गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

विज्ञानमय कोश का केन्द्र संस्थान हृदयचक्र

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विज्ञानमयकोश आस्थाओं, आकांक्षाओं और संवेदनाओं  का केन्द्र माना गया है। व्यक्तित्व वहीं बढ़ता और ढलता  है। जीवन प्रवाह की दिशा धारा उसी उद्गम स्रोत से  निर्धारित, नियंत्रित होती है। अस्तु उत्कृष्टता के अनुपात  से उसे अन्नमय कोश से -प्राणमय कोश से- मनोमय कोश  से ऊपर स्थान दिया गया है। इस स्तर की साधना करने  से स्थूल और सूक्ष्म जगत पर समान रूप से अधिकार  मिलता है। भौतिक और आत्मिक सिद्धियों का दिव्य  संस्थान इस विज्ञानमय कोश को ही माना गया है।

अन्य कोशों की तरह विज्ञानमय कोश की सत्ता  भी समूचे कार्य कलेवर में संव्याप्त है। किन्तु उसका  प्रवेश द्वार हृदय संस्थान माना गया है। इसी को ब्रह्मचक्र  कहते हैं।

थोड़ी गहराई से देखने पर शरीर विज्ञान के  अनुसार भी हृदय केन्द्र की महत्वपूर्ण स्थिति सिद्ध हो  जाती है। यह केन्द्र हृदय के दायें भाग में स्थित पेस मेकर  कहा जा सकता है। यह स्थूल हृदय के दायें भाग में  अवस्थित है। अत: वक्ष के मध्य में ही इसका स्थान आ  पड़ता है। पेस मेकर क्या है ? इसे समझने के लिए हृदय  की रचना तथा कार्य पद्धति पर थोड़ा सा ध्यान केन्द्रित  करना होगा।

मान्यता यह है कि रक्त संचार हृदय से होता है, और  उसके कारण शरीर का अस्तित्व बना रहता है। हृदय के  आकुञ्चन एवं प्रसारण की क्रिया के कारण उसके द्वारा सारे  शरीर में रक्त पम्प किया जाना सम्भव होता है। सामान्य  भाषा में इस क्रिया को हृदय की धड़कन कहते हैं। हृदय की  धड़कनों एवं रक्त को संचारित करते रहने के लिए २०  वाट विद्युत शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत  शक्ति हृदय में ही पैदा होती है, तथा यही हृदय की धड़कन  का कारण बनती है। विद्युत स्पन्दन (इलैक्ट्रिक इम्पल्स)  हृदय के जिस भाग से पैदा होता है वह हिस्सा ही हृदय का  मुख्य पेस मेकर कहलाता है।

पेस मेकर हृदय के दायें एवं ऊपरी प्रकोष्ठ के  मध्य में होता है। इसमें से जैसे ही विद्युत स्पन्दन पैदा  होता है उसे संचरित करने वाले विशेष तन्तु उसे हृदय में  संचरित करते हैं। पूरे हृदय में उस स्पन्दन को संचरित  होने में औसतन ०.८ सैकिंड का समय लगता है। इतने  ही समय में हृदय की एक धड़कन पूरी होती है। अस्तु  मनुष्य के जीवन का मुख्य आधार हृदय की धड़कन नहीं  उसे पैदा करने वाला यह विद्युत स्पन्दन कहा जा सकता  है। इसे ही कारण शरीर का अथवा विज्ञानमय कोश का  केन्द्र कहा जा सकता है। शास्त्रीय परिभाषाओं की अनेक  संगतियाँ इसके साथ बैठ जाती हैं।

कारण शरीर के केन्द्र के रूप में इसकी व्याख्या के  अन्तर्गत कहा गया है कि वह अंगुष्ठ मात्र आकार वाला  प्रकाशमान अंग है। इसी प्रकार विज्ञान मय कोश के  सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना से  जुड़ा है तथा उससे सीधा आदान-प्रदान करने में समर्थ  है। यह दोनों संगतियाँ भी इस केन्द्र के साथ ठीक बैठ  जाती हैं।

योगियों ने 'कारण शरीर' को हृदय स्थित  प्रकाशमान अंगुष्ठमात्र देह भी कहा है। स्वप्रकाशित वस्तु  में से प्रकाश तरंगे नियमित रूप से विकीरित होती रहती  हैं। प्रकाशमान का अर्थ यहाँ रोशनी देने वाला नहीं है।  कारण शरीर से 'जैवीय विद्युत स्पन्दन' पैदा होकर सारे  शरीर में जीवन संचार करते रहते हैं, यही उसके  प्रकाशमान कहलाने का कारण है। योगियों ने जीवन  स्पन्दनों के मुख्य कारण को जब अपनी योग दृष्टि से  खोजा होगा तो उन्हें मुख्य पेस मेकर के स्व स्पन्दित क्षेत्र  का बोध हुआ होगा। वैज्ञानिक मान्यतानुसार भी वह क्षेत्र  आकार में ५ मि. मी. � २० मि. मी. का है। इसे अंगूठे के  बराबर कहना सर्वथा उचित है। 'अंगुष्ठ मात्र' प्रकाशमान  शरीर की घोषणा योगियों ने इस स्वस्पन्दित क्षेत्र को  देखकर ही की होगी। यह केन्द्र किसी सूक्ष्म चेतना से संचालित है यह  तथ्य वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। पेस मेकर में विद्युत  स्पंदन कैसे, कहाँ से उत्पन्न होते हैं यह वैज्ञानिकों को  पता नहीं। इसे वे विश्व नियन्त्रक सत्ता के ही स्पन्दन  मानते हैं। पेस मेकर में विद्युत स्पन्दन जिन विशेष  तन्तुओं द्वारा हृदय में फैलते हैं वह प्रारम्भ में एक समूह  (बण्डल) के रूप में निकलते हैं। वैज्ञानिकों ने इस तन्तु  समूह का नाम 'बण्डल आफ हिज' रखा है। इसका अर्थ होता है 'उसके' तन्तु समूह। उल्लेखनीय यह है कि इस  नाम में 'हिज' (अँग्रजी में) जब 'हिज' कैपिटल अक्षरों से  लिखा जाय तो उसे ईश्वर के लिए किया गया सम्बोधन  माना जाता है। पेस मेकर के विद्युत स्पन्दन को लेकर  चलने वाले तन्तु समूह को ईश्वर के तन्तु समूह कहने  का सीधा अर्थ यही होता है कि इस केन्द्र को महत-  चेतना द्वारा संचालित स्वीकार कर लिया गया है।  यह विद्युत स्पन्दन पैदा करने वाली सत्ता, उस  स्थल को बनाने वाले स्थूल तन्तुओं से भिन्न है यह तथ्य  भी चिकित्सा विज्ञान के अन्तर्गत प्रमाणित हो जाता है।  यदि उस स्थल विशेष के तन्तुओं का यह सहज गुण होता  तो या तो स्पन्दन वहीं से ही पैदा होते अथवा एकदम  समाप्त हो जाते। लेकिन देखा यह जाता है कि कई बार  स्पन्दन पैदा होने का केन्द्र बदल जाता है। जब मुख्य  पेस मेकर के तन्तु पैदा करने में किसी कारण अक्षम हो  जाते हैं तो वह संचालक शक्ति उसी के सहयोगी  निकटतम तन्तु समूह के किसी भाग से उन स्पन्दनों का  संचरण करने लगती है। मुख्य पेस मेकर में व्यवधान आ  जाने पर उसके थोड़े नीचे अवस्थित सहायक पेस मेकर  अथवा ‘बण्डल आफ हिज' के किसी भाग से यह कार्य  लिया जाने लगता है। चिकित्सा शास्त्री इस प्रक्रिया को  ‘ट्रास्फर आफ पेस मेकर एक्टिविटी' ( पेस मेकर प्रक्रिया  का स्थानान्तरण) कहते हैं। इसे यों भी समझा जा सकता  है कि यदि किसी विद्युत मोटर का स्टार्टर खराब हो जाय  तो कुशल मिस्त्री उसे छोड़कर लाइन के तार मेन स्विच  से सीधे मोटर के तारों से जोड़ देता है। और भी मोटा  उदाहरण लिया जाय तो यदि साइकिल की सीट टूट जाय  तो कुशल चालक पीछे या आगे डन्डे पर बैठ कर भी  साइकिल को गतिशील बनाये रहता है। दोनों ही स्थितियों  में काम तो किसी प्रकार चलता रहता है किन्तु सन्तुलन  बिगड़ने का भय हमेशा बना रहता है। किसी भिन्न स्थान  से जब हृदय के स्पन्दन संचरित होने लगते हैं तो दिल  की गति में गड़बड़ी पैदा होने लगती है।

     चिकित्सा की दृष्टि से वह स्थिति क्या होती है यह  बात भिन्न है। परन्तु उपयुक्त दोनों तथ्यों से यह सिद्ध हो  जाता है कि हृदय में विद्युत स्पन्दन पैदा करने वाली  चेतनसत्ता उसके स्थूल घटकों से भिन्न है जो कुशल  आपरेटर की तरह उनका उपयोग करती रहती है।  उसके संकेत पर ही स्थूल शरीर के उपकरण जीर्ण शीर्ण  हो जाने पर भी हृदय स्पन्दित होता रहता है। दूसरी ओर  शरीर के सारे अवयव ठीक रहने पर भी जब वह  चेतना अपना कार्यालय समेट लेती है तो शरीर निष्प्राण  हो जाता है।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अदृश्य चेतना द्वारा  संचालित यह विद्युत स्पन्दन शरीर में रक्त परिभ्रमण  संस्थान से परे भी अस्तित्व रखते हैं। कहा गया है कि हृदय  विज्ञानमय कोश का केन्द्र तो है किन्तु उसकी सत्ता, उसका  अस्तित्व सारे शरीर में फैला है। पेस मेकर द्वारा संचारित  विद्युत स्पन्दन हृदय में धड़कन तो पैदा करता ही हैं किन्तु  उसके अस्तित्व के प्रमाण सारे शरीर में भी मिलते हैं। शरीर  रचना की दृष्टि से तो उस विद्युत स्पन्दन के संवाहक तन्तु  केवल हृदय में ही फैले हैं, उसके बाहर शरीर में वे नहीं है।  किन्तु हृदय रोगों का अंकन करने वाले यन्त्र ई.सी.जी.  पर कायिक विद्युत का जो बोल्टेज हृदय के आस-पास  अंकित होता है वही कंधों, हाथ की कलाइयों तथा पैर के  टखनों तक पर भी अकित होता है। स्पष्ट है कि हृदय केन्द्र  में उस महत सत्ता से सीधे संपर्क रखने की क्षमता तो है ही,  उससे प्राप्त संकेतो-स्पन्दनों को सारे शरीर में संचरित  करने की क्षमता तथा उसके लिए व्यवस्थित तन्त्र भी  अवश्य है।

यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि स्थूल विज्ञान के  आधारों पर यौगिक सूक्ष्म सिद्धान्तों की शत प्रतिशत  व्याख्या नहीं की जा सकती। चूँकि सूक्ष्म सीधा हमारे  पकड़ में नहीं आता इसलिए उसे स्थूल के माध्यम से  प्राथमिक स्तर पर समझने समझाने का प्रयास भर किया  जा सकता है। विज्ञानमय कोश की अतीन्द्रिय क्षमताओं  तथा इसके केन्द्र की अद्भुत महत्ता की झलकमात्र- स्थूल  विज्ञान के आधार पर पायी जा सकती है। चिकित्सा  विज्ञान ने तो केवल रोगों के कारण और निवारण का  लक्ष्य रखकर ही अध्ययन एवं शोध क्रम आगे बढ़ाया है,  फिर उसके आधार पर हृदय केन्द्र में विशिष्ट क्षमताओं  तथा उससे सम्बद्ध शरीर व्यापी एक तन्त्र का होना तो  सिद्ध हो ही जाता है ईश्वर प्रदत्त इस सुविधा का लाभ  कैसे उठाया जाय, इस क्षमता को किस सीमा तक बढ़ाया  जा सकता है। उसका परिमार्जन आदि कैसे किया जा सकता है, यह सब विषय अभी स्थूल विज्ञान के कार्य क्षेत्र  के बाहर हैं। योगियों ने इन प्रकरणों में पर्याप्त गहराई से खोज एवं उपलब्धियाँ की हैं। विज्ञानमय कोश को  अतिशय सक्रिय करने से लेकर समाधि स्थिति में उसे  एकदम शान्त बना देने तक की सफलताएँ वे पा सके हैं।  इस सफलता के साथ वे उपलब्धियाँ जुड़ी हुई हैं जिन्हें  साधना की सिद्धि के रूप में जाना जाता है।

हृदय चक्र को गुफा या गुहा कहा गया है। जिस  प्रकार योगीजन विशिष्ट साधनाओं के लिए गुफा में प्रवेश  करके सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार इस हृदय  गुफा में प्रवेश करके दिव्य उपलब्धियाँ प्राप्त की जाती हैं।  बोलचाल की भाषा में हृदय शब्द का उपयोग संवेदनाओं  के लिए किया जाता है। सहृदय का अर्थ कोमल भावनाओं  वाला। हृदयहीन अर्थ निष्ठुर। यह रक्त फेंकने वाली  थैली के गुण नहीं वरन् उस सचेतन हृदय तत्व के गुण  हैं जिसे अध्यात्म की भाषा में हृदय चक्र, ब्रह्म चक्र कहा  जाता है। यह विज्ञानमय कोश का प्रवेश दार है। इसी  केन्द्र को ध्यान धारणा के सहारे जागृत करके अति मानस  जगाया जाता है। अतीन्द्रिय क्षमता की दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त  करने के लिए साधना की आधारशिला यही है।  अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा का केन्द्र संस्थान भी यही  माना गया है। दिव्य प्रेरणाएँ हृदय देश से ही उभरती हैं।  ईश्वरीय सन्देश वहीं मिलते हैं और वहीं से अविज्ञात  प्रकृति रहस्यों की जानकारियाँ हस्तगत होती हैं। जिन  वैज्ञानिकों ने अद्भुत आविष्कार किये हैं उनसे पूछा गया  कि ऐसा अनोखा विचार आपको कैसे हस्तगत हुआ तो  उनमें से प्रत्येक ने यही कहा कि "यह भीतर से उभरा।"  भीतर के शब्द से उनका तात्पर्य मस्तिष्क से नहीं, वरन्  अन्तराल में उभरने से है।

यही वह क्षेत्र है, जहाँ अतीन्द्रिय शक्तियों का भण्डार  है। बुद्धि क्षेत्र से बाहर की कितनी ही बातें कभी-कभी  ऐसी सूझ पड़ती हैं जो विलक्षण प्रतीत होती हैं। पर परीक्षा  की कसौटी पर वे सही उतरती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का  क्षेत्र यही माना गया है। जिस किसी का विज्ञानमय कोश  जाग पड़ता है उसे अविज्ञात भी-भूत और भविष्य भी इसी  प्रकार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है मानो उसकी प्रत्यक्ष  जानकारी उन्हें पहले से ही हो रही है।

मनोविज्ञानी जिसे "सुपर चेतन" कहते हैं और  जिसकी संगति अलौकिक आभासों के साथ जोड़ते हैं, वह  मस्तिष्क का नहीं वरन् विज्ञानमय कोश का क्षेत्र है।  मानसिक संरचना में चेतन और अचेतन के दो ही पक्ष  हैं। मस्तिष्कीय संरचना का दो भागों में ही विभाजन हुआ  है। अस्तु उसका कार्यक्षेत्र ज्ञानवान सचेतन और  स्वसंचालित अचेतन के साथ ही जुड़ता है। जिसे अविज्ञात  कहा गया है, जिसे सुपर चेतन भी कहते हैं, वह वस्तुत:  विज्ञानमय कोश ही है।

इसे किन्हीं ग्रन्थों में सूर्य चक्र भी कहा गया है।  जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश उदय होने पर अन्धकार  तिरोहित हो जाता है और प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष दीख पड़ती  है। उसी प्रकार विज्ञानमय कोश में प्रकाशित दिव्य ज्योति  की छत्र छाया में व्यक्ति अपना स्वरूप लक्ष्य और कर्तव्य  भी देख सकता है। उसे अपने सुसंस्कार और कुसंस्कार  भी दीख पड़ते हैं। जबकि साधारण लोग इस सम्बन्ध में  भ्रम भरी स्थिति में ही रहते हैं, उन्हें अपने में केवल गुण  ही गुण दीख पड़ते हैं। दोषारोपण वे दूसरों पर करते रहते  हैं। पर इससे किसी समस्या का समाधान नहीं होता।  जिन दोषों को अपने भीतर ढूँढ़ना और सुधारना चाहिए  उन्हें यदि दूसरों से दोषी कराने के आत्म प्रवंचना की  जायेगी तो समाधान किस प्रकार बन पड़ेगा ? विग्रह खड़ा  होगा और गुत्थी उलझेगी।

आत्म-सत्ता में समाहित यथार्थता को यदि जाना जा  सके तो व्यक्ति आत्म-कल्याण का मार्ग भी सरलता पूर्वक  जान सकता है। अन्यथा भटकाव की स्थिति में हाथ  कुछ नहीं लगता और खीज, थकान एवं निराशा ही पल्ले  पड़ती हैं।

आत्मा को परमात्मा से मिलने की इच्छा रहती है।  इस विलगाव के कारण ही सर्वदा असन्तोष छाया रहता  है और समाधान ढँढूने के लिए जिस-तिस वस्तु को  निरखा, परखा जाता है, किन्तु निर्जीव जड़ पदार्थों में वह  साधन कहाँ मिले जो चेतन स्तर का हो। व्यक्तियों का  परिचय भी शरीर रूप में हो पाता है। वे कभी रुष्ट या  पृथक भी हो सकते हैं, होते रहते हैं। ऐसी दशा में  आन्तरिक शान्ति हस्तगत नहीं हो पाती और न जिनकी  तलाश है, वह परमात्मा ही मिल पाता है।

तत्वदर्शियों ने इस समस्या को सुलझाया है और  कहा है कि ईश्वर सर्वव्यापी होते हुए भी उसे ऐसे स्थान  पर नहीं पाया जा सकता जहाँ मिलना सम्भव हो सके।  ऐसा स्थान केवल अपना हृदय है। यही विज्ञानमय कोश  है। कस्तूरी की तरह यह मृग की नाभि में ही सुगन्ध के  भण्डार रूप में होता है पर वह उसे जहाँ-तहाँ ढूँढता  फिरता है। इस भ्रम का निवारण शास्त्रकारों ने इस  प्रकार किया है।

योगवाशिष्ठ का कथन है-  
संत्यज्य हृदर्गुहशानं देवमन्यं प्रयान्तिये।
  ते रत्नमभिवाँछन्ति त्यक्त हस्तस्थ कौस्तुभा।।
अर्थात- जो हृदय रूपी गुफा में निवास करने वाले  भगवान को छोड़कर अन्यत्र ढूँढ़ता फिरता है वह हाथ की  कौस्तुभमणि छोड़कर काँच ढूँढ़ते फिरने वाले मूर्ख के  समान है।

              सूक्ष्मातिसूक्ष्म कलिकस्यमध्ये विश्वस्य स्रष्टा  रमनेकरूपम्।  
               विश्वस्यैक परिवेष्टितारं ज्ञात्वाशिवं शान्ति  मत्यन्तमेति ।                                                                             -श्वेताम्श्रतरोपनिषद्
जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हृदय गुहा रूप गुह्य  स्थान के भीतर स्थित सम्पूर्ण विश्व की रचना करने  वाला, अनेक रूप धारण करने वाला तथा समस्त जगत  को सब ओर से घेरे रखने वाला है,उस एक अद्वितीय  करुणास्वरूप महेश्वर को जानकर मनुष्य सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त होता है।

             ऐष देवो विश्वकर्म्मा महात्मा  सदा जनाना हृदये सन्निविष्ट:।  
              हृदा मनीषा मनसाभिल्कृप्तो  य एतहिदुरमृतास्ते भवन्ति।                                                                                  -श्रैताश्रतर ४ १७
यह देवता विश्व के बनाने वाले और महात्मा हैं,  सदा लोगों के हृदय में सन्निविष्ट हैं। हृदय, बुद्धि, और  मन के द्वारा पहिचाने जाते हैं जो इसे जानते हैं वे अमृत  होते हैं।

            सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमेन्।
                सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्रितेति।                                                                                               -तैत्ररीय
जो हृदय गुहा में अवस्थित, ज्ञानस्वरूप व्यापक  परमेश्वर को जानता है वह ब्रह्म के साथ ही सब भोगों का  उपभोग करता है।
                       निहितं गुहायाममृतं विभ्राजमानमानन्दं तं  
                        पश्यन्ति विद्वांसस्तेन लयेन पश्यन्ति।                                                                                       -सुवालोपनिषद
परब्रह्म हृदय रूपी गुफा में रहने वाला है, वह  अविनाशी और प्रकाश स्वरूप है 'ज्ञानी' उसे 'आनन्द रूप' में अनुभव करते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं।

                     पुरुष एवेदं विश्व कर्म तपो ब्रह्म परामृतम् ।  
             एतद्यो वेद निहितं गुहायां सोऽविद्याग्रन्थि विकिरतीह  सोम्य।                                                                              -मुण्डकोपनिषद्            
महर्षि अंगिरा ने कहा कि हे प्यारे शौनक! क्रिया,  ज्ञान और नित्य वेद तथा सारा जगत् उसी परब्रह्म के  आधार से ठहरा हुआ है। बस जो मनुष्य उस ब्रह्म को  अपनी हृदय-रूपी गुहा में स्थित जानता है वह अज्ञान की  गाँठ को काट देता है, अर्थात् मुक्त हो जाता है।

                         न पाताल न च विवरं गिरीणां  
                       नैवान्धकारं कुक्षयो नोदधीनाम्।  
                       गुहा यस्यां निहितं ब्रह्म शाश्वतं  
                     बुद्धिवृत्तिमविशिष्टां कवयो वेदयन्ते।                                                                                         -व्यास भाष्य
जिस गुफा में ब्रह्म का निवास है वह न तो पाताल  है, न पर्वतों की कन्दरा, न अन्धकार है, न समुद्र की  खाड़ी। चेतन से अभिन्न जो चित्त वृत्ति है, ज्ञानवान लोग  उसे ही 'ब्रह्म गुहा' कहते हैं।

                 ईश्वर: सर्व भूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।  
                 भ्रामयन सर्वभूतानि यन्त्रारूढा़नि मायया ।  
                   तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारत।  
          तत्प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।                                     
-गीता १८।६१,६२

ईश्वर सब  प्राणियों के हृद  देश में रहता है। वह  अपने कौशल से सब प्राणियों को चलाता है। सर्व प्रकार  से उसी की उपासना करो। उसकी कृपा से परम शान्ति,  परम पद मिलता है।

हृदय चक्र की उपमा कमल पुष्प से दी गई है। इसे  हृदय कमल भी कहते हैं। कमल का तात्पर्य यहाँ आकृति  से कम और संवेदना से अधिक है। कमल- कोमलता का,  सौन्दर्य का, सुगन्ध का सात्विकता का प्रतीक है। उसे  पुष्पों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अस्तु चक्र को कमल की  संज्ञा दी गई है।  
  आवि: संनिहितं गुहाचरन्नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्।                                
                                                    -मुण्डकोपनिषद्           
वह ज्ञानियों के हृदय रूपी गुफा में प्रकट है, सदा  सब के समीप रहता है, ज्ञानियों की बुद्धि में वर्तमान  रहता है, वह सबसे बड़ा परम धाम है।

                  हृदिस्था देवता: सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिता:।
                 हृदि ज्योतीषि भूयश्र्  हृदि सर्व प्रतिष्ठितम् ।                                                                                          -शंख संहिता
हृदय में सब देवताओं का, सब प्राणों का निवास  है। हृदय में ही परम ज्योति है। सब कुछ उसी में  विद्यमान है।

                      यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।  
                       अथ मर्त्योऽमृतो भवात्यत्र ब्रह्म समश्नुते ।                                                                                            -कठोपनिषद्          
जब मनुष्य के हृदय में सारी कल्पनाऐं नष्ट हो  जाती हैं तब यह मरणधर्मा मनुष्य मुक्त हो जाता है और  मुक्ति दशा में ब्रह्म को प्राप्त करता है।

            दूरांत्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यस्थ्यिहैव निहितं गुहायाम्।                                                                                   -मुण्डकोपनिषद्          
वह दूर से भी दूर है तो भी वह बहुत पास  है, ज्ञानी योगियों के लिए वह यही हृदय गुफा में  विराजमान है।

                   अंगुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।  
              ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सत एतद्वै तत ।                                                                                        -कठोपनिषद्         
वह सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा शरीर के हृदय स्थान  में भी जहाँ अगुष्ठमात्र स्थान में लिंग शरीर सहित आत्मा  रहता है। योगी जन उसकी प्राप्ति के लिए इसी स्थान पर  ध्यान लगाते हैं। वह ईश्वर भूत और भविष्य सबका  स्वामी है, जो मनुष्य उसको वहा जान लेता है वह फिर  ग्लानि को प्राप्त नहीं होता।

            हृत्पभ्दकर्णिकामध्ये स्थिरदीपनिभाकृतिम्।  
            अंगुष्ठमात्र मचलं ध्यायेदोंकारमीश्वरम् ।                                   
                                                  -विन्दूपनिषद्
अर्थात् 'हृदयकमल की कणिका में जो स्थिर  दीप-शिखा के समान ज्योर्तिमान अंगुष्ठमात्र आकार वाला  ओंकार रूप ईश्वर है, उसका ध्यान करें।

हृदय चक्र में ध्यान करते समय अंगुष्ठ आकार की  प्रकाश ज्योति का दर्शन साधकों को होता है। दीप शिखा  जैसी जलती प्रतीत होती है। इस दिव्य दर्शन को आत्म  साक्षात्कार एवं ब्रह्म दर्शन का प्रतीक माना गया है। चक्रों  की स्थिति सामान्यतया नदी में पड़ने वाले भँवरों की तरह  है। ग्रीष्म में उठने वाले भँवरों-चक्रवातों के  समतुल्य भी उन्हें माना जाता है।  इस स्थिति को कमल  पुष्पवत् चित्रित करने में भी कोई विसंगति नहीं है।  विज्ञानमय कोश के आधार केन्द्र ब्रह्म चक्र-हृदय चक्र के  सम्बन्ध में साधना शास्त्र में कहीं कमल पुष्प तुल्य और  कहीं अंगुष्ठ आकार की प्रकाश ज्योति के सूक्ष्म दर्शन का  उल्लेख है। कहा गया है-  
                       अंगुष्ठमात्र पुरुषो ज्योतिरिवाघूमक:।  
                ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य उश्व: एतद्वै तत्।                                                                                            -कठोपनिषद्
हृदय स्थान में विशेष रूप से जानने के योग्य वह  व्यापक आत्मा धूम रहित प्रकाश के समान निर्मल हैं।  वही भूत, भाविष्यत् का स्वामी है, वही आज मालिक है वही  कल रहेगा, यही वह ब्रह्म है जिसकी जिज्ञासा तूने की थी।

                      विश्वरूपस्यदेवस् रूप यत्किचिदेव हि।  
                    स्थवीय: सूक्ष्ममन्यद्बा पश्यन्हृद्यपंकजे॥
                    ध्यायतो योगिनो यस्तु साक्षादेव प्रकाशते।                        
                                                           -शिवस्वरोदय
विश्वरूप देव का जो कुछ भी सूक्ष्म रूप मान कर  अपने हृदय कमल में ध्यान करने वाला, साधक उन्हीं  देव स्वरूप जैसा दिखाई पड़ता है।

              हृत्पुंडरीकमध्ये तु भावयेत परमेश्वरम्।  
             साक्षिणं बुद्धिनृत्तस्य परम प्रेय गोचरम्।                                    
                                                        -मैत्रैयुपनिषद
हृदय कमल पर विराजमान परमेश्वर को साक्षी  बुद्धि के सहारे भाव पूर्वक ध्यान धारणा करें।   

           अंगुष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये  सन्निविष्ट:।
               त स्वच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जदिवेषींका धैर्येण।  
               सं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छक्रममृतमिति।                                                                                          -श्वेताश्ररोपनिषद्         
 हृदय के अंगुष्ठ मात्र स्थानों में रहने वाला  जीवात्मा है। योगी को चाहिए कि प्रयाण काल में धैर्य के  साथ उसे अपने शरीर से ऐसे निकाले जैसे मूँज के पूले  मे से सींक खींची जाती है। उस आत्मा को शुद्ध पवित्र  और अमृत जाने।

                तस्ये मध्य महानर्चिर्विश्वर्चिर्विश्वतोमुखम्।  
             तस्य मध्ये वह्नि शिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता  
            तस्या: शिखाया मध्ये पुरुष: परमात्मा व्यवस्थित:  
             स ब्रह्मा स ईशान: सेन्द्र: सोऽक्षर: परम: स्वराट।                                                                                  -महोपनिषद १। १३, १४
उस हृदय के मध्य में ही एक ज्वाला प्रदीप्त है।  वही ज्वाला दीप शिखा के समान दसों दिशाओं में प्रकाश  को बाँट कर विश्व को प्रकाशित करती है। उसी ज्वाला  के मध्य में कुछ ऊपर उठी हुई एक क्षीण वह्नि शिखा  है। उसी कक्षा में परमात्मा निवास करते हैं। वही  परमात्मा ब्रह्मा, ईशान, इन्द्र है तथा वे अविनाशी एवम्  परम स्वराट हैं।

                 अंगुष्ठ मात्र मात्मानमेघूम ज्योति रूपकम्।
               प्रकाशयन्तमन्तस्थ ध्यायेस्कूटस्थ भव्ययेम्।                                                                                        -योग कुण्डल्युपनिषद्
धूम्र रहित शुभ्र प्रकाश ज्योति अंगुष्ठ आकार की  हृदय में दीप्तिमान है। उसी का ध्यान करना चाहिए।
 
                           हृदयकुहरमध्ये केवल ब्रह्ममात्रं।
                       ह्यहंमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति ।  
                   हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा।  
                     पवन चलन रोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।                                                                                      -धीरमणगीता
''हृदय की गुफा के भीतर केवल मात्र ब्रह्म ही है,  जो 'अहम्' इस साक्षात् आत्म रूप से प्रकाशित होता है।  इस हृदय मे मन में प्रवेश करो, अपने आपको ढूँढ़ो या  गहरे में गोता लगाओ या प्राण निरोध करके आत्मा में  स्थित हो जाओ।''

                 यस्तु विज्ञानवान् भवति समनस्क सदाशुचिः।  
                  सतु तत्पदमाष्नोति यस्माद् भूयो न जायते ।                                                                                              -कठ  
विज्ञान साधना सम्पन्न सदा पवित्र रहता है। मनस्वी बनता है। उसे परम पद मिलता है। पुर्नजन्म  नहीं होता।

                    तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात्। अन्योऽन्तर आत्मा
                   विज्ञानमय:। तेनैष पूर्ण:। स वा एष पुरुष विध एव।                                                                                        -तैतरीयोपनिषद्

मनोमय कोश के पश्चात् विज्ञानमय कोश है।  उसी में पूर्ण पुरुष का निवास है।

                 स यो विज्ञान ब्रह्मेत्युपास्ते विज्ञानवतो वै स  
        लोकाञ्जानवतोऽभिसिद्धयति यावद्विज्ञानस्य गतं तत्रास्य
              यथा कामचारो भवति यो विज्ञान ब्रह्मेत्युपास्ते।                                                                                     -छान्दोग्योपनिषद
जो जन विज्ञानमय कोश को महान् जान कर  उपासना करता है, वह विज्ञान वाले और ज्ञान वाले  लोकों को सिद्ध कर लेता है।

हृदय चक्र के विकसित परिष्कृत होने का प्रत्यक्ष  प्रति फल सह्रयता संवर्धन के रूप में सामने आता है। यह  कोमलता दया करुणा, ममता, श्रद्धा, सद्भावना, उदारता  के रूप में उभरती और सम्पर्क क्षेत्र पर बरसती देखी जा  सकती है। इस अमृत वर्षा से शुष्क मरुस्थल हरे भरे  होते हैं। साथियों को स्नेह- सद्भाव और सहयोग का लाभ  मिलने से वे उच्चस्तरीय अनुदान पाने का आनन्द लेते  हैं और उस आधार पर अपनी सवंतोमुखी प्रगति का पथ  प्रशस्त करते हैं। यह सद्भाव सम्पदा बाँटने वाला स्वयं  अपने आप में उत्कृष्ट कलाकारिता का गर्व गौरव और  सन्तोष अनुभव करता है। सहृदयता को देवत्व का  पर्यायवाची ही मानना चाहिए। सज्जनता और शालीनता  इसी अन्तः स्थिति की परिचायक है। महामानवों में यही  विशेषता उभरी होती है।

हृदय की परिपुष्टि उच्चस्तरीय आदर्शों में अगाध  आस्था के रूप में दृष्टिगोचर होती है। क्षणिक उत्साही तो  पानी के बबूले की तरह कई ऊँची कल्पनाऐं करते हैं,  किन्तु अन्त: परिपक्वता के अभाव में झाग की तरह  उनके बैठ जाने में भी देर नहीं लगती। हृदय चक्र को  जागृत किया जा सके तो आदर्शवादी उमंगें चिरस्थायी बन  सकती हैं और उस प्रेरणा के सहारे उत्कर्ष के पथ पर  अनवरत गति से बढ़ते चलना सम्भव हो सकता है।  भगवान् हृदय में विराजते हैं। ''दिल के आईने में  है तस्वीरें यार'' के अनुसार हृदयवान व्यक्ति अपने ही  मन मन्दिर में हर घड़ी भगवान के दर्शन करते हैं और  उनके अजस्र अनुदान अपने ऊपर बरसने का अनुभव  करते आनन्द लेते हैं।


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