गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

अन्तराल में समाई दिव्य शक्तियाँ सिद्धियाँ

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अपनी इसी काया में समस्त देवताओं, समस्त शक्तियों, अतीन्द्रिय क्षमताओं का निवास है। हृदय गुहा में विराजमान आत्मसत्ता ही ब्राह्मी चेतना का आगार है। विभूतियाँ उन्हीं के दिव्य निर्झर हैं। जो प्रसुप्त स्थिति में अन्तराल में दबी पड़ी रहती हैं। यदि उन्हें योगाभ्यास एवं तप साधना द्वारा जाग्रत कर लिया जाय तो अपने भीतर ही वह सब कुछ मिल सकता है जिसे ऋद्धि सिद्धियों के नाम से जाना जाता है और जिसकी तलाश हम बाहर करते और भटकते हैं।

वस्तुतः मनुष्य के तीन शरीर हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। इनमें एक से बढ़कर एक उच्चस्तरीय दिव्य क्षमताऐं विभूतियाँ विद्यमान हैं। इनमें स्थूल शरीर वह है जो चलता, फिरता खाता, सोता आँखों से दीख पड़ता है। सूक्ष्म शरीर वह है जिसमें अदृश्य शरीर रहता और प्रेत पितरों जैसा वायुभूत होता है। कारण शरीर वह है जिसकी पहुँच प्रकृति के अन्तराल ब्राह्मी चेतना के गहन स्तर तक है। पर इन तीनों शरीरों में से प्राय: लोगों का स्थूल शरीर ही सक्रिय रहता है और सूक्ष्म तथा कारण प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। सूक्ष्म शरीर पर स्थूल शरीर के प्रभाव संस्कार जमते रहते हैं और वे अगले जन्म में स्वर्ग नरक में अपने पूर्व कृत्यों के अनुरूप चेतनात्मक प्रसन्नता या सन्ताप सहते रहते हैं। कारण शरीर पर मात्र संकल्प और वातावरण का प्रभाव पड़ता है।

इन तानों ही शरीरों को परिष्कृत बनाना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। प्रयत्न करके वह इनमें से जिसे चाहे विकसित कर सकता है और विकास का आनन्द ले सकता है। इन आनन्द और गौरव भरी सफलताओं को ही सिद्धियों कहते हैं। इनमें स्थूल शरीर की सिद्धियाँ हैं स्वस्थता, बलिष्ठता, सौंदर्य, सम्मान, वैभव सहयोग प्रशंसा आदि। शरीर को ठीक तरह साधने वाले, जीवन साधना की उद्येश्यपूर्ण रीति नीति अपनाने वाले, इन सभी को या अधिकांश को उपलब्द कर सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर से वे कार्य हो सकते हैं जो शरीर रहित आत्माऐं यज्ञ, गन्धर्व, पितर आदि जान या कर सकते हैं। विज्ञानवेत्ता इन्हें अतीन्द्रिय क्षमताऐं कहते हैं। दूर श्रवण, दूरदर्शन, भविष्य कथन, रहस्यों का उद्घाटन, परकाया प्रवेश, विचारों और शरीरों पर आधिपत्य, अपनी क्षमता के अनुरूप दूसरों को लाभ या हानि पहुँचाना यह सूक्ष्म शरीरों का काम है। वे उत्तम प्रकृति के हों तो अदृश्य सहायकों के रूप में कितनी ही महत्त्वपूर्ण सहायताऐं करते रह सकते है। निकृष्ट प्रकृति के हों तो उनके द्वारा दूसरों को अनेक प्रकार की हानियाँ पहुँचाना संभव है। उन्हें एक प्रकार से शरीर रहित और अदृश्य जगत में चलती रहने वाली गतिविधियों से भी किसी सीमा तक परिचित कह सकते हैं।

कारण शरीर जिसे अन्तरात्मा भी कहते हैं, .यदि सशक्त हो चले तो उचित अनुचित कार्यों का बोध ही नहीं कराता, कुकर्मों से रोकता और सन्मार्ग पर चलाता है। उमंगों का स्तर ऊँचा हो. तो देव स्तर के दैवी सामथ्यों से भरे पूरे होते हैं। उनमें व्यक्तियों को ऊँचा उठाने और दिशा देने की सामर्थ्य होती है। वे भवितव्यताओं को जानने तक ही सीमित नहीं होते, वरन् उन्हें सुधारने और बदलने में भी समर्थ होते हैं। वे अपने उच्च दृष्टिकोण के कारण हर स्थिति में स्वर्गीय प्रसन्नता अनुभव करते हैं और कुसंस्कारों के भवबन्धन काट सकने के कारण जीवन मुक्त भी होते हैं। इसके लिए शरीर त्याग की आवश्यकता नहीं होती।

इस तरह स्थूल शरीर में समाहित दोनों सूक्ष्म और कारण अपने अपने काम करते रहते हैं और .अधिक ऊँची स्थिति प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार स्थूल शरीर की सिद्धियाँ प्राप्त लोगों को महापुरुष, सूक्ष्म शरीर वालों को .सिद्ध पुरुष और कारण शरीर की दृष्टि से विकसित लोगों को  देवात्मा या देव पुरुष कहते हैं। इन ऊँची स्थिति में पहुँची हुई आत्माओं को केवल भगवान के महान कार्यों में योगदान देने के लिए जन्मना पड़ता है। इन्हें कर्मभोग के लिए जन्म मरण के फेर में पड़ने और परिणाम सहने के लिए बाधित नहीं होना पड़ता है।

समाधि उस स्थिति का नाम है जिसमें मनुष्य सदा उच्च लक्ष्य की ही बात सोचे और वैसी ही क्रियाऐं करे। सांसारिक व्यवधान जिसे मार्ग से डगमगा न सकें। इसके  दो स्वरूप हैं सविकल्प और निर्विकल्प। जड़ समाधि वह होती है जिसमें मनुष्य शरीर की श्वास प्रश्वास, रक्त संचार, क्षुधा पिपासा आदि पर नियन्त्रण स्थापित करके जड़वत् स्थिति बनाकर उसमें मूर्च्छित जैसी स्थिति में बना रहता है। ऐसी समाधि में मनोबल की प्रखरता तो सिद्ध होती है, पर उससे अध्यात्म स्थिति की उत्कृष्टता से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह. एकाग्रता की ही कुछ अधिक ऊँची स्थिति है। एकाग्रता एक मानसिक सफलता मात्र है। इससे कबीर के शब्दों में वह सहज समाधि स्थिति कहीं भली जिसमें चेतना उच्च भावनाओं में निरन्तर डूबी रहती है।

वस्तुतः उच्चस्तरीय सिद्धियाँ आत्मचेतना के ब्राह्मी चेतना से गुँथ जाने पर ही प्रस्फुटित होती हैं। इसके लिए योगाभ्यास और तप साधना का आश्रय लिया जाता है। चिन्तन, चरित्र, व्यवहार एवं गुण, कर्म, स्वभाव में तदनुरूप श्रेष्ठता का शालीनता का समावेश किया जाता है। इस प्रकार से जिन सिद्धियों तथा दिव्यशक्तियों की उपलब्धि होती है, उनका सुविस्तृत वर्णन पातंजलि योग सूत्र विभूतिपाद में सूत्र १६ से ४४ तक में किया गया है। फू और भविष्य का ज्ञान, सभी प्राणियों की भाषा समझने, पूर्व जन्म के बारे में जानने, दूसरी के मन की बात समझने की क्षमता, अन्तर्ध्यान, आत्मबल, दूरर्शन दूर: श्रवण,. सर्वज्ञान भूख प्यास की निवृति सूक्ष्मशरीरधारी दिव्य शक्तियों से सम्पर्क आदि अनेकों प्रकार की शक्तियाँ योग साधना से प्राप्त होने का उल्लेख है। इसके ३६ वें सूत्र में ६ सिद्धियों का वर्णन करते हुए कहा गया है "ततः प्रातिभ श्रावण वेदनदर्शस्वाद वार्ता जायते '' अर्थात् उससे प्रातिभ श्रवण, वेदन आदर्श, अस्वाद और वार्ता छः सिद्धियाँ प्रकट होती हैं। योगसूत्र भेजवृत्ति भाष्य में इन सिद्धियों का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है।

(१)प्रातिभ अर्थात् अतीन्द्रियव्याबहित छिपी हुई वस्तुओं, सुदूर स्थिति अतीत और अनागत वस्तुओं, घटनाओं, को जानने की क्षमता (२ )श्रवण श्रोतेन्द्रिय से दिव्य ध्वनि और दूरवर्ती शब्दों का श्रवण( ३ )वेदना दिव्य स्पर्श का अनुभव (४) आदर्श-दिव्य दर्शन की क्षमता (५ )आस्वाद दिव्य रस का आस्वादन करने की सामर्थ्य( ६ ) वार्ता नासिका द्वारा दिव्य गन्धों का अनुभव करने की क्षमता।

इन क्षमताओं की प्राप्ति कैसे होती है? इस सम्बन्ध में महर्षि पातंजलि ने कहा है कि चेतना के विकास हेतु किए जाने वाले प्रयासों, ध्यान धारणा के अभ्यासों से ये क्षमताऐं प्राप्त होती है। आत्मस्वरूप में की गई ध्यान धारणा से प्रज्ञा की उत्पत्ति एवं छः सिद्धियों के अतिरिक्त आठ अन्य सिद्धियाँ भी हस्तगत होती हैं। इन सिद्धियों को अणिमा, लघिमा महिमा, गरिमा, प्राप्ति प्राकाम्य वशित्व ईशत्व नाम से जाना जाता है।

सूक्ष्म और कारण शरीरों को साध लेने पर काय सम्मत और अनभिज्ञात नामक सिद्धियों के प्राप्त होने का भी उल्लेख शास्त्रकार ने किया है। काय सम्मत से तात्पर्य शरीर की सुन्दर आकृति, दीप्तिमान अंग,. अंगों का बलवान और वज्र की भाँति दृढ़ और परिपूर्ण हो जाना है। अनभिक्षत से तात्पर्य साधक के कार्य में पंचतत्व अपने गुण और लक्षणों के कारण बाधा न पहुँचाने से है। वह पृथ्वी के भीतर भी उसी प्रकार प्रवेश कर सकता है।जैसे कोई व्यक्ति जल में प्रवेश कर लेता है। सर्दी, वर्षा, ग्रीष्म, .अग्नि आदि कोई भी भूतों के धर्म उसके शरीर में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचा सकते। इन सिद्धियों की उपलब्धि का मार्ग बताते हुए पातंजलि ने कहा है कि ए सिद्धियाँ पाँचों महाभूतों पर विजय प्राप्त करने से होती हैं। अपनी चेतना को पूर्णतया जाग्रत और विकसित कर लिया जाय तो कोई कारण नहीं कि अन्तराल में समाहित दिव्यशक्तियों का उन्नयन और उनका सदुपयोग करना सम्भव न हो सके।

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