गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

प्राणमय-कोश की साधना

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'प्राण' शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रतीक है। मानव शरीर के बीच जो अन्तर पाया जाता है, वह बहुत साधारण है। एक मनुष्य जितना लम्बा-मोटा, भारी है दूसरा भी उससे थोड़ा-बहुत ही न्यूनाधिक होगा। परन्तु मनुष्य की सामाजिक शक्ति के बीच जो जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है, उसका कारण उसकी आन्तरिक शक्ति है।

विद्या, चतुराई, अनुभव, दूरदर्शिता, साहस, लगन, शौर्य, जीवनीशक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरुषार्थ, महानता आदि नामों से इस आन्तरिक शक्ति का परिचय मिलता है। आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राणशक्ति कहते हैं।

प्राण नेत्रों में होकर चमकता है, चेहरे पर बिखरता फिरता है, हाव-भाव में उसकी तरंगें बढ़ती हैं। प्राण की गन्ध में एक ऐसी विलक्षण मोहकता होती है, जो दूसरों को विभोर कर देती है। प्राणवान् स्त्री-पुरुष मन को ऐसे भाते हैं कि उन्हें छोड़ने को जी नही चहता।

प्राण वाणी में घुला रहता है। उसे सुनकर सुनने वालों की मानसिक दीवारें हिल जाती हैं। मौत के दाँत उखाड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जब मनुष्य चलता है तो उसकी प्राण शक्ति ही ढाल-तलवार होती है। चारों ओर निराशाजनक घनघोर अन्धकार छाया होने पर भी प्राणशक्ति आशा की प्रकाश रेखा बनकर चमकती है। बालू में तेल निकालने की, मरुभूमि में उपवन लगाने की, असम्भव को सम्भव बनाने की, राई को पर्वत करने की सामर्थ्य केवल प्राणवान में ही होती है। जिसमें स्वल्प प्राण हैं, उसे जीवित मृतक कहा जाता है। शरीर से हाथी के समान स्थूल होने पर भी उसे पराधीन परमुखापेक्षी ही रहना पड़ता है। वह अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों पर थोपकर किसी प्रकार मन को सन्तोष देता है। उज्जवल भविष्य की आशा के लिए वह अपनी सामर्थ्य पर विश्वास नहीं करता। किसी सबल व्यक्ति की, नेता की, अफसर की, धनी की, सिद्ध पुरुष की, देवी-देवताओं की सहायता ही उसकी आशाओं का केन्द्र होती है। ऐसे लोग सदा ही अपने दुर्भाग्य का रोना रोते हैं।

प्राण द्वारा ही यह श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है, जो भव-बन्धनों को काटकर आत्मा को परमात्मा से मिलाती है, मुक्ति को परम पुरुषार्थ माना गया है। संसार के अन्य सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिए जितने विवेक, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है, मुक्ति के लिए उससे कम नहीं वरन् अधिक की ही आवश्यकता है।

मुक्ति विजय का उपहार है, जिसे साहसी शूरवीर ही प्राप्त करते हैं। भगवान अपनी ओर से न किसी को देते हैं न मुक्ति। दूसरा न कोई स्वर्ग में ले जा सकता है न नरक में, हम स्वयं अपपनी आन्तरिक स्थिति के आधार पर जिस दिशा में चलें, उसी तथ्य पर जा पहुँचते हैं।

उपनिषद् का वचन हैं कि “नायमात्मा बल हीनने लभ्य” वह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होती। निस्तेज व्यक्ति अपने घरवालों पड़ौसियों, रिश्तेदारों, मित्रों को प्रभावित नहीं कर सकते तो भला परम-आत्मा (परमात्मा) पर उनका क्या प्रभाव पड़ेगा। तेजस्वी व्यक्ति ही आत्म-लाभ कर सकते हैं, इसलिए प्राण-संचय के लिए योग-शास्त्र में अत्यधिक बल दिया गया है। प्राणायाम की महिमा से सारा अध्यात्म-शास्त्र भरा पड़ा है।

जैसे सर्वत्र ईश्वर की महामहिमामयी गायत्री शक्ति व्याप्त है वैसे ही निखिल विश्व में प्राण का चैतन्य समुद्र भी भरा पड़ा है। जैसे श्रद्धा और साधना से गायत्री शक्ति को खींचकर अपने में धारण किया जाता है, वैसे ही अपने प्राणायाम कोश को सतेज और चेतन करके विश्वव्यापी प्राणी से यथेष्ट मात्रा में प्राण-तत्व खींचा जा सकता है। यह भण्डार जितना अधिक होगा, उतने ही हम प्राणवान् बनेंगे और उसी अनुपात से सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्तियाँ प्राप्त करने के अधिकारी हो जायेंगे।

दीर्घजीवन, उत्तम स्वास्थ्य, चैतन्यता, स्फूर्ति, उत्साह, क्रियाशीलता, कष्ट, सहिष्णुता, बुद्धि की सूक्ष्मता, सुन्दरता, मनमोहकता आदि विशेषताएँ प्राणशक्ति रूपी फुलझड़ी की छोटी-छोटी चिनगारियाँ हैं।

प्राणायाम-सांस को खींचने, उसे अन्दर रोके रखने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अन्दर भरा जाता है जैसे साइकिल के पम्प से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता है पर वापस नहीं खींचता। प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। साधारण श्वांस-प्रश्वांस क्रिया में वायु के साथ वह प्राण भी इसी प्रकार आता- जाता रहता है जैसे सड़क पर मुसाफिर चलते रहते हैं। किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वास-प्रश्वास किया होती है तो वायु में से प्राण खींचकर खासतौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्थापूर्वक टिकाया जाता है।

भारतीय योगशास्त्र षट्चक्रों में सूर्यचक्र को बहुत अधिक महत्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी सूर्य-ग्रन्थि को सूक्ष्म तन्तुओं का केन्द्र स्वीकार किया है और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है।

कुछ विद्वानों ने इसे पेट का मस्तिष्क नाम दिया है। यह सूर्यचक्र या सोलर प्लेक्सस आमाशय के ऊपर हृदय की धुक-धुकी के पीछे मेरुदण्ड के दोनों ओर स्थित है। यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गद्दी से बना हुआ है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आन्तरिक क्रिया-विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों की उन्नति अवनति का आधार यही केंन्द्र है। किन्तु सच बात यह है कि खोज अभी अपूर्ण है। सूर्य चक्र का कार्य और महत्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लगे तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है।

योगशास्त्र इस केन्द्र को प्राणकोश मानता है और कहता है कि वहीं से निकलकर एक प्रकार का मानवी विद्युत प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इस संस्थान में रहती है।

प्राणायाम द्वारा सूर्य-चक्र की एक प्रकार की हल्की-हल्की मालिश होती है और जिससे उसमें गर्मी, तेजी और उत्तेजना का संचार होता है। और उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुस्फुसों में वायु भरती है और वे फूलते हैं और यह फुलाव सूर्य-चक्र की परिधि को स्पर्श करता है।

बार-बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम-सेचन वाले अंगों में उत्तेजना उत्पन्न होती है, उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुस-फुस से सूर्य-चक्र का स्पर्श होना वहाँ एक सनसनी उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन् सम्बन्धित सारे अंगत्प्रत्यगों को जीवन और बल प्रदान करती है जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है।

मेरूदण्ड़ के दाहिने, बाएँ दोनों ओर नाड़ी-गुच्छकों की दो श्रृंखलायें चलती हैं। ये गुच्छक आपस में सम्बन्धित हैं और इन्हीं में सिर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गये हैं। अन्य अनेक नाड़ी तन्तुओं का भी वहाँ जमघट है। इनका प्रथम विभाग जिसे मस्तिष्क मेरु विभाग कहते हैं शरीर के ज्ञान-तन्तुओं से घनीभूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य ‘बहुत ही बारीक’ भूरे तन्तु निकलकर रुधिर नाड़ियों में फैल गये हैं और अपने अन्दर रहने वाली विद्युत शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं।

ऊपर बताया जा चुका है कि मेरुदण्ड के दाएँ-बाएँ नाड़ी गुच्छकों की दो पृथक श्रृंखलायें चलती हैं। इन्हीं को योग में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वास क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यो को सुसंचालित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाडी़ गुच्छकों के उपर प्रधान रूप है। प्राणायाम साधना में इन इड़ा-पिंगला नाड़ीयों को नियत विधि के अनुसार बलवान् बनाया जाता है, जिससे उनसे सम्बन्धित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आन्नदमयी स्वस्थता प्राप्त हो सके। अत्यन्त प्राचीनकाल से अध्यात्मवेदत्ता पुरुष प्रणायाम के महत्व और उसके लाभों को अनुभव करते रहे हैं। तदानुसार समस्त भू-मण्डल में योगी लोग अपनी विधि से इन क्रियाओं को करते रहते हैं। महापुरुष ईसामसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़कर ईश्वर प्रार्थना किया करते थे कहा जाता है कि इस ऊँची चढा़ई में आध्यात्मिक श्वास-क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था।

बौद्धधर्म में ‘जजन’ नामक प्राणायाम बहुत काल से चला आ रहा है प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेशी ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान में प्लेटो से भी बहुत पहले इस विज्ञान की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्न देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं।

योगदर्शन ‘साधना पाद’ के सूत्र ५२,५४ में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अन्धकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाऐं भी सुनी जाती हैं। कि प्राण को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें जीवित रह सकते हैं। प्राण शक्ति से अपने और दूसरों के रोगों को नष्ट करने का एक अलग विज्ञान है, अनेक प्रकार के प्राणायामों से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी- कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है।

इन पंक्तियों में उन अद्भूत और आश्चर्यजनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञान-सम्मत प्रभाव पड़ते हैं, जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी-संचालन, पाचन-क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, प्रगाढ़-निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता, प्रसन्नता, उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है।

आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिर दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ-साथ ही वृद्धि तो हो जाती है। इन लाभों पर विचार किया जाए तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की महत्वपूर्ण साधना है।

प्राण तत्व का वायु से विशेष सम्बन्ध है। पाश्चात्य वैज्ञानिक तो प्राण को वायु का ही एक सूक्ष्म भेद मानते हैं। साँस को ठीक तरह लेने न लेने पर प्राण की मात्रा का घटना-बढ़ना निर्भर रहता है। इसलिए कम से कम साँस लेने के सही तरीके से प्रत्येक बाल-वृद्ध को परिचित होना ही चाहिये।

हमें गहरी और पूरी साँस लेना चाहिये, जिससे वायु फेंफडे़ के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु-मन्दिरों में रक्त की सफाई कर सके। अघूरी और उथली साँस लेने से कुछ थोड़े से वायु-मन्दिरों की सफाई हो पाती है क्योंकि उथली साँस का दबाव इतना नहीं होता कि वह हर एक कोष्ठ में पहुँच सके। जब हवा वहाँ तक पहुँचेगी ही नहीं तो सफाई किस प्रकार होगी ? साँस का सम्पर्क होने पर रक्त की अशुद्धता ( कार्बोनिक एसिड गैस) बाहर निकलती जाती है और साँस का प्राण-ऑक्सीजन में घुल जाता है।

यह प्राण शक्ति उस रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग-प्रत्यंगों में पहुँचकर उन्हें ताजगी और स्कूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग ऑक्सीजन का होता है। यदि इसमें न्यूनता हो जाय तो उसका प्रभाव पाचन-क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मन्द होने लगती है।

इन सब क्रियाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि हमें पूरी गहरी साँस लेने की आवश्यकता है, जिनसे रक्त में पर्याप्त ऑक्सीजन मिल जाय, जिससे अंग-प्रत्यंगों में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुँचती रहे और पाचन-शक्ति में निर्बलता न आने पावे।

जठराग्नि मन्द होने से अन्य अंगों में शिथिलता आने लगती है और वे अपने को अधूरा एवं दोषपूर्ण बनाते हैं। यही क्रम यदि कुछ समय जारी रहे जीवन यात्रा में नाना प्रकार की विघ्न-बाधायें उपस्थित हो सकती हैं और विविध भाँति के रोगों का सामना करना पड़ता है।

अधूरी साँस लेने वाले के फेफडे़ का बहुत-सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती, उनमें गन्दगी, मकड़ी, मच्छर, छिपकली, कीड़े-मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है। इसी तरह फेफड़े के जिन वायु-कोष्ठों में साँस की वायु नहीं पहुँचती, उनमें क्षय खाँसी, जुकाम, उरक्षत, कफ, दमा आदि के रोग कीट जड़ जमा लेते हैं। धीरे-धीरे वहाँ से निर्बाध रीति से पलते रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असम्भव हो जाता है।

प्राणायाम विज्ञान का सबसे पहले और आरम्भिक पाठ यह है कि हमें पूरी तरह गहरी साँस लेनी चाहिये। ऐसी आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिये कि सदैव इस प्रकार साँस ली जाय कि वायु से पूरे फेफडे़ भर जाएँ। यह कार्य झटके से या उतावली में नहीं होना चाहिये। धीरे-धीरे इस प्रकार पूरी साँस खींचनी चाहिये कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाय और फिर उसी क्रम से धीरे-धीरे वायु को बाहर निकाल देना चाहिये।

यही रीति फेफडो़ं को स्वस्थ रखने वाली, रक्त को शुद्ध करने वाली शरीर के अंग-प्रत्यंग में चैतन्यता देने वाली, पाचन शक्ति ठीक बनाये रखने वाली है, इसलिए आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।

पूरी साँस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है, हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्तसंचार की क्रिया में चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों को श्वास-विज्ञान के इस तथ्य को गम्भीरतापूर्वक विचारना चाहिये और अविलम्ब पूरी एवं गहरी साँस लेने की आदत डालने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिये। कुछ दिन श्वास-क्रिया पर ध्यान रखने से भूल सुधारते रहने से यह आदत भली प्रकार पड़ जाती है।

प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा ‘नाक से साँस लेना’ है। यद्यपि मुँह से भी साँस ली जा सकती है, पर वह इतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जितनी कि नाक से लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली। डाक्टरों ने इनकी विशेष सावधानी से जाँच करते रहने का प्रयत्न किया। मृतकों के बारे में उनकी रिपोर्ट थी कि मुँह से साँस लेते थे। उस जहाज में एक भी ऐसा आदमी न मरा जिसे नाक से साँस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जाँच का यही निष्कर्ष है कि मुँह खोलकर साँस लेने से इसका प्रकोप विशेष रूप से होता है और भी अनेक छोटे-बड़े रोग इसी बुरी आदत के कारण होते देखे गये हैं।

नाक से फेफडो़ं तक जो हवा पहुँचाने वाली नली गई है, उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वह वायु को उचित रूप से संशोधन-परिमार्जन करके भीतर पहुँचावे। नासिका के छिद्रों में छोटे-छोटे बाल होते हैं। यह एक प्रकार की छलनी है जिसमें धूल व गन्दगी के अणु अटके रह जाते हैं और छनी हुई वायु भीतर जाती है। जब आप नासिका के छिद्रों में अँगुली डालकर उनकी सफाई करते हैं तो उनमें से कुछ मैल निकलता है। यह मैल वह कचरा है जो वायु के छनने से रहा हुआ है।

नासिका में एक प्रकार का तरल पदार्थ स्रवित होता रहता है, बालों में अटकने के सिवाय जो कचरा बचा रहता है, वह इस स्राव में चिपक जाता है। वायु का इतना संशोधन नासिका के छिद्रों में हो जाने के उपरान्त वह आगे चलती है। श्वास नली जो फेंफड़ों तक मस्तिष्क में होती हुई गई है, वह काफी लम्बी है। इतनी लम्बाई में यात्रा करती हुई वायु का तापमान सह्य हो जाता है। यदि ठण्डी हुई तो गरम हो जाती है। इस प्रकार फेंफ्तों तक पहुँचते-पहुँचते वह सब प्रकार सह्य संशोधित हो जाती है। किन्तु यदि मुँह से साँस लें तो परिणाम बिलकुल दूसरी ही प्रकार का हो जाता है।

मुँह में नासिका की तरह बाल नहीं होते जो वायु को छाने, दूसरे मुँह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमें वायु गर्द-गुबार बिना रुकावट के चल सकता है। तीसरे मुँह से फेफडो़ं की दूरी बहुत कम है, इसलिये वायु की सर्दी-गर्मी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता। इस प्रकार बिना छनी गर्द-गुबार युक्त सर्द-गर्म हवा मुँह के द्वारा जब फेफड़ों में पहुँचती है तो उन्हें हानि पहुँचाती है और बीमारियों की उत्पत्ति करती है। देखा गया है कि जो लोग रात में मुँह से साँस लेते हैं सबेरे उनका मुँह सूखा, कडुवा और बदबूदार होता है। रोगियों को यह लत हो तो उनके स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी लग जाती है।

प्राणायाम के अभ्यासियो को योगियों की यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से साँस लिया करें। यदि नासिका भाग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुँह से साँस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो नासिका रन्ध्रों की सफाई कर लेनी चाहिये।        संगीत से फेफड़े बहुत मजबूत होते हैं। गायन में जिन्हें रुचि होती है, उन्हें छाती सम्बन्धी रोग कम होते देखे गये हैं। अत्यधिक गाने से या अनुचित अवस्था में अविधिपूर्वक गाने से बीमारियाँ हो सकती हैं, परन्तु साधारणतः संगीत की गणना फेफड़ों को मजबूत बनाने वाले अध्यासों में है।

कण्ठ, हृदय, पसली आमाशय, आंत, यकृत आदि सभी का धड़ के अन्तर्गत रहने वाले अंगों का संगीत से अच्छा व्यायाम होता है। यदि अच्छे बाजे के साथ ध्यनिपूर्वक गाया बजाया जाये तो एक प्रक़ार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होकर स्नायु-तन्तुओं को तरंगित करती रहती हैं, जिससे श्वास-संचालन क्रिया में विशेष रूप से सहायता मिलती है और मन्द एवं शिथिल गति से कार्य करने वाले अंगों में गतिशीलता का आविर्भाव होता है। जिन्हें गाना-बजाना आता है, उन्हें भोजन के पश्चात कम से कम दो-तीन घण्टे बचाकर सुविधानुसार अभ्यास करना चाहिये। जो बजा न सकते हों उन्हें केवल गाना ही चाहिये। सुविधानुसार यदि वाद्य-गान सुनने का अवसर मिले तो उससे लाभ उठाना चाहिये, क्योंकि संगीत से उत्पन्न होने वाली लहरें सुनने वालों को भी प्रभावित करती हैं।

प्रातः-सायं गायन-वाद्य तथा नृत्य के साथ संकीर्तन करने की धार्मिक प्रथा का स्वास्थ्य से बड़ा घना सम्बन्ध है। संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों के गले फेफड़े का व्यायाम हो जाता है। जोर-जोर से धार्मिक भजन गाने या शंख बजाने से फेफडो़ं का व्यायाम होता है और बहुत अंशों में प्राणायाम का लाभ मिलता है।

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