विज्ञानमय कोश आत्म-चेतना का वह गहन अन्तराल है जिसका सीधा सम्बन्ध ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ बनता है। अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश व्यक्ति चेतना की परिधि में बँधे रहते हैं। उनके विकास का लाभ मनुष्य के निजी उत्कर्ष में दृष्टिगोचर होता है। सम्पर्क क्षेत्र के व्यक्ति उससे लाभ उठाते हैं। बलिष्ठ शरीर, प्रखर प्रतिभा और विद्या बुद्धि के सहारे कितने ही महत्वपूर्ण कार्य सधते हैं। व्यक्तित्व निखरता और क्षमता सम्पन्न बनता है। प्रगति के आरम्भिक चरण यही हैं। क्रमिक उन्नति करते हुए इसी मार्ग से चरम लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है।
ज्ञान, सामान्य लौकिक जानकारी को कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसे शिक्षा भी कहा जा सकता है। विज्ञान का तात्पर्य है- विशेष ज्ञान। अध्यात्म प्रयोजनों में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है, यों व्यवहार में विज्ञान का तात्पर्य साइन्स समझा जाता है। उसे पदार्थ विज्ञान का संक्षेप माना गया है। पर अध्यात्म में वैसा नहीं है। सामान्य अर्थात् काम काजी लौकिक, भौतिक व्यावहारिक विशेष अर्थात् आन्तरिक, अन्तरंग, सूक्ष्म, चेतन, आध्यात्मिक। विशेष ज्ञान अर्थात् विज्ञान। सामान्य बुद्धि-लौकिक कुशलता सम्पन्न होती है। असामान्य बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है। उसके द्वारा आन्तरिक प्रगति और आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन जुटाया जाता है। विज्ञान मय कोश चेतना की वह परत है, जो अपने भीतर उच्चस्तरीय विभूतियों को छिपाये रहती है। कोश भण्डार को भी कहते हैं। विशेष अलौकिक ३ जानकारी, विशेष शक्ति, अन्तःकरण की उच्चस्थिति इस संस्थान की उत्पत्ति एवं उपलब्धि है। इस सामर्थ्य के सूत्र यों रहते तो अपने ही अन्तःकरण में है, पर वस्तुतः उनका सम्बन्ध सूक्ष्म जगत में संव्याप्त ब्रह्माण्डीय चेतना से जुड़ा रहता है।
छोटे बैंक बडे़ बैकों से सम्बद्ध हों तो आवश्यकतानुसार उनके बीच आदान-प्रदान होता रहता है। जरूरत के समय छोटे बैंक बड़े संस्थानों से संरक्षण और सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म जगत की हलचलों की जानकारी और उपयोगी विभूतियों को उपलब्ध कर सकना उनके लिए सम्भव हो जाता है जिनका विज्ञानमय कोश समुन्नत स्तर का बन चुका है। प्रसुप्ति तो मरण के समतुल्य होती है। सोता हुआ मनुष्य अचेत पड़ा रहता है, उसके लिए दूसरों के निमित्त कुछ कर सकना तो दूर अपने वस्त्र सम्भाल सकना तक कठिन हो जाता है। भौतिक जगत के पाँच तत्वों की ही तरह आत्मिक जगत की चेतन सत्ता पाँच प्राणों में विभक्त है। साधना विज्ञान के अनुसार उन्हें पाँच कोश कहा जाता है। यदि वे जागृत हों तो सामान्य काया भी देवोपम विशिष्टताओं का परिचय देगी, किन्तु यदि सुषुप्ति छाई हुई हो तो फिर निर्जीव निस्तब्धता के अतिरिक्त और कुछ भी दृष्टिगोचर न होगा।
विज्ञानमय कोश की विशिष्ट साधनाएँ हैं उनके माध्यम से प्रयत्नपूर्वक उस केन्द्र में सन्निहित क्षमताओं का अभिवर्धन किया जा सकता है। साधना के अनेक प्रकार हैं, उनमें से कुछ योगाभ्यास एवं तपश्चर्या स्तर के हैं। कुछ ऐसे हैं जिनमें चरित्र निष्ठा एवं समाज निष्ठा में संलग्न रह कर चेतना के अन्तराल को परिष्कृत किया जाता है। आत्म-निर्माण एवं लोक-निर्माण में आदर्शवादी श्रद्धा सद्भावना को अपनाते हुए तत्पर रहा जाय तो वे क्रिया-कलाप भी उच्चस्तरीय साधना का प्रयोजन पूरा करते हैं। चरित्र को स्वर्ण की तरह तपा लेना संयम की अग्नि में अपने कषाय-कल्मषों को जला डालना विशुद्ध तप साधना ही है। अपने स्वार्थों को परमार्थ में जोड़ देना- व्यष्टि को समष्टि में विलय कर देना-इसे योग ही कहा जायेगा। कितने ही महामानव अपनी जीवन प्रक्रिया को उत्कृष्ट आदर्शवादिता में ढाल कर एक प्रकार से सन्त ही बने रहे हैं, भले ही उन्होंने वैसी वेषभूषा धारण न की हो। ऐसे लोगों को भी विज्ञानमय कोश की साधना का परिपूर्ण लाभ मिलता रहा है।
साधना इस प्रकार से की गई या उस तरह, इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। बात कर्मकाण्डों के विधि- विधानों की नहीं, अन्तराल में आदर्शवादी उत्कृष्टता को प्रतिष्ठापित करने की है। उसे जिस भी प्रकार बो लिया जाय, अंकुर उगेगा और समयानुसार विशाल वृक्ष बनकर पल्लवित और फलित होगा।
उच्चस्तरीय साधना प्रक्रिया के अन्तर्गत जो उपासनात्मक विधि-विधान बताये जाते हैं, उन बीजांकुरों में भी खाद पानी तो चरित्र निष्ठा और समाज निष्ठा का ही देना पड़ेगा। कोई साधन विधि कितनी ही शास्त्र सम्मत एवं अनुभूत क्यों न हो अन्तःकरण का स्तर निकृष्ट बने रहने पर विकसित न हो सकेगी। मरुस्थल में लगाये हुए बहुमूल्य पौधे भी उद्यान कब बन पाते हैं ? ताप तापों की जलन साधना को भी उसी तरह जला देती है जैसे कि तप्त बालू में लगाये गये पौधे मुरझाते और नष्ट होते हैं।
जपयोग, लययोग, ध्यानयोग, हठयोग, राजयोग प्राणयोग, ऋजयोग, विभुयोग आदि की तरह ही एक योग साधन जीवन साधना भी है। इसे अन्य किसी योगीभ्यास से कम न माना जाय। व्यायामों के कला कौशल सीखकर दंगल पछाड़ने वाले पहलवान बनते हैं, सरकस में भी उनकी प्रशंसा होती है। किन्तु ऐसे भी अनेक व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने व्यायामशाला में प्रवेश नहीं किया और उन, विशिष्ट कला-कौशलों को नहीं सीखा जिन्हें वहाँ बताया और अभ्यास कराया जाता है। फिर भी उन्होंने आहार- विहार के संयम-नियम दिनचर्या, प्रकृति, अनुसरण प्रसन्न सन्तुष्ट स्वभाव, उच्च दृष्टिकोण जैसे आधार अपनाकर निरोग, बलिष्ठ, दीर्घ जीवन प्राप्त किया। व्यायामशाला में लगने वाला समय और श्रम उन्होंने अन्य अधिक महत्वपूर्ण कामों में लगाया। यह नीति भी दूरदर्शिता पूर्ण है। इसमें व्यायाम अभ्यास से कम बुद्धिमत्ता नहीं हैं अन्यान्य योगाभ्यासों की तुलना में जीवन परिष्कार की योग साधना किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण और कम फलप्रद नहीं है। उत्कष्ट चिन्तन, आदर्श कर्तृत्व परमार्थ प्रयोजनों में सघन तत्परता रखने वाले उदात्त महामानव भी अपने ढंग के सिद्ध पुरुष ही बनते हैं। उनका यश एवं वर्चस्व योगी, तपस्वियों से किसी भी प्रकार कम नहीं रहता, आत्म-कल्याण और विश्व कल्याण में उनकी भूमिका आत्मिक प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचे हुए लोगों के समतुल्य ही होती है।
साधना से सिद्धि के तात्पर्य यदि चमत्कारी कौतुक कोतूहलों का प्रदर्शन और उस आधार पर कीर्ति सम्पादन हो तो उस उपलब्धि को ओछे स्तर की विडम्बना मात्र ही कहा जायेगा। इसीलिए लोक प्रचलन की यह मान्यता गलत ही कही जायेगी कि साधन की सफलता सिद्धि से आँकी जानी चाहिए। कितने ही महामानव लौकिक सफलता की दृष्टि से नितान्त असफल रहे हैं। फिर भी उनकी सिद्ध स्थिति पर उँगली उठाये जाने का कोई कारण नहीं बना।
महा प्रभु ईसा मसीह के जीवन में मात्र तेरह उनके शिष्य बने थे और वे भी परीक्षा की घड़ियों में दुर्बल सिद्ध हुए। ईसा को फाँसी लगी। यह प्रत्यक्ष असफलता ही है, फिर भी उनकी महानता में इससे कोई अन्तर नहीं आया। दधीचि के अस्थिदान से लेकर सुकरात के विष पान तक का लम्बा इतिहास उनका है, जिन्होंने कष्ट उठाये और घाटे सहे। सीता से लेकर रानी लक्ष्मीबाई तक की कथा- गाथाओं में असफलताओं का ही समावेश है। गुरुगोविन्द सिंह से लेकर भगतसिंह तक की परम्परा अपनाने वाले को न सफल कहा जा सकता है न सिद्ध। अस्तु साधना से सिद्धि का तात्पर्य यदि लौकिक सफलता, चमत्कार या ख्याति के रूप में देखा जायेगा तो उस परख प्रक्रिया को खोटी कहना पड़ेगा। हाँ आदर्शों की स्थापना में सफलता की बात कही जाय तो उसे तथ्यपूर्ण माना जायेगा। कितने ही महामानव ऐसे हुए हैं, जो जीवन भर कष्ट सहते रहे, घाटे में रहे, ठगे गये, पग- पग पर असफल हुए तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने, फिर भी उन्होंने ऐसे आदर्शों की स्थापना की जिनके पद चिन्हों पर चलकर असंख्यों ने प्रकाश पाया अपना जीवन धन्य बनाया। उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधना की यही सच्ची सिद्धि है कि उन कठिनाइयों की अग्नि परीक्षा में साधक खरा उतरे। प्रलोभन और भय उसे विचलित न कर सकें। दूसरों के लिए ऐसी परम्परा छोड़े जिसका अनुकरण करने वाले मनुष्य जन्म को सार्थक बना सके। राजा हरिश्चन्द्र का नाटक बचपन में गाँधी जी ने देखा और वे उससे इतने प्रभावित हुए कि हरिश्चन्द्र ही बनकर रहे। महामानव साथियों लिए-अगली पीढ़ियों के लिए ऐसे ही अनुकरणीय उदाहरण छोड़कर जाते हैं। यही उनके स्मरणीय और सराहनीय अनुदान होते हैं। सच्चे अर्थों में साधना की सिद्धि यही है। जीवन साधना का योगाभ्यास उसी प्रकार की सिद्धियों से भरा पूरा होता है।
संसार के महामानवों में से अधिकांश विपन्न परिस्थितियों और दरिद्र परिवारों में जन्मे। उन्हें न तो बड़े लोगों का परिचय सहयोग प्राप्त था और न साधनों का परिस्थितियों का ही ऐसा सुयोग प्राप्त था। जिसके सहारे प्रगति की सम्भावना सोची जा सके। सामान्य लोग उस स्थिति में किसी प्रकार जिन्दगी की लाश ही ढोते हैं। किन्तु जिनके व्यक्तित्व में सदगुणों की सम्पदा भरी होती है, वे अपने साथियों का हृदय जीतते हैं, सहयोग खींचते हैं। साधन उनके पास दौड़ते चले आते हैं और प्रगति की सम्भावनाएँ विकसित होती चली जाती हैं। कुछ उदाहरण गिना देने की आवश्यकता नहीं। व्यक्तित्व की महानता उत्कृष्ट चरित्र, उदात्त व्यवहार एवं परिष्कृत दृष्टिकोण के कारण ही उनकी चुम्बकीय शक्ति, प्रखर बनी है। उसी ने उन्हें ऐतिहासिक महामानवों की पंक्ति में खड़ा किया है। उनके व्यक्तिगत उत्कर्ष और समाज को दिये अनुदानों का मूल्यांकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने साधना से सिद्धि का सिद्धान्त पूरी तरह प्रमाणित कर दिया। जीवन साधना का योगाभ्यास ऐसा है जिसकी सिद्धि बाजीगरी कौतुक जैसी चमक दिखा कर समाप्त नहीं होती, वरन् अद्भुत सफलताओं के रूप में- लोक- श्रद्धा के रूप में- इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित अमिट अक्षरों के रूप में- सदा सर्वदा जीवन्त बनी रहती है। ऐसे महामानवों की नामावली, जीवन चरित्रों का पर्व तो जितना साहित्य उलट कर हम जीवन भर तैयार करते रह सकते हैं।
कौतूहलों की बात ही यदि 'सिद्धि' मानी जाय तो सज्जनता से प्रभावित होकर दिव्य शक्तियों द्वारा अनुग्रह बरसाने की कथा-गाथाओं पुराणों के पन्ने-पन्ने पर पढ़ी जा सकती हैं। हनुमान को राम का, अर्जुन को कृष्ण का अनुग्रह अकारण ही नहीं मिला था। अपनी पात्रता सिद्ध करके ही वे भगवान के प्रिय पात्र और शक्ति सम्पन्न बने थे। सुकन्या, सावित्री, अनुसूया, दमयन्ती गान्धारी आदि महिलाओं में दिव्य सामर्थ्य होने की कथाऐं बताती हैं कि उन्होंने कोई विशेष योगाभ्यास नहीं किये थे, वरन् उच्च चरित्र के आधार पर ही वे वैसे चमत्कार दिखाने में समर्थ हुई जो उनके चरित्रों में बताये जाते हैं। शबरी, सुदामा, कर्ण, अम्बरीष, रंदास, कबीर, नानक, सूर, तुलसी एकनाथ, रामदास, विवेकानन्द, गान्धी आदि की जीवन गाथाओं में योगाभ्यास का कम और लोक साधना का स्थान प्रमुख रहा है। फिर भी उन्हें दैवी अनुग्रह का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। यहाँ तक कि जटायु जैसे पक्षी और सेतुबन्ध के समय पुरुषार्थ करने वाली गिलहरी तक को भगवान का प्यार प्राप्त हुआ था।
आत्मा अनन्त शक्तियों का भाण्डागार है। उसमें अपने उद्गम केन्द्र परमेश्वर की समस्त शक्तियाँ बीज रूप में सन्निहित हैं। उन्हें उगाने और बढ़ाने के लिए चरित्र निष्ठा की खाद और उदार सेवा साधना का पानी लगाना पड़ता है। इस नीति को अपना कर कोई भी साधक बुद्धिमान माली की तरह अपने अन्त:क्षेत्र में ऋद्धि-सिद्धियों से भरा पूरा उद्यान खड़ा कर सकता है। इसके लिए बाहर से कुछ ढूँढ़ने, लाने या पाने की आवश्यकता नहीं है। मात्र कषाय-कल्मषों की परतों को हटा देने भर का साहस सँजो लेना पर्याप्त है। आत्म शोधन और आत्म-परिष्कार ही विभिन्न साधनाओं का वास्तविक उद्देश्य है। अंगारे पर चढ़ी राम की परत ही उसे धूमिल और निस्तेज बना देती है। यह परत हटते ही अंगारा फिर अपनी गर्मी और चमक का परिचय देने लगता है। निकृष्ट चिन्तन और घृणित कर्तृत्व से यदि हाथ खींच लिया जाय तो फिर आत्मिक प्रखरता के कारण उपलब्ध होने वाली असंख्य ऋद्धि-सिद्धियों के मार्ग में और कोई बड़ा व्यवधान शेष नहीं रह जाता।
विज्ञान मय कोश दो प्रयोजन पूरे करता है। प्रथम है- अन्तःकरण की चित्त तथा अहंकार परतों का अनावरण, उन्नयन, परिष्कार। सुसंस्कारों की जड़ें इसी में प्रवेश करती और फैलती हैं। जीवन को कल्प- वृक्ष स्तर का बना सकने के उपयुक्त क्षेत्र यही है। उस कोश को समुन्नत बनाने के लिए किये गये प्रयास चाहे इस प्रकार के हों चाहे उस प्रकार के- व्यक्तित्व में प्रखरता उत्पन्न करते हैं, और उसके सहारे सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर बढ़ चलना सम्भव होता है।
विज्ञानमय कोश का दूसरा प्रयोजन है अन्त:चेतना की उन गहरी परतों को सजग करना जो सूक्ष्म जगत के साथ अपना सम्बन्ध बनाने और अधिकार बताने में समर्थ हैं। अतीन्द्रिय क्षमताओं का भण्डार यही है। उन्हें जगा लेने पर सीमा-बन्धन की दीवारें टूटती हैं। असीम के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। विज्ञानमय कोश वह द्वार है जिसे खोलकर हम बन्धन मुक्त-जीवन युक्त होते हैं। उसी द्वार में प्रवेश करके वह प्राप्त किया जा सकता है जिसे पाने की आकांक्षा से अन्तरात्मा को सदा उद्विग्न और अशान्त रहना पड़ता है।