के फलों पर निर्वाह करने वाले 'पिप्पलादि ऋषि' ने अपनी साधना में आहार शुद्धि को प्रधान माध्यम बनाया था। राजा जनक अपने खेत में स्वयं हल जीतकर अपने भोजन के लायक अन्न स्वयं उपजाते थे। हल जोतते समय ही तो उन्हें सीताजी प्राप्त हुई थी।

यदि हम चाहते हैं कि मन कुमार्गगामी न हो, यत्र तत्र न भटके, साधना में लगे तो उसके मूल आधार को सुधारना पड़ेगा, आहार शुद्धि पर ध्यान देना पड़ेगा।
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