आनन्द जीवात्मा का लक्ष्य है। उसे प्यास इसी की है। कस्तूरी का हिरन जिस प्रकार सुगन्ध की खोज में चारों ओर मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव आनन्द की खोज में विविध कल्पनाऐ करता- विभिन्न योजनाऐं बनाता और अगणित प्रयत्न करता है, पर हर सफलता अपर्याप्त और असमाधान कारक ही बनी रहती है। हिरन की नाभि में कस्तूरी होती है और आनन्द का अक्षय भण्डार अन्तःकरण की गहरी परत आनन्दमय कोश में भरा रहता है। जो वस्तु जहाँ है, उसे वहाँ तलाश न करके अन्यत्र ढूँढ़ा जाय तो उससे भटकाव और थकान के अतिरिक्त मिलता कुछ नहीं।
आनन्द का मिठास अत्यधिक गहरा है। उसकी प्रतिच्छाया वासना, तृष्णा, अहंता में परिलक्षित होती है और उसकी कल्पना मात्र से पुलकन उठती है। प्रतिध्वनि में जब इतनी मधुरता है तो ध्वनि में कितनी अधिक, उत्कृष्टता होगी ? आनन्दमय कोश में प्रवेश करके ही जीवात्मा को परम तृप्ति का सन्तोष मिल सकता है। यही जीवन का लक्ष्य है। इसी की आशा पर प्राणी जीवित है। इसी के लिए वह शरीर- बन्धन में बँधने को तैयार हुआ है। कहा गया है-
‘एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति।’
बृहदारण्यक ४। ३। ३२
इस आनन्द के प्राप्त होने की आशा से ही समस्त प्राणी जीवित रहते हैं।
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनंदाद्वचेव खाल्विमानि
भूतानि जायते। आनंदेन जातानि जीवंति। आनंद
प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।
-तैत्तरीयोपनिषद्
आनन्द से सब प्राणी पैदा होते हैं और आनन्द में ही वे जीवित रहते हैं। अन्त में आनन्द में ही वे जय को प्राप्त होते हैं।
आनंदानुभवस्तत्र जायते योगिनो महान्।
स एव तं विजानाति मया वस्तु न शक्यते ॥
-योग रसायनम् ११४
उस समय योगी को महान् आनन्द का अनुभव होता है, जिसे वही जानता है, मैं वर्णन नहीं कर सकता।
मुच्यमानेषु सत्वेषु ये तो प्रापोयसागराः।
तैरेवननुपर्याप्तं मोक्षेणा रसिकेन किम् ॥
-बोधिचर्यावतार ८।१०८
जीव जब दुःख-बन्धन से मुक्त होते हैं, तब उससे बोधिसत्व के हृदय में जो आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ता है, उतना ही तो पर्याप्त है। रस-हीन शुष्क मोक्ष से क्या प्रयोजन ?
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।
को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात् ? यदेष आकाश आनन्दो न
स्यात्। एष ह्येवानन्दयाति ॥
-केन २।७
भगवान् रसमय या रस-स्वरूप है। उसी रस को पाकर मनुष्य आनन्द का अनुभव करता है। यदि वह आकाश की भाँति सर्वत्र ओत-प्रोत आनन्दमय मूलतत्व न होता, तो कौन अपान और प्राण-रूप क्रियाओं से युक्त जीवन-मात्र में आनन्द का अनुभव करता। वास्तव में वही तत्व प्रत्येक प्राणी के आनन्द का मूल स्रोत है।
परमेश्वर को रस कहा गया है। यह रस भौतिक नहीं आत्मिक है। उसे उल्लास, सन्तोष, तृप्ति, शान्ति जैसी दिव्य सम्वेदनाओं में अनुभव किया जाता है। इसकी उपलब्धि आन्तरिक उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। अंतरात्मा जितना पवित्र और उदात्त बनता जाता है, उसी अनुपात से यह आनन्द बढ़ता है। यह उत्कृष्ट दृष्टिकोण तथा उच्चस्तरीय कर्म-परायणता पर निर्भर है। निकृष्ट चिन्तन और भ्रष्ट क्रिया-कलाप के रहते अन्य किसी उपाय से इस आनन्द का दर्शन हो नहीं सकता। आनन्द की आकांक्षा करने वाले हर व्यक्ति को आनन्दमय कोश की गहराई में उतर कर उस उद्गम स्रोत तक पहुँचना पड़ता है, जहाँ से दिव्य आनन्द की प्रकाश-किरणें फूटती हैं।
आनन्द का स्वरूप, आधार और स्थान विदित हो जाने पर मान्यता स्थिर होती है। क्या करने से क्या मिलता है ? यह निश्चित हो जाना ही भ्रान्ति का निवारण है, वस्तु स्थिति का ज्ञान ही तत्वज्ञान है। आत्मिक समस्याऐं ही सबसे बड़ी समस्याऐं हैं। उन्हीं के समाधान से वास्तविक समाधान होता है। अस्तु अन्तरात्मा की उलझनों को सुलझा देंने वाले ज्ञान को ही ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान, आत्म-ज्ञान, सद्ज्ञान आदि के नाम से पुकारते हैं। आनन्द प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आन्तरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है। समाधि इसी स्थिति का नाम है। आनन्द की उपलब्धि में सर्वप्रथम इसी का प्रयत्न किया जाता है। समाधि से मतलब मूर्च्छित हो जाना माना जाता है। हठयोग के अन्तर्गत ऐसे प्रयोग भी हैं जिनमें श्वास क्रिया रुकती और हृदय की धड़कन घटती है। वैसी दशा में चेतना निःचेष्ट होकर बहुत समय तक पड़ी रहती है। चेतन और अचेतन की गहरी निद्रा में सुला कर पूर्वाग्रहों एवं पूर्व संस्कारों की उत्तेजना शान्त करना इसका उद्येश्य माना जाता है। ऐसा समय हर किसी के लिए सरल नहीं है। उसके लिए नाड़ी- शोधन, चक्र- वेधन, प्राण-साधना जैसी अनेक कठिन मंजिलें पार करनी पड़ती हैं। वह विशेष लोगों का विशेष कृत्य है। सर्व साधारण की समाधि वह है, जिसमें जीवन कीं दिशा-धारा अस्त-व्यस्त न रहने देकर एक सुनिश्चित मार्ग पर प्रवाहित की जाती है। वर्षा का पानी मारा- मारा फिरे तो उससे हानि ही होगी। नदी- नाले के माध्यम से उसके बहने में ही लाभ है। चिन्तन की दिशा- निर्धारण हो जाना और आकांक्षाओं एवं विचारणाओं का उत्कृष्टता की दिशा में बहने लगना ही समाधि है। समाधि का अभ्यास होने पर बिखराव-भटकाव समाप्त होता है और चिन्तन तथा कर्म का समुचित लाभ मिल सकने की स्थिति बन जाती है, इसलिए आनन्दमय कोश की साधना के प्रथम चरण में ‘समाधि’ परक प्रयोग किये जाते हैं। यह जाग्रत समाधि है। इसमें मूर्छित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् प्रलोभन एवं भय की उत्तेजनाओं को शान्त करना पड़ता है। ऐषणाओं के आवेश ठण्डे पड़ने पर मनुष्य अपना लक्ष्य देख पाता है। निर्धारित दिशा में चल पड़ने की बात इससे पूर्व बन ही नहीं पड़ती। आनन्दमय कोश के साधकों को जिस एकाग्रता की आवश्यकता बताई गई है, वह एक केन्द्र पर सोचते रहने की मानसिक विधि नहीं, वरन् लक्ष्य का सुनिश्चित निर्धारण और अभिगमन है। ऐसी मनःस्थिति को ‘समाधिस्थ’ कहा गया है।
‘सम्यगाधीयत एकाग्री क्रियते
विक्षेपान्परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः।’
-भोज
जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थ में एकाग्र किया जाता है, वह स्थिति समाधि है।
त्यक्त्वां विषयभोगांश्च मनोनिश्चलतां गतम्।
आत्मशक्तिस्वरूपेण समाधिः परिकीर्त्तितः ॥
-दक्षस्मृति ७।२१
विषय-भोगों की चंचलता त्याग कर जिसने स्थिर मनः स्थिति प्राप्त करली, आत्म-बल प्राप्त कर लिया, उसकी स्थिति ‘समाधि’ की ही है।
सलिलै सैन्धव यद्धत्साम्यं भजति योगतः।
तथाऽऽत्ममनसोरैक्यं समाधिरभि धीयते ॥
-हठ० प्र० ४।५
अर्थ-जैसे लवण जल में मिलने से जल के ही रूप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही आत्मा एवं मन का एक रूप होना समाधि कहलाता है।
तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः।
प्रनष्टसर्वसंकल्पः समाधिः सोऽभिधीयते ॥
-योग संख्या
जीवात्मा और परमात्मा इन दोनों की एकरूपता को ही समता कहते हैं और उस समय नष्ट हुए हैं सम्पूर्ण सकंल्प, जिसमें उसको समाधि कहते हैं।
समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः।
संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः ॥
-याज्ञल्क्य
जीवात्मा और परमात्मा की इच्छा एवं दिशा जब एक जैसी होती है, वे वियोग से हटकर एकत्व स्थापित करते हैं, तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं।
यत्समत्वं तयोरत्र जीवात्मा परमात्मनोः।
समस्त नष्ट संकल्पः समाधिरभिधीयते ॥
स्वयमुच्चलिते देहे देही नित्य समाधिना।
निश्चलं तं विजानीयात् समाधिरभिधीयते ।
-सौभाग्य० उपनिषद्
ललक और लिप्साओं की आकांक्षाऐं नष्ट होने पर जब जीव और ब्रह्म के बीच एक दिशा का, एकता का निर्धारण होता है तो उस स्थिति को समाधि कहते हैं। प्रलोभनों की चंचलता शिथिल होने पर जो आत्म-स्थिरता प्राप्त होती है, वही समाधि है।
आन्तरिक दिव्य क्षमताओं का विनाश तो तृष्णा जन्य चंचलता से होता है। यदि वह उद्विग्नता न रहे, लक्ष्य की ओर चलने का निश्चित संकल्प बन जाय तो अपव्यय रुकने से आत्म-शक्ति का संग्रह और अभिवर्धन होता चलता है। फलतः कितनी प्रकार की दिव्य क्षमताऐं उभरती चली जाती हैं। इन विभूतियों का परिचय कितने ही रूपों में मिलता रहता है। यथा-
समाध्यभ्यासतो नित्यं जायतेऽन्तर्मनोलयः।
अन्तर्दृष्टिप्रकाशश्च तस्य संजायते क्रमात् ॥
-योग रसायन
समाधि के नित्य अभ्यास से क्रमशः मन अन्तर्लीन हो जाता है और अन्तर्दृष्टि प्रकाशित होती है।
स्वप्नदष्टपदार्थोंधो मृषा भवति निश्चित्तम्।
समाधि त्वमृषा सर्वं वस्तु कार्यकरं तथा ॥
-योग रसायनम
स्वप्न में देखे गये पदार्थ मिथ्या होते हैं, जबकि समाधिस्थिति में अनुभूत बातें सत्य होती हैं तथा उनके द्वारा समाधि के उपरान्त भी वास्तविक लाभ होता है।
समाधि की आन्तरिक स्थिरता प्राप्त होने पर साधक का दृष्टिकोण परिष्कृत होता है। वह विधेयात्मक और रचनात्मक गुणग्राही चिन्तन-पद्धति का अभ्यास करता है। अपने सद्गुणों को बढ़ाता है और दूसरों का सद्गुण प्रधान पक्ष खोजता है। सृष्टि में यों कुरूपता भी विद्यमान है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद हैं, बदलने और सुधारने के लिए रचनात्मक प्रवृत्ति की आवश्यकता है। असहयोग, विरोध और दण्ड जैसे कटुकृत्यों का निषेध नहीं है, पर वे द्वेष और घृणा से प्रेरित नहीं, सुधार की हित कामना से होने चाहिए। इस प्रकार संसार के अशुभ पक्ष से निपटते हुए भी आन्तरिक उत्कृष्टता स्थिर रखी जा सकती है। श्रेष्ठता का पक्ष तो अधिक मात्रा में है ही अन्धकार से प्रकाश इस संसार में अधिक है। दुष्टता की तुलना में श्रेष्ठता कम नहीं है। उसी को खोजा अपनाया जाय, सम्पर्क- सम्बन्ध उसी से साधा जाय और उसी के अभिवर्धन- परिपोषण में निरत रहा जाय तो मस्तिष्क में निरन्तर सात्विक छाया रहेगा। सौन्दर्य दृष्टि से विकसित होने पर विश्व- व्यापी सौन्दर्य का दर्शन होने लगेगा। पदार्थों और प्राणियों में पाई जाने वाली श्रेष्ठता के सम्पर्क में आने से शिवत्व की झाँकी मिलती है। इस विश्व के मूल में ब्रह्म- सत्ता ही आलोकित है, यह समझने वालों को ‘सत्य’ की प्राप्ति होती है। परिष्कृत दृष्टिकोण वालों को सत्यं शिवं सुन्दरम् का दर्शन हर घड़ी होता है और सर्वत्र स्वर्ग की उपस्थिति प्रतीत होती है। संत इमर्सन कहा करते थे कि “मुझे” नरक में भेज दो मैं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा। इस कथन में परिपूर्ण तथ्य भरा पड़ा है। परिष्कृत दृष्टि से समीपवर्ती वातावरण में भी बहुत कुछ सुधारात्मक अनुकूलता प्रतिक्रिया उत्पन्न की जा सकती है, किन्तु स्थिति से अनुकूल प्रतिक्रिया उपलब्ध कर सकना तो पूर्णतया अपने हाथ की बात है। स्वर्ग इस दिव्य दर्शन का, उत्कृष्ट चिन्तन का नाम है। उसे कोई स्थान- विशेष नहीं माना जाना चाहिए, वह वस्तुतः एक दृष्टिकोण भर है। नरक और स्वर्ग को निकृष्ट और उत्कृष्ट चिन्तन की अशुभ एवं शुभ प्रतिक्रिया ही समझा जाना चाहिए। हर व्यक्ति इमर्सन की तरह ही अपने लिए सुखद स्वर्ग का सृजन, दृष्टिकोण को परिष्कृत करके सहज ही कर सकता है। समाधि से स्वर्ग की अनुभूति और प्राप्ति होना सुनिश्चित है। इसी का उल्लेख इस प्रकार मिलता है –
वाक् शौचं कर्म शौचं च यंच शौचं जलात्मकम्।
त्रिभिः शौचेरुपेतो यः स स्वर्गो नात्र संशयः ॥
महाभारत वन०
वाणी की पवित्रता, कर्मों की पवित्रता, जलात्मक पवित्रता, जो स्थान या अवस्था इन तीन पवित्रताओं से मुक्त हो। वही स्वर्ग है, इसमें संशय नहीं है।
स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छन्ति लोकं निरयिणस्तथा।
साधक ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधनम् ॥
-योग संध्या
स्वर्ग के रहने वाले देवता भी इस मनुष्य देह में जन्म की अभिलाषा करते हैं, क्योंकि वह मनुष्यलोक ज्ञान, भक्ति द्वारा मोक्ष का साधन होने से श्रेष्ठ है।
किंचन द्वेष्टि तथा न किंचिदपि काङ्क्षति।
भुङ्क्तेयः प्रकृतान् भोगान् स जीवन्मुक्त उच्यते ॥
महोपनिषद २।६०
जो केवल प्राप्त भोगों का उपभोग करने वाला आकांक्षाओं से रहित तथा किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष नहीं करता वह जीवन- मुक्त है।
भूमौयावद्यस्य कीर्तिस्तावत्स्वर्गे स तिष्ठति।
अकीर्तिरेवनरको नान्योस्ति नरको दिवि ॥ महोपनिषद २।६०
जिसकी कीर्ति जब तक भुमि में टिकती है तब तक वह स्वर्ग में रहता हैं, अपकीर्ति नरक है। दूसरा नरक परलोक में नहीं है।
पराङ्विवैस्वर्गो लोकः।
-शत० १३।१।३।३
स्वर्ग कहीं अन्यत्र नहीं, अपने ही भीतर है।
समाधि और स्वर्ग के उपरान्त आनन्दमय कोश की तीसरी उपलब्धि है- मोक्ष। मोक्ष अर्थात् बन्धन मुक्ति। बन्धन अर्थात् पिछड़ेपन के कुसंस्कार कषाय- कल्मष। जीव को बाँध सकने वाली संसार की और कोई शक्ति नही है। उसकी निज की दुर्बलताएँ और निकृष्टताएँ ही प्रगति के पथ पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। मकड़ी अपना जाल आप बुनती और उसी में फँसी रहती है। रेशम के कीड़े भी अपना बन्दीगृह आप बनाते हैं। मनुष्य के भव- बन्धन उसी ने हाथों विनिर्मित किये हैं और स्वयं ने ही उन्हें हथकड़ी बेड़ी की तरह धारण किया है। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह, शावक की तरह ओछेपन का आवरण अपने ही अज्ञान से हमने ओढ़ा है, बन्धनों का कितना कष्ट होता है। इसे पशु-पक्षी तक जानते हैं। जो विवशता में तनिक भी कमी आने पर बेतरह भाग खड़े होते हैं, भले ही उन्हें कितने ही अभावों और संकटों का सामना क्यों न करना पड़े ?
मनुष्य ईश्वर का सबसे बड़ा राजकुमार है। उसकी सम्भावनाऐं असीम है। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करके वह इसी जीवन में उतनी उच्चस्थिति में पहुँच सकता है, जिसे देवात्मा-परमात्मा के समतुल्य कहा जा सके। इस प्रगति में परिस्थिति की नहीं, मनः स्थिति की ही प्रधान बाधा है, यदि जीवन की सार्थकता के लिए जो करना है, उसे समझ और अपना लिया जाय तो फिर वह स्थिति बन जायेगी जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। मोक्ष इसी का नाम है।
मोक्ष के सम्बन्ध में विचित्र मान्यताऐं प्रचलित हैं। कोई उसे जन्म- मरण से आवागमन से छुटकारा बताता है कोई इस संसार को छोड़कर किसी अन्य लोक में चले जाने की कल्पना करता है। किसी को काम न करने की बैठे ठाले हर इच्छा पूरी होते रहने की स्थिति मोक्ष प्रतीत होती है। किन्हीं -किन्हीं की उड़ान विचित्र है, वे भगवान् का कोई विशेष नगर, ग्राम, लोक मानते हैं और उनके पास दरवारियों की तरह जा विराजने की कल्पना करते हैं। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्म यह चार स्थिति मुक्ति में मिलने की बात बताई जाती है। सालोक्य का मतलब है , भगवान के लोक में अपने लिए भी एक फ्लैट बन जाना। सामीप्य का मतलब है, उनके दरबारी कर्मचारियों में नियुक्ति होना। सारूप्य का अर्थ है, भगवान जी की डमी कापी बनकर रहना। सुरक्षा के लिए डिक्टेटर लोग प्रायः अपनी ही शक्ल- सूरत का एक दूसरा आदमी रखते भी थे, जिसे खतरे के स्थान पर भेजकर वे स्वयं सुरक्षित रह सकें। सायुज्म का तात्पर्य है साझीदारी। उनकी सम्पत्ति अथवा सत्ता में अपनी घुसपैंठ बन पड़ना, यह सायुज्म मुक्ति कही जायेगी। यह सभी उपाहासास्पद बाल कल्पनाऐं हैं। इन्हें आलंकारिक वर्णन के रूप में प्रस्तुत किया गया है, पर उदाहरणों को तथ्य मान लेने की भूल अपना ली गई।
मोक्ष का तात्पर्य है, आत्मसत्ता को भौतिक न मानकर विशुद्ध चेतन तत्व के रूप में अनुभव करने लगना। सुखानुभूति, प्रसन्नता एवं सफलता भौतिक साधनों से के स्थान पर आन्तरिक परिष्कार के आधार पर उपलब्ध होने के तथ्य पर विश्वास करना। पशु- प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से छुटकारा मानवी दैवी संस्कृति को व्यवहार में उतारना। उत्कृष्टता ही ईश्वर है। ईश्वर की समीपता अथवा प्राप्ति का मतलब है, अपनी आकांक्षाओं, चेष्टाओं, दिशा-धाराओं को उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न। रूप से जोड़ देना। लोक-मानस लोक-प्रवाह जिस स्वार्थ एवं पतन की दिशा में बहता चला जा रहा है, उस विवशता से अपने को मुक्त कर लेना, मछली की तरह धार को चीरते हुए उलटे प्रवाह में तैर सकना। यह अन्तः स्थिति जिसे भी प्राप्त हो उसे बन्धन मुक्त कह सकते हैं। मोक्ष अथवा मुक्ति को जीवन का परम फल बताया गया है। उसका स्वरूप यही है।
मरने के बाद स्वर्ग या मुक्ति का लाभ मिल सकता है, ऐसा सोचना व्यर्थ है। यह उपलब्धियाँ इसी जीवन की हैं। इनका आनन्द इसी जीवन में, आज ही मिलना चाहिए। यह सब कुछ दृष्टिकोण के- आन्तरिक स्तर के- परिवर्तन पर निर्भर है। ‘मुक्ति’ जीवित रहने पर ही मिलती है। मरने के बाद जो कुछ होता है, वह जीवित स्थिति की प्रतिक्रिया भर कही जा सकती है। अस्तु आत्मिक प्रबल पुरुषार्थ की सुखद उपलब्धि इसी जीवन में मिलने की बात सोचनी चाहिए। जीवित रहते ही यह स्थिति मिलती है इसलिए उसे ‘जीवनमुक्ति’ भी कहा जाता है। मुक्ति-जीवन मुक्ति का ही संक्षेप है। निष्कृष्टता से- ओछेपन से छुटकारा पाने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में मुक्ति का आनन्द ले सकता है, इस सन्दर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत इस प्रकार है-
उद्वे गारन्दरहितः समयाः स्वच्छया धिया।
न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥
-महोपनिषद २।५७
जो उद्वेग और आनन्द से रहित, शोक अथवा हर्षोत्साह से ममत्व एवं स्वच्छ बुद्धि वाला है, वह जीवन मुक्त है।
घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी कुलं शील
च शक्तिश्चाष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः पाशबद्धः पशुः
प्रोक्तो पाशमुक्तः सदा शिवः।
-तन्त्र कौस्तुभ
घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील, शक्ति यह आठ पाश हैं। जो इनमें बँधा है, सो पशु है और जो मुक्त है सो शिव है।
मौनवान् निरहभावो निर्मानो मुक्त मत्सरः।
यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥
-महोपनिषद २।५०
जिसने अहंकार के भाव का परित्याग कर दिया है, मान-मत्सर के विकार से मुक्त हो गया है, जो उद्वेग रहित होकर कर्म में रत है, उसे ही ज्ञानीजन जीव-मुक्त कहते हैं।
यः समस्तार्थ जालेषु व्यवर्हार्यपि निस्पृहः।
परार्थेष्क्वि पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ॥
-महोपनिषद २।६२
विश्व के सभी अर्थ-जालों के मध्य स्थिर होकर भी पराये धन से निस्पृह रहने वाले धर्मात्मा के समान जो पुरुष निस्पृह रहता है, वह आत्मा में ही पूर्णता का अनुभव करने वाला महात्मा जीवन्मुक्त है।
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्यमति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ॥
-महोपनिषद् ४।७२
बन्धन और मोक्ष में केवल दो पद का अन्तर है। मेरा है यही बन्धन है। मेरा नहीं है, यही मुक्ति है।
जरा मरणम् पच्च राज्यं दारिद्र्यमेव च।
रम्यमित्येव यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥
-महोपनिषद २।५५
जो वृद्धावस्था, मृत्यु, विपत्ति, ऐश्वर्य- भोग एवं दारिद्रय में समभाव रखता हुआ सब स्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वह जीवन मुक्त है।
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः।
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः ॥
-योग वशिष्ठ
जैसे पक्षी आकाश में दोनों पंखों से उड़ते हैं; इसी प्रकार ज्ञान और कर्म से मुक्ति प्राप्त होती है।
मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।
-योग संध्या
किसी स्थान- विशेष में या लोकान्तर में निवास करने का नाम मोक्ष नहीं। अज्ञान रूपी हृदय ग्रन्थि का नाश ही मोक्ष है।
समाहितो ब्रह्मपरोप्रमादी शुचिस्तथैकान्तरतिर्यतेन्द्रियः।
समाप्नुयाद्योगमिमं महात्मा विमुक्तिमाप्नोति ततः स्वयोगतः ॥ -मार्कण्डेय पुराण
अप्रमादी, पवित्रात्मा, इन्द्रियजयी, सम्यक् बुद्धि, ब्रह्म परायण व्यक्ति अपने ही पुरुषार्थ से जीवन मुक्त बनते हैं।
नमोक्षो नभसः पृष्टे न पाताले न भूतले।
सर्वाशा संक्षये चेतः क्षयो मोक्ष इतीर्यते ॥
-योग वशिष्ठ
मोक्ष का स्थान आकाश, पाताल या भूतल नहीं है। भ्रान्तियों और संशयों का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है।
यस्तु शान्त्यादि युक्तः सन्मात्मत्वेन पश्यति।
स जायते परं ज्योतिरद्वैतं ब्रह्म केवलम्।
आत्म स्वरूपावस्थानं मुक्ति रित्यभिधीयते ॥
-शिव गीता
जब अन्तरात्मा का समाधान हो जाता है, शान्ति और समता रहती है तो अपने भीतर आत्म-ज्योति का दर्शन होता है। इसी अन्त स्थिति को मुक्ति कहते हैं।
दुःखाजन्मप्रकृत्ति दोष मिथ्या ज्ञानानः
मुत्तरोत्तरापाये तदननतरा प्रायादयवर्गः
-न्याय सूत्र
दुःख जन्य प्रवृत्ति, दोष, मिथ्या ज्ञान आदि अवरोधों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है।
नित्याऽनित्य विचाराऽनित्य संसार सुख दुःख
विषय समस्त क्षेत्र ममता बन्धक्षपो मोक्षः।
-निरात्ववोपनिषद
ममता, शाश्वत और नाशवान का -सुख और दुःख का, गलत-सही निर्धारण ही बन्धन और मोक्ष का कारण है।
आनन्दमय कोश अन्तरात्मा का उच्चतम स्तर है। उसमें पवित्रता एवं उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ने से समाधि, स्वर्ग और मुक्ति का दिव्य रसास्वादन सम्भव होता है। इस ब्रह्मानन्द को ही परमानन्द कहा गया है। सच्चिदानन्द प्रभु की उपलब्धि अपने ही अन्तःकरण में इसी आन्तरिक प्रगति के आधार पर सम्भव होती है। आनन्द का वास्तविक स्वरूप यही है। आनन्दमय कोश की साधना से इसी चरम उपलब्धि की दिशा में बढ़ चलना सम्भव होता है।
आनन्दमय कोष की साधना अन्तिम है। इसी में २७ प्रकार की समाधियाँ लगती हैं। शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, अनहद ध्वनि से दैवी सन्देश सुनाई पड़ते हैं। बिन्दु साधना से ऋण और धन विद्युत कणों की गतिविधि पर नियन्त्रण करने की सामर्थ्य पैदा होती है। आप्ति और व्याप्ति कला के अभ्यास से ओजस् और तेजस् तत्वों पर अधिकार हो जाता है। तुरीयावस्था में जो सच्चिदानन्द का अनुभव- होता है, उसके बारे में तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि- यदि कोई मनुष्य पूर्ण स्वस्थ, सुशिक्षित, गुणवान् सामर्थ्यवान् सौभाग्यवान् एवं समस्त संसार की धन-सम्पत्ति का स्वामी हो, तो उसे जो आनन्द हो सकता है, उसे एक मानुषी आनन्द कहेंगे। ऐसे करोड़ों गुने आनन्द को तुरीयावस्था का ब्रह्मानन्द कहते हैं। इस सुख का आस्वादन करके मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।
इन पंच कोषों को पार करना और पार करने की इस यात्रा के समय में प्राप्त होने वाले सुखों एवं चमत्कारों का प्रत्यक्ष करना गायत्री साधना द्वारा ही होता है। अन्य अभ्यासों में साधना में बहुत समय तथा श्रम लगाना पड़ता है, फिर भी पूर्ण सफलता नहीं मिलती। योगीजनों को कष्टसाध्य लम्बा मार्ग गायत्री द्वारा बहुत सरल हो जाता है और घर में रहते हुए गृहस्थ व्यक्ति, वनवासी, तपस्वियों जैसी सफलता प्राप्त कर लेता है। पाँचों बन्धनों से छुटकारा पाकर परम लक्ष्य को प्राप्त करना जितना इस मार्ग से सरल है, उतना और किसी मार्ग- से सम्भव नहीं।