गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

गायत्री का भावनात्मक एवं वैज्ञानिक महत्व

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गायत्री उपासना का भावनात्मक और वैज्ञानिक दोनों ही दृष्टियों से बड़ा महत्त्व है। भावना की दृष्टि से विचार किया जाय तो मानव जीवन के चरित्र उत्कर्ष का बीज- मन्त्र उसे कहा जा सकता है। सामान्यतया मनुष्य सबसे अधिक उपेक्षा 'सद्बुद्धि' की ही करता है। जिस औजार से उसे निर्माण कार्य करना है उसे ही टूटा- फटा भौंथरा और अनगढ़ रखता है। इस भूल के फलस्वरूप ही उसे जीवन लक्ष्य से वंचित रहना पड़ता है।

सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में सबसे श्रेष्ठ साधना शरीर मनुष्य को मिला है। बोलने, सोचने, लिखने, करने, मिल- जुल कर रहने और खोजने की जो विशेषतायें मनुष्य को प्राप्त हैं, उन्हीं के बलबूते पर उसने उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचने में सफलता पाई है। जितनी सुविधायें मनुष्य को प्राप्त हैं उसका हजारवाँ भाग भी सृष्टि के अन्य प्राणियों को प्राप्त होता तो वे अपने को धन्य मानते ।। आश्चर्य इस बात का है कि इतनी सुविधायेंरहते हुए भी लोग दुःखी क्यों हैं? निरन्तर चिन्तित, खिन्न, उदास, क्षुब्ध और अशान्त क्यों रहते हैं? इसका एक ही कारण है कि उनकी विचारणा का, प्रज्ञा का- सद्बुद्धि का परिष्कार नहीं हुआ। यदि वे सोचने का तरीका सही बना लेते तो आज जो अगणितसमस्यायें और कठिनाइयाँ सामने उपस्थित हैं, उनमें से एक भी दृष्टिगोचर नहीं होती। सोचने का सही तरीका यदि सीख लिया जाय तो फिर इसी जीवन में स्वर्ग की अनुभूतियाँ बिखरी हुई दिखाई पड़ने लगें। निस्सन्देह विचारणा की अशुद्ध प्रणाली ने ही स्वर्गीय सुविधाओं से मानव प्राणी को नारकीय परिस्थितियों में दुःख दारिद्र्य में पड़े रहने के के लिए विवश किया है। यदि सुख- शान्ति स्थिति सचमुच अभीष्ट हो तो उसके लिए एक उपाय अनिवार्यतः करना पड़ेगा और वह उपाय है अपनी विचार पद्धति का संशोधन।

गायत्री महामन्त्र में इसी धर्म- रहस्य का उद्घाटन किया है। मानव जाति को सन्देश दिया है कि कोल्हू के बैल बने फिरने मृगतृष्णा में भटकते रहने की अपेक्षा मूल तथ्य को समझो। सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न तो करो, पर प्रयत्न से पूर्व स्थिति को समझ भी लो कि वह कहाँ से और कैसे मिलेगा?

गायत्री मन्त्र बताता है कि विचार संशोधन, भावनात्मक परिष्कार वह आवश्यक तत्व है, जिसे प्राप्त किए बिना न किसी को आज तक सुख- शान्ति मिली है और न आगे मिलेगी। वस्तुयें क्षणिक सुख दे सकती हैं। वासना और तृष्णा की मदिरा में कुछ ही क्षण उन्मत्त रहा जा सकता है। उनकी परिणित तो दूनी अशान्ति, दूनी हानि और दूनी असफलता में ही होती है। इसलिए हमें अपने मानसिक संस्थान को शुद्ध करने

का सबसे अधिक प्रयत्न करना चाहिए। अपनी एक- एक प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करना चाहिए और उन पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का साहस पूर्वक परिष्कार करना चाहिए। वस्तुतः इसी का नाम साधना है। साधना का केन्द्र- बिन्दु इसी प्रयास एवं पुरुषार्थ को कहा गया है।

गायत्री में ईश्वर से यही माँगा है कि प्रभु हमें आपने मानव शरीर देकर असीम अनुकम्पा की है। अब मानव बुद्धि देकर हमें उपकृत और कर दीजिए ताकि हम सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकें और मानव जीवन के आनन्द का लाभ उठा सकें। गायत्री के चौबीस अक्षरों में परमात्मा के 'सवितुः' 'वरेण्यं' 'भर्गः' और 'देव' गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें अपने जीवन में धारण करने की आस्था बनाते हुए यह संकल्प किया गया है कि परमात्मा के अनुग्रह एवं वरदान की एकमात्र 'सद्बुद्धि' को भी हम प्राप्त करते रहेंगे। अपने जीवन को उस ढाँचे में ढालेंगे, जिसमें कि सद्बुद्धि सम्पन्न महामानव अपने को ढालते चले आए हैं। उसी संकल्प को बार- बार पूरी निष्ठा और भावनापूर्वक दुहराने का नाम गायत्री जप का सच्चा स्वरूप समझते हुए जो उस उपासना को करते हैं, वे उसका अनिर्वचनीय लाभ प्राप्त भी कर लेते हैं। वे इस अमृत को पाकर अमर बन जाते हैं और इस मृत्यु लोक में रहते हुए भी दिव्य- लोक मंह निवास करने का स्वर्गीय आनन्द पग- पग पर अनुभव करने लगते हैं।

वैज्ञानिकता की दृष्टि से गायत्री उपासना के अगणित भौतिक लाभ भी हैं। कष्टों और आपत्तियों में पड़े हुए, विपत्तियों में फँसे हुए, अभाव और दारिद्रय से पीड़ित असफलता की ठोकरों से विक्षुब्ध व्यक्ति यदि इस महामन्त्र का आश्रय लेते हैं तो उन्हें आशा की किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। जिन्हें अपना भविष्य अन्धकारमय दीख रहा था और आपत्तियों के कुचक्र में पिस जाने का भय सता रहा था, उन्हें उस उपासना से नया प्रकाश मिलता है। अभावग्रस्त व्यक्ति दारिद्र्य से और रुग्ण मनुष्य पीड़ाओं से छुटकारा प्राप्त करते देखे गये, कामनाओं की जलती हुई आग तृप्ति और शान्ति में परिणित होते देखी गई है। इस अवलम्बन का सहारा लेकर गिरे हुए लोग ऊपर उठते हैं। इस प्रकार के प्रतिफल किसी जादू से नहीं, वरन एक वैज्ञानिक पद्धति से उपलब्ध होते हैं। गायत्री उपासना मनुष्य के विचारों और कार्यों में एक नया मोड़, एक नया परिवर्तन प्रस्तुत करती है। जिसका अन्तर्जगत् बदले तो उसके बाह्य जीवन में परिवर्तन प्रस्तुत होना ही चाहिए। होता भी है। इसे ही लोग गायत्री माता का अनुग्रह एवं वरदान भी मानते हैं।

अनेक व्यक्तियों को गायत्री उपासना के फलस्वरूप अनेक प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाते और अनेक सुविधायें, उपलब्ध करते हुए देखकर हमें यही अनुमान लगाना चाहिए कि इस साधना पद्धति में ऐसे वैज्ञानिक तथ्यों का समावेश है जिनके कारण साधक की अन्तः भूमि में आवश्यक हेर- फेर उपस्थित होते हैं और वह असफलताओं एवं शोक संतापों पर विजय प्राप्त करते हुए तेजी से समुन्नत, समर्थ एवं सफल जीवन की ओर अग्रसर होता है।

गायत्री का महात्म्य भावनात्मक दृष्टि से भी है और वैज्ञानिक दृष्टि से भी। इसी से इस महान अध्यात्म सम्बल को श्रद्धापूर्वक अपनाए रहने के लिए शास्त्रकार ने ये निर्देश किया है। ऋषियों ने प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति के लिए गायत्री की निष्ठापूर्वक उपासना करने के लिए जोर दिया है और जो उस उपयोगी व्यवस्था का लाभ नहीं उठाना चाहते, उनकी भूल को उन्होंने कटु भर्त्सना के साथ निन्दनीय भी ठहराया है। गायत्री उपासना न करने वाले को उन्होंने चाण्डाल तक कहा है। एक मुखी गायत्री की उपासना भी मनुष्य को शक्ति और प्राण से भर देती है, इससे उसका जीवन व्यवस्थित ही होता है।

वस्तुतः आत्मा अनन्त शक्तियों और सिद्धियों का भण्डार है। वह ईश्वर का पुत्र और सत चित आनन्द स्वरूप है। अपने पिता के इस पुष्प उद्यान संसार में क्रीडा- कल्लोल का आनन्द लेने आता है, पर माया के बन्धनों में फँसकर वह अपने स्वरूप को, अपने लक्ष्य को, अपने कार्य- क्रम को भूल जाता है और विपन्न स्थिति में पड़ जाता है। इसी भूल का नाम माया बन्धन है। यह माया बन्धन जैसे- जैसे ढीले पड़ते जाते हैं वैसे ही वैसे वह अपने परम मंगलमय मूल रूप में अवस्थित होता चलता है। आत्मा स्वच्छ दर्पण के समान है पर माया मोह का मैल जम जाने के कारण उस पर धुँधलापन छा जाता है। आत्मा जलते हुए अंगारे के समान है। उस पर जब राख का पर्त चढ़ जाता है तो बुझी हुई सी दिखाई पड़ती है। यदि अंगार पर से राख के पर्त को हटा दिया जाय तो वह फिर प्रकाशवान एवं उष्णता युक्त दीखने लगता है। दर्पण पर लगे हुए मैल को यदि माँज- धोकर साफ कर दिया जाय तो पुनः उज्ज्वल हो जाता है। अज्ञानान्धकार में यदि ज्ञान का प्रकाश जल उठे तो अन्धेरे में जो छिपा पड़ा था, वह सब कुछ दीखने लगता है। यह सब काम गायत्री करती है। वह आत्मा पर चढ़े हुए सम्पूर्ण मलों, विक्षेपों, कषायों, कल्मषों एवं जन्म- जन्मान्तरों के चढ़े हुए कुसंस्कारों को धोकर उसे स्वच्छ एवं प्रकाशवान बनाती है। माया के बन्धनों को काटने में वह तेज छुरी सिद्ध होती है। इन बाधाओं से छूटकर आत्मा जब अपनी मूल- भूत निर्मल स्थिति को पहुँच जाती है तो उसके सब त्रास दूर हो जाते हैं। आत्मा का परम

निर्मल हो जाना ही परमात्मा की प्राप्ति है। इसे ही जीवन मुक्ति, ब्रह्मनिर्वाण, परमपद, आत्म- साक्षात्कार एवं प्रभु प्राप्ति कहते हैं। यह प्राप्त होना कठिन माना जाता है, पर गायत्री माता इस महान कार्य को भी सरल बना देती है।


गायत्री साधक की दिन- दिन आत्मिक उन्नति होती है। वह जैसे- जैसे ऊँचा उठता है वैसे ही वैसे उसे अपने पिण्ड (देह) में छिपी हुई ब्रह्माण्ड गत ईश्वरीय महान शक्तियों क भान होने लगता है। हमारा जो यह स्थूल शरीर दिखाई पड़ता है- इसे अन्नमय कोष कहते हैं। इसी प्रकार के सूक्ष्म अदृश्य देह इसी के भीतर चार और हैं। मरने पर यह अन्न कोष मर जाता है पर चार शरीर प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष जीवित रहते हैं। इनमें वासनायें, इच्छायें, भावनायें आदतें भरी रहती हैं और जन्म- जन्मान्तरों से चले हुए संस्कार जमा रहते हैं। जैसे यह स्थूल देह जब तक यह भीतर वाले चार देह- चार कोष जीवित रहते हैं, तब तक जीवित है तब तक मृत्यु हो गई ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसी प्रकार जब तक मुक्ति भी नहीं कही जा सकती। इसीलिए पाँचों कोषों के आवरण एवं आच्छादन से छुटकारा पाने के लिए गायत्री की पंचमुखी साधना की जाती है। इसीलिए चित्रों में कहीं- कहीं गायत्री को पाँच मुख वाली भी दिखाया जाता है। वह दशोंदिशाओं में व्याप्त है, दशों इन्द्रियों कि स्वामिनी है, दश महाशक्तियों की अधीश्वरी है, इसलिए इसे दशभुजी भी रूप इस बात का संकेत है कि इस महाशक्ति की सहायता से हम अपने पाँचों बन्धनों से छूट सकते है, दशों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, दशोंदिशाओं में अपना विस्तार कर सकते हैं और दश महाशक्तियों के स्वामी बन सकते हैं। गायत्री माता की कृपा से हम क्या नहीं कर सकते हैं? जो कुछ इस लोक में तथा परलोक में है वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

पंचमुखी साधना के द्वारा पंचकोशों के विकास की साधना एक विज्ञान है जो भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अधिक समर्थ और यथार्थ है। उससे मनुष्य शरीर और वंश से सामान्य दिखाई देने पर भी राजाओं, महाराजाओं जैसा जीवनयापन करता है समस्त सिद्धियाँ उस विज्ञान में सन्निहित हैं। विश्व में जो कुछ भी है उसका दर्शन गायत्री की पंचकोशी साधनाओं से प्राप्त किया जा सकता है।

गायत्री के उच्चस्तरीय पंचकोशीय साधना विधान के अनुसार साधना करने से एक- एक कोष खुलता जाता है। कोष का अर्थ देह भी है और खजाना भी। जहाँ पाँचों देहों एवं बन्धनों का परिमार्जन होता है, वहाँ इन कोषों में जो अलौकिक दिव्य शक्तियों के खजाने भरे पड़ेहैं वे भी सामने आते हैं। यह कोष ही ऋद्धि- सिद्धियों के भण्डार हैं। जिनके हाथ में यह खजाने होते हैं उन्हें इस संसार में और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

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