गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

अन्नमय कोश और उसका अनावरण

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मनुष्य देह का विकास अन्न से होता है ''अन्नादिभवन्ति भूतानि'' के अनुसार प्राणि संरचना में अन्न का प्रमुख भाग है। गर्भ में आने के साथ ही जीव उसकी आवश्यकता अनुभव करने लगता है। प्रारम्भ में नाभि-प्रदेश के माध्यम से और जन्म लेने के बाद से मुँह के माध्यम से वह अन्न ग्रहण करता है और इस तरह उसका शरीर बढ़ता विकसित होता है। अन्न के अभाव में स्थूल काया दुबली पड़ जाती है। एक निश्चित अवधि के बाद अन्न न मिले तो मृत्यु तक हो सकती है। इस तरह अत्यन्त स्थूल और नाशवान होकर भी अन्नमय शरीर जीव के दृश्य अस्तित्व का मूल आधार है। यह वह भवन है जिसमें जीव निवास करता है यदि वह स्वच्छ स्वस्थ्य और भव्य हो तो जीवन में आनन्द ही आनन्द है। टूटे-फूटे, सड़े-गले मकान में तो रहकर कोई भी खुश नहीं रह सकता। अन्नमय कोश स्थूल शरीर के तात्विक शरीर उसकी महत्ता और उसे स्वस्थ समर्थ बनाए रखने की विद्या का नाम है। उसे न समझने वाले अज्ञानीजन शरीर को ही सुखों का मूल मानने की भूल करते और इन्द्रिय सुखों में आसक्त होते हैं। शरीर की बाह्य सज धज में दिन रात लगे रहने के कारण उसमें निवास करने वाली जीवात्मा उपेक्षित होती है। यही अन्नमय कोश में आबद्ध होता है शरीर की वस्तुस्थिति को समझ कर युक्ता युक्ता आहार और व्यवस्थित जीवन क्रम अपनाना ही इस कोश का अनावरण कहलाता है।

अन्न से ही मन बनता है जैसा अन्न खाया जाता है वैसा ही मन बन जाता है। अध्यात्म का सारा क्रिया कलाप मन की स्थिति पर ही अवलम्बित रहता है। मन भी तमोगुण, रजोगुण मे डूबा हुआ है। उस पर तृष्णा और वासना के मल आवरण छाये हुए ही तो बाहरी उपायों से सुधार हो सकना कठिन है, हम देखते हैं कि रोज कथा-वार्ता कहने सुनने वाले और धार्मिक कर्मकाण्डों में देर तक लगे रहने वाले व्यक्ति भी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृतियों को चरितार्थ करते रहते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि जिसे धर्म का पर्याप्त ज्ञान है, जो दूसरों को भी ज्ञान का उपदेश देता है वह अपने व्यवहारिक जीवन में अधर्म का आचरण करता रहता है। विचार करने पर उसका एक ही कारण प्रतीत होता है कि व्यक्ति का अन्तःकरण मानसिक स्वर ही वह मर्मस्थल है जहाँ से प्रेरणायें और प्रकृतियों उत्पन्न होती हैं। बनावटी ढंग से आडम्बर के रूप में मनुष्य कुछ भी कहे या करे वस्तुतः उसकी उसी दिशा में अग्रसर होगी जैसी कि उसकी बनी हुई है।

मनोभूमि के सुधारों में स्वाध्याय और सत्संग बहुत सहायक होता है। उपासना तथा दूसरे धार्मिक कर्मकाण्डों का भी बहुत कुछ असर होता है पर सबसे अधिक प्रभाव अन्न का होता है। जिस प्रकार का जिस स्तर का आहार किया जाता है उसी तरह का मन बनता है। वस्तु जैसी कुछ बनी है उसका प्रधान गुण तो वही रहेगा। सुधार और संस्कार से उसकी प्रगति में कुछ न कुछ अन्तर तो आता है। पर पूरा परिवर्तन नहीं होता। आज साधना मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति आहार पर उतना ध्यान नहीं देते जितना कि देना चाहिये। फलस्वरूप तमोगुणी और रजोगुणी प्रकृति की वस्तुएँ खाते रहने पर मन का मूल स्वभाव भी वैसा नहीं बन जाता है। स्वाध्याय सत्संग में उस पर नियन्त्रण तो रहता है पर जब कभी भीतर से कामना एवं वासना का प्रबल वेग उठता है तो उस बाह्य नियंत्रण को तोड़ फोड़ कर मनुष्य को दुष्कर्म में प्रवृत कर देता है। दुष्प्रवृत्तियाँ रुक नहीं पाती।

इस कठिनाई का एक मात्र हल यह है कि श्रेय पथ का पथिक अपने आहार पर सबसे अधिक ध्यान दे। पंचकोशी गायत्री उपासना का आरम्भ अन्नमय कोश की शुद्धि से ही होता है। नींव पक्की न हुई तो आगे ऊँची दीवार उठाने और उसे स्थायी बनाने का कार्यक्रम सफल हो सकेगा ? जो व्यक्ति जिह्वा के गुलाम हैं, चटोरेपन ने जिन्हें अपने वश में कर रखा है। स्वादेन्द्रिय पर जो नियंत्रण नहीं कर सकते, शुद्ध आहार की प्राप्ति में जो कष्ट और असुविधा उठानी पड़ती है। उसे सहन कर सकना जिनके वश की बात न हो उन्हें योगाभ्यास आत्मोकर्ष, लक्ष्य की पूर्ति, स्वर्ग-मुक्ति जैसे स्वप्न नहीं ही देखने चाहिये। अध्यात्म शूरवीरों का मार्ग है। साधता को संग्राम कहा गया है। इसमें षडरिपुओं के चक्र व्यूह को तोड़ने के लिये घनघोर युद्ध करना पड़ता है। गीता में श्रीकृष्ण नें धनुर्धर अर्जुन को जिस महाभारत में प्रवृत किया है वह वस्तुत: आन्तरिक शत्रुओं से लड़ने का ही प्रशिक्षण है। अपनी दुर्बलता से लड़ पड़ने का प्रबल पुरुषार्थ किये बिना जीवन मुक्ति की विजय वैजयन्ती धारण कर सकना किसे के लिए भी संभव नहीं होता।


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