गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

आनन्दमय कोश का अनावरण

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गायत्री का पाँचवाँ मुख आनन्दमय कोश है। जिस  आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनन्द मिलता है, जहाँ  उसे शान्ति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता  की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनन्दमय कोश है। गीता  के दूसरे अध्याय में ‘स्थित प्रज्ञ’ की जो परिभाषा की गई है  और ‘समाधिस्थ’ के जो लक्षण बताये गये हैं, वे ही गुण,  कर्म, स्वभाव आनन्दमयी स्थिति में हो जाते हैं। आत्मिक  परमार्थों की साधना में मनोयोग पूर्वक संलग्न होने के  कारण साँसारिक आवश्यकताएँ बहुत सीमित रह जाती हैं। उनकी पूर्ति में इसलिए बाधा नहीं आती कि साधक अपनी  शारीरिक और मानसिक स्वस्थता के द्वारा जीवनोपयोगी  वस्तुओं को उचित मात्रा में आसानी से कमा सकता है।

प्रकृति के परिवर्तन, विश्वव्यापी उतार- चढ़ाव, कर्मों  की गहन गति, प्रारब्ध भोग, वस्तुओं की नश्वरता, वैभव  की चञ्चल चपलता आदि कारणों से जो उलझन भरी  परिस्थितियाँ सामने आकर परेशान किया करती हैं, उन्हें  देखकर वह हँस देता है। सोचता है प्रभु ने इस संसार में  कैसी धूप- छाँव का, आँख मिचौनी का खेल खड़ा कर दिया  है। अभी खुशी तो अभी रञ्ज, अभी वैभव तो अभी  निर्धनता, अभी जवानी तो अभी बुढ़ापा, अभी जन्म तो अभी  मृत्यु, अभी नमकीन तो अभी मिठाई यह दुरंगी दुनिया कैसी  विलक्षण है। दिन निकलते देर नहीं हुई कि रात की तैयारी  होने लगी। रात को आये जरा- सी देर हुई कि नवप्रभाव का  आयोजन होने लगा। वह तो यहाँ का आदि खेल है, बादल  की छाया की तरह पल- पल में धूप- छाँव आती है। मैं इन  तितलियों के पीछे कहाँ दौडूँ। मैं इन क्षण- क्षण पर उठने  वाली लहरों को कहाँ तक गिनूँ पल में रोने पल में हँसने  की बाल क्रीड़ा मैं क्यों करूँ ?

आनन्दमय कोश में पहुँचा हुआ जीव अपने पिछले  चार शरीरों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय  कोश को भली प्रकार समझ लेता है, उनकी अपूर्णता और  संसार की परिवर्तनशीलता दोनों के मिलन में ही एक  विषैली गैस बन जाती है, जो जीवों को पाप-तापों के काले  धूँए से कलुषित कर देती है। यदि इन दोनों पक्षों के गुण  दोषों को समझकर उन्हें अलग-अलग रखा जाय, बारूद  और अग्नि को इकट्ठा न होने दिया जाय, तो विस्फोट  की कोई सम्भावना नहीं है। यह समझकर वह अपने  दृष्टिकोण में दार्शनिकता, सात्विकता, वास्तविकता,  सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है। तदनुसार उसे  सांसारिक समस्याएँ बहुत हल्की महत्त्वहीन मालूम पड़ती  हैं। जिन बातों को लेकर साधारण मनुष्य बेतरह दुःखी  रहते हैं, उन स्थितियों को वह हल्के विनोद की तरह  समझकर उपेक्षा में उड़ा देता है और आत्मिक भूमिका में  अपना दृढ़ स्थान बनाकर सन्तोष और शान्ति का  अनुभव करता है।

गीता के दूसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने  बताया है कि स्थित प्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की  आत्म-स्थिति में रमण करता है। सुख-दुख में समान  रहता है, न प्रिय से राग करता है, न अप्रिय से द्वेष  करता है। इन्द्रियों को इन्द्रियों तक ही सीमित रहने देता  है, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता और कछुआ  जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है,  वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में  न फैलाकर अपनी अन्तः भूमिका में ही समेट लेता है,  जिसकी मानसिक स्थिति ऐसी होती है, उसे योगी, ब्रह्मभूत  जीवन- मुक्त या समाधिस्थ कहते हैं।

आनन्दमय कोश जीवात्मा पर चढ़ा अन्तिम आवरण  है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय के उपरान्त  इसी एक की साधना करनी शेष रह जाती है। इस  आवरण के हटते ही आत्मा को परमात्मा रूप में परिष्कृत  होने का अवसर मिल जाता है। तब उसकी स्थिति वैसी  हो जाती है, जैसी कि वेदान्त में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘तत्व  मसि’ सोऽहमस्मि, सच्चिदानन्दोऽहम् शिवोऽहम् आदि  उद्घोषों के अन्तर्गत प्रतिपादित की गई है।

शिर विवर को दो दिव्य सत्ताओं का निवास-दुर्ग  माना गया है। उसका चेतन-अचेतन, मनःसंस्थान  मनोमय कोश कहलाता है। इसका सूत्र- संचालन भूमध्य भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र से होता है। दूसरा चेतना का सर्वोच्च आनन्दमय कोश है। मस्तिष्क में जानकारियों और आदतों का समन्वय है, इसलिए उसे इन्द्रिय वर्ग में गिना जाता है और भौतिक तत्वों से घिरा माना जाता है। तात्विक विवेचना में मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। इन्द्रियाँ अपने-अपने छोटे क्षेत्रों को सँभालती हैं। मन उन पर मानीटर जैसा अनुशासन बनाये रखने में सहायता करता है। यों है उसकी भी गणना छात्र वर्ग में ही। मनोमय कोश की साधना से इसी मस्तिष्कीय क्षमता की मनोविज्ञान और परा मनोविज्ञान क्षमताओं की चर्चा विवेचना होती है। आनन्दयमय कोश की स्थिति भिन्न है, उसमें जीव और ब्रह्म के मिलने का सम्पर्क साधने वाले अति उच्चस्तरीय सूत्र हैं। शरीर- क्षेत्र में ईश्वर का निवास कहाँ है ? इसका उत्तर साधारणतया समूची सत्ता में संव्याप्त कहा जा सकता है, पर यदि उसका अन्य कोशों जैसा प्रवेश द्वार या केन्द्र संस्थान पूछना हो तो उसे ब्रह्म रंध्र में अवस्थित सहस्रार चक्र कहना पड़ेगा।

ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। परमाणु के मध्य भाग को ‘नाभिक’ या ‘न्यूक्लियस’ कहते है। अणु सत्ता का उद्गम केन्द्र वही है। शेष भाग में तो उसका सहायक संरक्षक सरजाम भरा पड़ा है। जीवाणु से लेकर ग्रह- नक्षत्रों तक में यह न्यूक्लियस ही सार भाग और शक्ति स्रोत होता है। मस्तिष्कीय राष्ट्र की राजधानी इस मध्य केन्द्र ब्रह्मरंध्र में है। ब्रह्मसत्ता का अवतरण इसी स्थान पर होता है। वायुयान हवाई अड्डे पर ही उतरते हैं। मनःसंस्थान का सारा नियन्त्रण संचालन मस्तिष्कीय विद्युत के माध्यम से होता है। यह विद्युत संकेत नाड़ी संस्थान द्वारा विभिन्न अंगों तक भेजे जाते हैं। यह विलग- विलग केन्द्र भी परस्पर जुड़े हुए हैं। उनमें भी परस्पर आदान- प्रदान होता है। जैसे आँख के सामने स्वादिष्ट वस्तु आई तो आँख का नियन्त्रक केन्द्र तुरन्त जीभ के केन्द्र को सूचना दे देता है। और वह जीभ ‘लार’ प्रवाहित करने लगती है।

मस्तिष्कीय संचार-सूत्रों का भी एक मध्य केन्द्र है। वहीं से अगणित धारा प्रवाह उठते हैं और उनके द्वारा अनेक विद्युत उन्मेष सक्रिय होते देखे जाते हैं। उन्हीं के द्वारा विभिन्न महत्त्वपूर्ण मस्तिष्कीय केन्द्रों को उत्तेजना मिलती है। सक्रियता इसी उत्तेजना से उत्पन्न होती है।

यदि मस्तिष्क की इस प्रक्रिया को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो मस्तिष्क के मध्य भाग से सहस्रों विद्युत स्पन्दन सतत प्रस्फुटित होते दीख सकते हैं। इसी को आलंकारिक रूप से सहस्र धारों वाले चक्र अथवा सहस्र पंखुड़ियों वाले कमल के नाम से सम्बोन्धित किया जाता है।

स्थूल विज्ञान चूँकि स्थूल की सीमा में ही सारे हल खोजना चाहता है इसलिए उसकी गति यहाँ आकर रुक जाती है। मस्तिष्क के मध्य में यह विद्युत स्पन्दन कैसे उत्पन्न होते ? कैसे इन्हें बढ़ाया या नियन्त्रित किया जा सकता है, यह सब वर्तमान वैज्ञानिकों के लिए रहस्य ही है। फिर भी उन्होंने इस विद्युत उन्मेषों को ‘रैटिकुल एक्टिवेटिंग सिस्टम’ ‘स्पैसिफिक थैलैमिक प्रोजैक्शन सिस्टम’ डिफ्यूज थैलीमिक प्रोजैक्शन सिस्टम जैसे नाम दिये हैं। यह भी स्वीकार किया है, कि इन स्पन्दनों को इच्छानुकूल नियन्त्रित किया जा सके, तो उसके प्रभाव से मस्तिष्क के किसी भी नियन्त्रण केन्द्र को इच्छानुरूप सक्रियता अथवा शिथिलता की स्थिति में लाना तथा असम्भव जैसी उपलब्धियों को भी सम्भव बनाया जा सकता है।

योग-विज्ञान सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में विशिष्ट साधनाओं को आवश्यक मानता है। उसके जागरण का अर्थ केवल उसकी तीक्ष्णता तथा सक्रियता को बढ़ा देना नहीं है, उसे व्यवस्थित, सुनियन्त्रित तथा सुनियोजित भी करना आवश्यक है। वर्तमान वैज्ञानिक उसके विधेयात्मक पक्ष को भले ही न समझ सके हों, किन्तु निषेधात्मक पक्ष को अध्ययन रोगों के अन्तर्गत अवश्य कर सकें हैं। हिस्टीरिया तथा इपीलिप्सी जैसे विभिन्न प्रकार के रोगों की तह में मस्तिष्कीय विद्युत का ही खेल पाया जाता है। जब कोई भाग अस्वाभाविक अथवा अवांछनीय रूप से विद्युत स्पन्दन छोड़ने लगता है, तो वह किन्हीं केन्द्रों की स्वाभाविक संचार-व्यवस्था में व्यतिक्रम ला देता है। उसी के फलस्वरूप तरह-तरह के मानसिक तथा शारीरिक रोग पैदा हो जाते हैं। कहाँ क्या गड़बड़ी है ? इसका अन्दाज वैज्ञानिक लोग ई० सी० जी० नामक यन्त्र द्वारा विभिन्न स्थानों पर मिलने वाले विद्युतीय कंपनों को नाप कर ही लगाते हैं। इससे भी निषेधात्मक पक्ष में ही सही यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि इन विद्युतीय धाराओं द्वारा असाधारण शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करना-कराना सम्भव है।

मनःसंस्थान के केन्द्र- बिन्दु विद्युतीय भाण्डागार को अध्यात्म की भाषा में सहस्रार चक्र या सहस्र दल कमल कहा गया है। उस तक पहुँच मानसिक उपचारों की नहीं है, किन्तु योग विद्या के अन्तर्गत ध्यान- धारणा द्वारा उसे अभीष्ट दिशा में मोड़ा, सुधारा एवं अभ्यस्त किया जा सकता है। इस प्रकार व्यक्तित्व के सर्वोच्च शक्ति- केन्द्र पर अधिकार प्राप्त करके मनुष्य अभीष्ट आत्म-निर्माण में सफल हो सकता है। कहना न होगा कि यह आत्म-विजय अपने लिए तो विश्व विजय के समान ही लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

ब्रह्मरंध्र की रासायनिक संरचना को देखते हुए उसे कमल-पुष्प की आकृति से मिलता-जुलता देखा जाता है। शरीर शास्त्र के अनुसार भी उस स्थान पर एक अणु गुच्छक पाया जाता है। सूक्ष्म दृष्टि से, सूक्ष्म शरीर में उसकी स्थिति और भी अधिक स्पष्ट होती है। वहाँ कमल- पुष्प की आकृति में प्रायः हजार या हजारों पखुरियाँ बिखरी दीखतीं हैं, साथ ही प्रकाश-ज्योति का आभास भी होता है। इस स्थान में उठने वाली भाव-सम्वेदना को कमल-पुष्प और ज्ञान-प्रखरता को प्रकाश-ज्योति नाम दिया गया है। इस स्थिति का चित्रण कमल पुष्प के दीपक में जलने वाली प्रकाश-ज्योति के रूप में किया गया है। इस ब्राह्मी स्थिति की प्रतीक-प्रतिमा अखण्ड-ज्योति के रूप में की गई है। निरन्तर जलने वाला घृत-दीप इस ब्रह्मरंध्र का-ब्रह्मलोक का प्रतीक-प्रतिनिधि मानकर पूजा उपचार में प्रतिष्ठापित किया जाता है।

देव सम्प्रदायों ने इस केन्द्र का चित्रण अपने-अपने ढंग से किया है। विष्णु उपासकों की ब्रह्मलोक व्याख्या में विस्तृत क्षीर सागर-सहस्र फन वाले शेषनाग की शैया उस पर भगवान विष्णु को शयन का वर्णन है। क्षीर सागर मस्तिष्क गह्वर में विद्यमान मज्जा पदार्थ-ग्रेमैटर है। सहस्रार कमल सहस्रार चक्र है। उस पर अवस्थित ब्रह्म-चेतना भगवान विष्णु हैं। साधारणतया यह सारा क्षेत्र प्रसुप्त स्थिति में निष्क्रिय पड़ा रहता है, इसलिए विष्णु भगवान सोते हुए दर्शाय गये हैं। शिव-भक्तों ने इसी ब्रह्मरंह को शिवलोक कहा है। मानसरोवर मध्य में कैलाश, उस पर समाधिस्थ शिव-गले मे महा सर्प यह चित्रण में प्रकारान्तर से विष्णु व्याख्या के समतुल्य ही है। ग्रेमैटर, मानसरोवर, सहस्रार-कैलाश। प्रकाश ज्योति शिव। सिर पर चन्द्र प्रकाश किरणें। गले में सर्प- शेषनागवत्। शिव के मस्तिष्क में गंगा का उद्गम, ब्रह्मज्ञान का अवतरण। विष्णु के चरणों में से गंगा निकलती हैं शिव के मस्तक में से, दोनों ही स्थिति में उस केन्द्र को दिव्य ज्ञान का गोमुख कहा जा सकता है।

गुरु-भक्तों ने सहस्रार कमल पर गुरु तत्व की स्थापना करके अपनी ध्यान आवश्यकता के अनुरूप प्रतीक प्रतिष्ठा की है। शक्ति-उपासक इसी सहस्रार कमल को अपनी-अपनी इष्ट देवियों के साथ जोड़ते हैं। लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान हैं। ब्रह्माजी की भाँति ही गायत्री भी कमलासन पर विराजती हैं। सरस्वती, दुर्गा आदि अन्य देवियों में से किसी के हाथ में, किसी के गले में कमल पुष्प जोड़मे की चेष्टा की गई है।

सहस्रार चक्र कनपटियों की सीध में भू-मध्य भाग के पीछे मस्तिष्क के मध्य केन्द्रों में माना गया है। तन्त्र ग्रन्थों में इसे ‘महाविवर’ की संज्ञा दी गई है। यही लययोग का ब्रह्मरंध्र है। निराकार उपासना में इसे दशम द्वार माना गया है। नौ द्वार तो इन्द्रिय छिद्र है ही। उन्हें दो नथुने, दो कान, दो आँखें, एक मुख, दो मल-मूत्र छिद्र इस प्रकार उनकी गणना सर्वविदित है। दशवाँ द्वार यह ब्रह्मरंध्र है, इसी झरोखे में होकर आत्मा और परमात्मा की मिलन झाँकी, प्रणय-केलि एवं समर्पण पाणिग्रहण का सरस शृंगारिक वर्णन मिलता है। योगी लोग इसी केन्द्र में प्राण को अवस्थित करके ब्रह्माण्ड का विचरण एवं नियन्त्रण करने जैसी सफलताऐं प्राप्त करते हैं। शरीर त्याग के समय प्राण इस दशम द्वार से निकलें, तो प्राणी को पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त हुआ समझा जाता है।


सहस्रार की स्थिति का वर्णन अनेक ग्रन्थों में हुआ है। उनका स्वरूप और विवरण प्रायः एक दूसरे से मिलता- जुलता ही है। उल्लेख इस प्रकार मिलते हैं-

स्व मूर्धनि सहस्रार पंकजा सीन मव्ययम्।
शुद्ध स्फटित संकाश शरच्चन्द्र निभाननम्।                       
                                   -शक्ति बीज
अपनी मूर्धा में सहस्रार कमल के मध्य शुद्ध स्फटिक वत् शरतचन्द्र जैसे प्रकाश का ध्यान करना चाहिए।

ब्रह्मज्योतिर्वसुधा मा ब्रह्मास्थानीय उच्यते।
ततो यः पावको नाम्ना यः सभ्दिर्योग उच्यते।                                     
                                                     -मत्स्य पुराण
ब्रह्म-ज्योति अग्नि ब्रह्मरंध्र स्थान में निवास करती है। यह साधकों को पवित्र करने वाली है। यही योगाग्नि है।

सहस्र दल पंकजां सकल शीतरस्मि प्रभां।
वराभय कराम्बुजां वितुल गन्ध पुष्पाम्बराम् ॥                                    
                                                   -विश्वामित्र कल्प

गायत्री महाशक्ति का चित्रण सहस्र दल कमल पर विराजमान हाथ में कमल, गले में कमलमाला धारण किये हुए रूप का ध्यान करने का विश्वामित्र कल्प में निर्देश हैं।
सहस्र दल मध्यस्थ मन्तरात्मान मुतपम्।
तस्योपरि नादविन्दोर्मध्ये सिंहासनो ज्वलम्।
तस्मिन् निज गुरुं नित्य शुद्ध बुद्ध अवस्थितम्।                             
                                                 -कंकाल भवगती तन्त्र
सहस्त्र दल कमल में स्थित अन्तरात्मा के ऊपर नाद विद के बीच में नित्य शुद्ध-बुद्ध सद्गुरु (शिव) अवस्थित हैं।

शिरः पद्मे महादेवस्तथैव परमोगुरुः।
तत्समो नास्ति देवेशः पूज्यो हि भुवनत्रये।                                              
                                                   -निर्वाण तन्त्र
शिर पद्म (सहस्र कमल) में परम गुरु महान देव अवस्थित है। उसके समान तीनों लोकों में और कोई पूज्य नहीं।

शिरःपद्मे शुक्ल दश शत दले केसर गते।
ततः त्रीण कल्पे परम शिव रूपं निभगुरुम्।                             
                                              -निर्वाण तन्त्र
सहस्र दल शिर पद्म के बीच शिव रूप परम गुरु का निवास है।

अत ऊर्ध्व दिव्य रूपं सहस्रारं सरोरुहम्।
ब्रह्माण्डारव्यस्य देहस्य बाह्मे तिष्ठति मुक्तिदम्।
कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति।                          
                                             -शिव संहिता ५। १८६। १८७

(तालु के) ऊपरी भाग रूपी सरोवर में दिव्य स्वरूप वाला सहस्त्रार है, यह इस ब्रह्माण्ड रूपी देह के बाहर विद्यमान रहता है। इसी सहस्रार स्थान का नाम कैलाश हैं। महेश यही निवास करते हैं।

शिरः कपाल विवरे ध्यायेद् मुग्ध महोदधिम्।
तत्र स्थित्वा सहस्त्रारे पद्मे चन्द्र विचित्त येत्।                                  
                                                -शिव संहिता

सिर के कपाल- विवर में क्षीर सागर भरा हुआ है। उस पर सहस्रार कमल चन्द्रमा की तरह प्रकाशवान होने का ध्यान करें।
श्रुति में इस परम पुरुष को ‘सहस्र शीर्षा पुरुष’ कहा गया है। उसे सहस्र आँख, पाँव, भुजा वाला बताया गया है। परब्रह्म को सहस्र संख्या के साथ सम्बन्धित किया गया है। यह सहस्रार चक्र की ओर ही अँगुल निर्देश है-

येन देवाः पवित्रेण आत्मानं पुनते सदा।
तेन सहस्र धारेण पावमान्यः पुनन्तु मा ॥

प्राण- शक्ति की जिस प्रवित्रता से देवगण अपनी आत्मा को सदा पवित्र करते रहते हैं, वही पावमान प्राण हजार धाराओं से मुझे शुद्ध करे।

अग्ने सहस्त्राक्ष शतमूर्धञ्छतं ते प्राणः सहस्रं व्याना।
 त्वं साहस्त्रस्य राय ईशिषे तस्मै ते विधेम वाजाय स्वाहा ॥                           
                                                                  -वा० य० १७।७१
हे सहस्र नेत्र वाले अग्ने ! तेरे सैकड़ों प्राण सैकड़ों उदान और सहस्र व्यान हैं। सहस्रों धनों पर तेरा प्रभुत्व है। इसलिए शक्ति के लिए हम तेरी प्रशंसा करते हैं।

पुरुषो वै सहस्त्रस्य प्रतिमा हैं                               
                                      -शत ७।५।२। १७
यह पुरुष सहस्र (चक्र) की प्रतिमा है।

          सहस्रार साधना का प्रतिफल उस आत्म-ज्ञान की ब्रह्मबोध की उपलब्धि बताया है, जिसे प्राप्त करने के उपरान्त समस्त सांसारिक क्लेशों से छुटकारा मिलता है और अन्तःक्षेत्र के भव-बन्धनों से मुक्ति मिलती है। मोक्ष की प्राप्ति, ब्रह्म-प्राप्ति, दिव्य-समाधि, जीवन-मुक्ति जैसी परम सिद्धि इस सहस्रार महाकेन्द्र से ही उपलब्ध होती है। यथा-

स्थाने परं हंस निवास भूत्तै कैलाशनाम्नी ह निविष्टचेताः।
योगी हृत्तव्याधिरधः कृताधि र्वायुश्चिरं जीवति मृत्युमुक्तः।                            
                                                                     -शिव स० ५। १८९
अर्थ-इस कैलाश नामक स्थान में परमहंस का निवास है, जो साधक सहस्र दल कमल में मन को स्थिर करता है, उसकी सकल व्याधि नाश हो जाती है और मृत्यु से छूट कर अमर हो जाता है।

आनन्दमय कोश का तात्पर्य है- आनन्द का भण्डार। सहस्रार कमल उसका केन्द्र संस्थान है। इसे अमृत-कलश भी कहते हैं। यह जाग्रत स्थिति में हो तो उससे अपने को आनन्दित रखने वाला और दूसरों में पुलकन उत्पन्न करने वाला प्रवाह निसृत होता रहेगा। यह ज्ञानमय है। आत्म-बोध एवं तत्व-बोध की ज्ञान धारा जीवन के हर क्षेत्र का सिंचन करती और उसे हरितिमा, शोभा, सुषमा-युक्त बनाती है। इस आनन्द को, आत्म-विस्तार को सरसता के रूप में अनुभव किया जाता है। परमेश्वर की विवेचना ‘रसो वै सः’ के रूप में की गई है। यह ‘रस’ इन्द्रिय उत्तेजना से मिलने वाले उन्माद जैसा नहीं, वरन् ‘प्रेम’ जैसा सौम्य एवं सात्विक है। इसे भक्ति-रस भी कहा जा सकता है। व्यवहार में इसे आत्म-भाव का विस्तार कह सकते हैं। दया, करुणा, ममता, उदारता, सेवा आदि सुकुमार सम्वेदनाऐं इसी आत्म-विस्तार वृत्ति के सहारे उठती, उमँगती और पनपती हैं। इस सरसता को अध्यात्म शास्त्रों में ‘सोम-रस’ के नाम से पुकारा गया है। देवताओं का अमृत पान यही है, इसका रसास्वादन ब्रह्मानन्द कहलाता है। इसी विशेषता के कारण परमात्मा को ‘सच्चिदानन्द’ कहा जाता है।

सहस्रार कमल में परिपूर्ण अमृत-कलश से उपलब्ध होने वाले सुधारस, सोमरस की चर्चा इस प्रकार मिलती है-

तन्निर्गतामृतरसै रभिपिच्य गात्र-
मार्गेण तेन विलयं पुनरण्य वाप्ता।
येषा हृदि स्फूरति जातु न ते भवेयु-
र्म्मातर्महेश्वर कुटुम्बिनि गर्भभाजः ॥                                                         
                                               -तन्त्र सार
हे माता ! तुम सहस्र दल कमल से निकलते हुए सुधारस से देह को अभिषिक्त करती हुई सुषुम्ना के मार्ग में जाकर लीन हो जाती हो। जिस मनुष्य के हृदय पद्म में तुम्हारा उदय नहीं होता, वह मनुष्य बारम्बार गर्भ धारण का दुःख उठाता है।

व्योम पंकजानिष्यन्द सुधापानरतो भवेत्।
मद्यापानमिद प्रोक्तमितरे मद्यपायिनः ॥

ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रार कमल से जो रस टपकता है, वही मद्य-पान है। नशा पीने वाले तो शराबी मात्र हैं।

 नूनव्य से नवीन से सूक्ताय साधया पथः।
                          प्रत्नवद्रोचया रुचः ॥
 पवमान महिश्रवो गामश्वं रासि वीरवत्।
                     सना मेधां सना स्वः ॥                               
                                                -ऋ० ९।९।८-९
यह सोम जिसके अन्तःकरण में प्रतिष्ठित होता है, उसे आत्म-विकार और सुख-समुन्नति की अलौकिक प्रेरणाऐं अन्तःकरण से स्वतः प्रस्फुटित होती हैं।
पुमन सोम नः तमांसि योध्या। तानि पुनान जंघनः।                                
                                                             -ऋ० ९।९।७

यह सोम पाप और अन्धकार से लड़ने की प्रेरणा देते हैं और अपने साधक को वीर बनाते हैं।
सोमेन पूर्ण कलशं विभर्षि।                                    
                         -अथर्व ९। ४।६
सोम से भरा शीर्ष क्लश इसी शरीर में है।

दिवः पीयूषमुत्तमं सोमं।                                  
                            -अथर्व १४।१। १
यह सोम द्युलोक में रहता है।

प्रत आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्या।
असृग्रन् पयसा धरीमणि। प्रान्तऋषयः।
स्थावरी रसृक्षत येत्वा मृजन्त्य षिषाण वेधसः।                               
                                                       -ऋग्वेद ९।८३।४
हे सोम ! तेरी दिव्य धाराऐं मस्तिष्क में दिव्य रस को प्रवाहित करती हैं। ऋषित्व को प्रदान करती हैं। जो उसे अपने में धारण कर लेता है, वह निरन्तर भाव- प्रवाहों से भरा होता है।

शिर एवास्य हविर्धान वैष्णवं देवतयाथ यदस्मिन् सोमो
भवति हविर्वै देवानां सोमस्तस्माद्व-विर्धानं नाम।                                      
                                                        -शतपथ ३।५। ३।२
यह मस्तिष्क ही देवलोक है। जहाँ इन्द्रिय-संचालक केन्द्रों के रूप में देवता विराजते हैं। यहीं सोम को हवि दी जाती है। यहीं देवता सोमपान करते हैं।

स्पष्ट है कि यह सारे संकेत सहस्रार चक्र स्थित अमृत-कलश की ओर ही है। वहाँ से निकलने वाली ज्ञान गंगा जीवात्मा को पवित्र और परितृप्त करती है। आत्मिक आनन्द इसी स्थिति में मिलता है। आनन्दमय कोश की सार्थकता इसी-अमृत की अधिकाधिक मात्रा में वर्षा कर सकने में है।




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