गायत्री के पंचमुखी चित्रों एवं पंचमुखी प्रतिमाओं का प्रचलन इसी प्रयोजन के लिए है कि इस महामन्त्र की साधना का अवलम्बन करने वालों को यह विदित रहे, कि हमें आगे चलकर क्या करना है? जप, ध्यान, स्तोत्र, पाठ- पूजन, हवन, यह आरम्भिक क्रिया- कृत्य हैं। इनसे शरीर की शुद्धि और मन की एकाग्रता का प्रारम्भिक प्रयोजन पूरा होता है। इससे अगली मंजिलें कड़ी हैं। उनकी पूर्ति के लिए साधक को जानकारी प्राप्त करनी चाहिए और उस मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक तत्परता, दृढ़ता एवं क्षमता का सम्पादन करना चाहिए। इतना स्मरण, यदि साधक रख सका तो समझना चाहिए कि उसने गायत्री पंचमुखी चित्रण का प्रयोजन ठीक तरह से समझ लिया।
वस्तुतः गायत्री परम ब्रह्म परमात्मा की विश्व- व्यापी महाशक्ति है। उसका कोई स्वरूप नहीं है। यदि स्वरूप का आभास पाना हो तो वह प्रकाश रूप में हो सकता है। ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। गायत्री का देवता सविता है। सविता का अर्थ है सूर्य प्रकाश पुंज। जब गायत्री महाशक्ति का अवतरण साधक में होता है तो साधक को ध्यान के प्रकाश बिन्दु एवं वृत्त का आभास मिलता है। उसे अपने हृदय, शिर, नाभि अथवा आँखोंमें छोटा या बड़ा प्रकाश पिण्ड दिखाई पड़ता है। यह कभी घटता कभी बढ़ता है। इसमें कई तरह की, कई आकृतियाँ भी, कई रंगों की प्रकाश किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। यह आरम्भ में हिलती- डुलती रहती हैं, कभी प्रकट कभी कभी लुप्त होती है पर धीरे- धीरे वह स्थिति आ जाती है कि विभिन्न आकृतियाँ, हलचलें एवं रंगों का निराकरण हो जाता है। प्राथमिक स्थिति केवल प्रकाश छोटे आकार का एवं स्वल्प तेज का होता है किन्तु जैसे- जैसे आत्मिक प्रगति ऊर्ध्वगामी होती है, वैसे- वैसे प्रकाश वृत्त बड़े आकार का, अधिक प्रकाश का अधिक उल्लास भरा दीखता है, जैसे प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य की गरमी पाकर कमल की कलियाँ खिल पड़ती हैं वैसे ही अन्तरात्मा इस प्रकाश अनुभूति को देख कर ब्रह्मानन्द का, परमानन्द का सच्चिदानन्द का अनुभव करता है। जिस प्रकार चकोर रात भर चन्द्रमा को देखता रहता है वैसी ही साधक की इच्छा होती है कि इस प्रकाश को ही देखकर आनन्द विभोर होता रहे। कई बार ऐसी भावना भी उठती है कि जिस प्रकार दीपक पर पतंगा अपना प्राण होम देता है, अपनी तुच्छ सत्ता को प्रकाश की महत्ता में विलीन होने का उपक्रम करता है वैसे ही मैं भी अपने अहम् को इस प्रकाश रूप ब्रह्म में लीन कर दूँ ।।
यह निराकार ब्रह्म के ध्यान की थोड़ी झाँकी हुई। अनुभूति की दृष्टि से साधक को ऐसा भान होता है। मानो उसे ब्रह्म- ज्ञान की, तत्व दर्शन की अनुभूति हो रही हो, ज्ञान के सारांश का जो निष्कर्ष है उत्कर्ष आदर्शवादी क्रिया- कलाप से जीवन को ओत- प्रोत कर लेना वही आकांक्षा एवं प्रेरणा मेरे भीतर जाग रही है। जाग ही नहीं वरन संकल्प का, निश्चय का, अवस्था का, तथ्य का रूप धारण कर रही है। प्रकाश की अनुभूति का यही चिन्ह है। माया मोह और स्वार्थ- संकीर्णता का अज्ञान तिरोहित होने से मनुष्य विशाल दृष्टिकोण से सोचता है और महान आत्माओं जैसी साहसपूर्ण गतिविधियाँ अपनाता है। उसे लोभी और स्वार्थी, मोहग्रस्त, मायाबद्ध लोगों की तरह परमार्थ पथ में साहसपूर्ण कदम बढ़ाते हुए न तो झिझक लगती है और न संकोच होता है। जो उचित है उसे करने के लिए अपनाने के लिए निर्भीकता पूर्वक साहस भरे कदम उठाता हुआ श्रेय पथ पर अग्रसर होने के लिए द्रुतगति से बढ़ चलता है।
यह तो गायत्री रूपी परब्रह्म सत्ता के उच्चस्तरीय ज्ञान एवं, ध्यान का स्वरूप हुआ। प्रारम्भिक स्थिति में ऐसी उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ सम्भव नहीं उस दशा में प्रारम्भिक क्रम ही चलाना पड़ता है। जप, पूजन, ध्यान, स्तवन, हवन जैसे शरीर साध्य क्रिया- कलाप ही प्रयोग में आते हैं। तब चित्त या प्रतिभा का अवलम्बन ग्रहण किए बिना काम नहीं चल का सकता। प्रारम्भिक उपासना, साकार माध्यम से ही सम्भव है। निराकार का स्तर काफी ऊँचे उठ जाने पर आता है। उस स्थिति में भी प्रतिभा विरोध या परित्याग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखकर संचित संस्कार को बनाए रहना पड़ता है। इमारत की नींव में पड़े हुए कंकड़- पत्थर दृष्टि से ओझल हो जाते हैं फिर भी उनका उपहास उड़ाने, परित्याग करने या निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखकर संचित संस्कार को बनाए रहना पड़ता है। इमारत की नींव में कंकड़- पत्थर भरे जाते हैं। नींव जम जाने पर तरह- तरह के डिजाइन की इमारतें उस पर खड़ी होती हैं। नींव में पड़े हुए कंकड़- पत्थर दृष्टि से ओझल हो जाते हैं- फिर भी उनका उपहास उड़ाने, परित्याग करने या निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वरन यह मानना पड़ता है कि उस विशाल एवं बहुमूल्य इमारत का आधार वे नींव में भरे हुए कंकड़- पत्थर ही हैं। साकार उपासना की अध्यात्मिक प्रगति भी नींव भरना कहा जा सकता है। आरम्भिक स्थिति में उसकी अनिवार्य आवश्यकता ही मानी गई है। अस्तु अध्यात्म का आरम्भ चिर अतीत से प्रतिमा पूजन के सहारे हुआ है और क्रमशः आगे बढ़ता चला गया है। गायत्री महाशक्ति की आकृति का निर्धारण भी इसी सन्दर्भ से हुआ है। अन्य देव प्रतिमाओं की तरह उसका विग्रह भी आदिकाल से ही ध्यान एवं पूजन में प्रयुक्त होता रहा है।
सामान्यतया एक मुख और दो भुजा वाली मानव आकृति प्रतिमा ही अधिक उपयुक्त है। पूजन और ध्यान उसी का ठीक बनता है। सगी माता मानने के लिए गायत्री को भी वैसे ही हाथ- पैर वाली होना चाहिए। जैसा कि साधक होता है। इसलिए ध्यान एवं पूजन में सदा से दो भुजाओं वाली और एक मुख वाली पुस्तक एवं कमण्डल धारण करने वाली हंसवाहिनी गायत्री माता का प्रयोग होता रहा है। किन्तु कतिपय स्थानों में पंचमुखी प्रतिमा एवं चित्र भी देखे जाते हैं। इनका ध्यान- पूजन भले ही उपयुक्त न हो पर उनमें एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण सन्देश एवं निर्देश अवश्य ही भरा हुआ है। हमें उसी को देखना समझना चाहिए।
गायत्री के पाँच मुख जीव के ऊपर लिपटे हुए पंच कोश- पाँच आवरण हैं। और दस भुजाएँ, दस सिद्धियाँ एवं अनुभूतियाँ हैं, पाँच भुजाएँ बाईं ओर पाँच दाहिनी ओर हैं उसका संकेत गायत्री महाशक्ति के साथ जुड़ी हुई पाँच भौतिक और पाँच शक्तियों एवं सिद्धियों की ओर है। इस महाशक्ति का अवतरण जहाँ भी होगा वहाँ वे दस अनुभूतियाँ- विशेषतायें सम्पदायें निश्चित रूप से परिलक्षित होंगी। साधना का अर्थ एक नियत पूजा स्थान पर बैठकर अमुक क्रिया- कलाप पूरा कर लेना मात्र ही नहीं है, वरन समस्त जीवन को साधनामय बनाकर अपने गुण कर्म स्वभाव को इतने उत्कृष्ट स्तर का बनाना है कि उसमें वे विभूतियाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें, जिनका संकेत पंचमुखी माता की प्रतिमा में दस भुजायें दिखाकर किया जाता है। भुजायें, शक्तियाँ एवं सामर्थ्य की प्रतीक हैं साधना का उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना है। दस शक्तियाँ, दस सिद्धियाँ जीवन साधना के द्वारा जब प्राप्त की जाने लगें तो समझना चाहिए कि कोई गायत्री उपासक उच्चस्तरीय साधन, पथ पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो रहा है।
गायत्री के पाँच मुख हमें बताते हैं कि जीव सत्ता के साथ पाँच सशक्त देवता, उसके लक्ष्य प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए मिले हुए हैं। वे निद्रा ग्रस्त हो जाने के कारण मृत्युतुल्य पड़े रहते हैं और किसी काम नहीं आते। फलतः जीव दीन दुर्बल बना रहता है। यदि इन सशक्त सहायकों को जगाया जा सके उनकी सामर्थ्य का उपयोग किया जा सके तो मनुष्य सामान्य न रहकर असामान्य बनेगा। दुर्दशा ग्रस्त स्थिति से उबरने और अपने महान गौरव के अनुरूप जीवन- यापन का अवसर मिलेगा। शरीरगत पाँच तत्वों का उल्लेख पाँच देवताओं के रूप में इस प्रकार किया गया है –
"आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी।
दायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः।।"
- कपिलतन्त्र
आकाश के अधिपति हैं विष्णु। अग्नि की अधिपति महेश्वरी शक्ति हैं। वायु- अधिपति सूर्य हैं। पृथ्वी के स्वामी शिव हैं और जल के अधिपति गणपति गणेश जी हैं। इस प्रकार पंच देव शरीर के पंचतत्वों की ही अधिपति- सत्तायें हैं।
पाँच तत्वों से बने इस शरीर में उसके सत्व गुण चेतना के पाँच उभारों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं (१) मन, माइण्ड (२) बुद्धि, इण्टिलैक्ट (३) इच्छा, विल (४) चित्त, माइण्ड स्टफ (५) अहंकार, ईगो।
पाँच तत्वों (फाइव ऐलीमेण्ट्स) के राजस तत्व से पाँच प्राण (वाइटल फोर्सेज) उत्पन्न होते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हीं के आधार पर अपने विषयों का उत्तरदायित्व निबाहती हैं।
तत्वों के तमस भाग से काय कलेवर का निर्माण हुआ है। (१) रस (२) रक्त (३) माँस (४) अस्थि (५) मज्जा के रूप में उन्हें क्रिया निरत काया में देखा जा सकता है। मस्तिष्क, हृदय, आमाशय, फुफ्फुस और गुर्दे यह पाँचों विशिष्ट अवयव, तथा पाँच कर्मेन्द्रियों को उसी क्षेत्र का उत्पादन कह सकते हैं।
जीव सत्ता के सहयोग के लिए मिले पाँच देवताओं को पाँच कोश कहा जाता है। यों दीखने में शरीर एक ही दिखाई पड़ता है, फिर भी उनकी सामर्थ्य क्रमशः एक से एक बढ़ी- चढ़ी है। ऐसे ही पाँच शरीरों को यह जीव धारण किए हुए है। अंग में एक ही शरीर दीखता है, शेष चार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी उनकी सामर्थ्य क्रमशः एक से एक की बढ़ी- चढ़ी है। न दीखते हुए भी वे इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि उनकी क्षमताओं को जगाया जा सकना सम्भव हो सके तो मनुष्य तुच्छ से महान और आत्मा से परमात्मा बन सकता है।
जीव पर चढ़े हुए पाँच आवरणों, पाँच कोशों के नाम हैं (१) अन्नमय- कोश (२) प्राणमय कोश (३) मनोमय कोश (४) विज्ञानमय कोश (५) आनन्दमय कोश।
जिस प्रकार प्याज की गाँठ में एक के बाद एक पर्त निकलते हैं, जिस प्रकार केले के तने को खोलने पर उसमें एक के भीतर एक कलेवर निकलते हैं उसी तरह जीव के ऊपर भी एक के बाद एक क्रमशः पाँच आवरण लिपटे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर के ऊपर बनियान, कमीज, जाकेट, कोट, कम्बल आदि धारण करते हैं उसी तरह जीव ने भी पाँच आवरण धारण किए हुए हैं। इनमें से हर एक की कीमत एक के बाद एक की अधिक होती चली गई है।
तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय के भीतर प्राणमय का, प्राणमय के भीतर मनोमय का, मनोमय के भीतर विज्ञानमय का और विज्ञानमय के भीतर आनन्दमय कोष का वर्णन है। इनमें बहुत कुछ साम्य और बहुत कुछ अन्तर है। इसकी चर्चा इस प्रकार हुई है।
'' स वा एष पुरूषोsन्नरसमयः। तसएदमेव शिरः। अयं दक्षिणः पक्षः अयमुत्तरः पक्षः। अयमात्मा। इदं पुच्छं प्रतिष्ठा ।'
तै० उ० २| १ | १
मनुष्य अन्न रसमय है। यही उसका शिर है यही उसका दक्षिण पक्ष है। यही उसका उत्तर पक्ष है। यह आत्मा है। यह पुच्छ तन्त्र मेरुदण्ड पर प्रतिष्ठित है।
'तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयादन्योsन्तर आत्मा प्राणमयः। तेन ष पूर्णः। स वा एष पुरूषविध एव। तस्य पुरूषविधतामन्वयं पुरूषविधः। तस्य प्राण एव शिरः। व्यानो दक्षिणः पक्षः अपान उत्तर पक्षः। आकाश आत्मा। पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा ।'
-तै० उ० २| २| १
उपर्युक्त अन्न रस धातुओं से विनिर्मित अन्नमय कोश से पृथक किन्तु भीतर रहने वाला आत्मा प्राणमय है। वह इतने में ही पूर्ण है। वह भी वैसी ही आकृति का है। वैसी ही उसकी गतिविधि है। उस प्राणमय कोश का प्राण ही शिर है। उसका व्यान दक्षिण पक्ष और अपान उत्तर पक्ष है। आकाश उसकी आत्मा है। पृथ्वी में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।
तस्माद्वा एतस्मात प्राणमयादन्योsन्तर आत्मा मनोमयः। तेनैव पूर्णः। स वा एष पुरूषविध एव। तस्य पुरूषविधतामन्वयं पुरूषविधः। तस्य यजुरेव शिरः। ऋग्दक्षिणः पक्षः। सामोत्तरः पक्षः आदेश आत्मा ।'
- तै० उ० २ | ३ | १
इस प्राणमय कोश से भिन्न मनोमय कोश है। प्राणमय कोश, मनोमय कोश से भरपूर है। वह उसी के समान है। जैसा प्राणमय कोश है। वैसा ही मनोमय कोश है। यजु उसका शिर है। ऋग् दक्षिण पक्ष और साम उत्तर पक्ष है। आदेश उसका आत्मा है।
वेदों को यहाँ मनोमय कोश के साथ क्यों जोड़ा गया इसका समाधान शंकर भाष्य में संकल्प मन्थन और भाव को यजु- ऋक् साम के रूप में किया है।
'तस्माद्वा एतस्मान्मनोयादन्योsन्तर आत्मा विज्ञानमयः।
तेनैष पूर्णः। स वा एष पुरूषविध एव।
तस्य पुरूषविधनामन्वयं पुरूषविधः। तस्य श्रद्धैव शिरः।
ऋतुं दक्षिणः पक्षः। सत्यमुत्तर पक्षः।
योग आत्मा महः पुच्छं प्रतिष्ठा।'
-तै० उ० २ | ४ | १
मनोमय कोश से अलग विज्ञानमय कोश है। मनोमय कोश विज्ञानमय कोश से आच्छादित है। यह विज्ञानमय है पुरुष के समान ही है। वैसा ही है जैसा मनोमय कोश। श्रद्धा ही इसका शिर है। ऋतुं दक्षिण पक्ष और सत्य उत्तर पक्ष है। योग उसकी आत्मा है ।। महतत्व में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।
'तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्यsन्तर आत्मानन्दमयः
तेनेष पूर्णः ।। स वा एष पुरूषविध एव।
तस्य पुरूषविधतामन्वयं पुरूषविधः। तस्य प्रियमेव
शिरः। मोदो दक्षिणः पक्ष। प्रमोद उत्तरः पक्षः। आनन्द
आत्मा। ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा।'
-तै० उ० २ | ५ | १
विज्ञानमय कोश से पृथक किन्तु उसी के अभ्यन्तर आनन्द कोश है। विज्ञानमय कोश आनन्दमय कोश से परिपूर्ण है। यह भी पुरुष के ही समान है। वैसा ही है जैसा विज्ञानमय कोश। प्रिय ही उसका शिर है। मोद (भीतरी आनन्द) उसका दक्षिण पक्ष और प्रमोद (बाहरी आनन्द) उत्तर पक्ष है। आनन्द उसकी आत्मा। ब्रह्म में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।
पंचकोशी के तृतीय प्रकरण में ३,५,६,७ और ९ वें श्लोकों में पाँच कोषों का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।
पितृभुक्तान्नजाद्वीर्याज्जातोsन्नेनैव वर्धते।
देहः सोsन्नमयो नात्मा प्राक् चोर्ध्व तद्भावतः।।
पिता के खाए अन्न से बनने वाले वीर्य द्वारा उत्पन्न काया अन्नमय कोश में। जन्म मरण होते रहने के कारण यह काया आत्मा नहीं है। चेतन आत्म उसमें भिन्न है।
पूर्णो देहे बलं यच्छन्नक्षाणां यः प्रवर्तकः।
वायुः प्राणमयो नासावात्मा चैतन्य वर्जनात्।।
काया से भरा पूरा उसे बल देने वाला इन्द्रियों का प्रेरक प्राणमय कोश है। पर यह भी देह की तरह ही अचेतन होने के कारण आत्मा नहीं है उससे भिन्न है।
पंचकोश क्या है? इनका परिचय देते हुए उपनिषद्कार कहते हैं-
अन्नकार्याणो कोशानां समूहोsन्नमयकोश इत्युच्यते।
प्राणादिचतुर्दधवायुभेदा अन्नमयकोशे यदा वतन्ते तदा
प्राणमयकोश इत्युच्यते। एतत्कोशद्वयसंसक्तं
मनआदिचतुर्दशकरणैरात्मा शब्दादिविषय
संकल्पादिधर्मान् यदा करोति तदा मनोमय कोश
इत्युच्यते। एतत्कोशत्रयसंयुक्त तत्वगतिविशेषज्ञो यदो
भासते तदा विज्ञानमय कोश इत्युच्यते।
एतत्कोशचतुष्टयसंसक्त स्वाकारणज्ञाने वटकणिकायामिव
वृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्दमयकोश इत्युच्यते।
-सर्व सारोपनिषद्
अन्न के द्वारा उत्पन्न होने वाले कोशों के समूह इस प्रत्यक्ष शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। प्राण सहित चौदह तत्वों का समूह प्राणमय कोश कहलाता है। इन दोनों कोशों के भीतर इन्द्रियों तथा मन का समूह मनोमय कोश कहलाता है। बुद्धि और विवेक वाली भूमिका विज्ञानमय की है। इन सब कलेवरों के भीतर आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप और स्थान आनन्दमय कोश कहलाते हैं।
इस प्रकार मानवी चेतना को पाँच भागों में विभक्त किया गया है। इस विभाजन को पाँच कोश कहा जाता है। अन्नमय कोश का अर्थ है- इन्द्रिय चेतना। प्राणमय कोश अर्थात जीवनी शक्ति। मनोमय कोश विचार बुद्धि। विज्ञानमय कोश अचेतन सत्ता एवं भाव आनन्दमय कोश- आत्म बोध जागृति।
प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है।
गायत्री की उच्चस्तरीय साधना इन पाँच कोशों का अनावरण करने उन्हें जागृत करने के लिए ही की जाती है। इस उच्च स्तरीय साधना की ओर इंगित करने के लिए गायत्री का अलंकारिक स्वरूप पाँच मुख वाला बनाया गया है। इस चित्रण में सूक्ष्म शरीर के पाँच कोशों की प्रमुख क्षमता को जागृत करने और महाविज्ञान का समुचित लाभ उठाने का संकेत है।
इन कोशों के माध्यम से व्यक्तित्व की समृद्धियों और विभूतियों से सुसज्जित कर सकने वाली दिव्य सम्पदाएँ उपलब्ध की जा सकती हैं। चेतना क्षेत्र में कुबेर जैसा सुसम्पन्न बना जा सकता है। कोश का एक अर्थ आवरण एवं पर्दा भी होता है। कोश- खोल अथवा म्यान को भी कहते हैं। परतें उतारते- आवरण हटाते चलने पर वस्तु का असली स्वरूप सामने आ जाता है। पंचकोशों के जागरण से अनावरण से कषाय कल्मषों के वे अवरोध हटते हैं जिनके कारण जीवात्मा को अपने ईश्वर प्रदत्त उत्तराधिकार से वंचित रह कर दुर्दशाग्रस्त परिस्थितियों में गुजारा करना पड़ता है।
पाँच कोशों के विभाजन को तीन के वर्गीकरण में भी प्रस्तुत किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शरीर बताए गए हैं। उन्हें त्रिपदा गायत्री कहा जाता है। स्थूल शरीर में अन्नमय और प्राणमय कोश आते हैं। पंच तत्वों और पाँच प्राणों का समावेश है। सूक्ष्म शरीर में मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश सन्निहित हैं। इन दोनों को चेतन मस्तिष्क और अचेतन मानस कह सकते हैं। कारण शरीर में आनन्दमय कोश आता है। विज्ञजनों ने इस विवेचन में यत्किंचित् मतभेद भी व्यक्ति किया है, पर वस्तुस्थिति जहाँ की तहाँ रहती है।
वस्तुतः पंचकोशों का उपहार प्रभु ने हमारी अनन्त सुख- सुविधाओं के लिए दिया है। यह पाँच सवारियाँ हैं, जो अनिष्ट रूपी शत्रुओं का विनाश और आत्म संरक्षण करने के लिए अतीव उपयोगी हैं, यह पाँच शक्तिशाली सेवक हैं। जो हर घड़ी आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। इन पाँच खजानों में अटूट सम्पदा भरी पड़ी है। इस पंचामृत का ऐसा स्वाद है कि जिसकी बूँद चखने के लिए मुक्त हुई आत्मायें लौट- लौट कर नर- तन में अवतार लेती रहती हैं।
बिगड़ा हुआ अमृत विष हो जाता है, स्वामिभक्त कुत्ता पागल हो जाने पर अपने पालने वालों को ही संकट में डाल देता है। सड़ा हुआ अन्न विष्ठा कहलाता है। जीवन का आधार रक्त जब सड़ने लगता है तो दुर्गन्धित पीव बनकर वेदनाकर फोड़े के रूप में प्रकट होता है। पंचकोशों का विकृत रूप भी हमारे लिए ऐसा ही दुःखदायी होता है। नाना प्रकार के पाप- तापों, क्लेशों, कलहों, दुःखों, दुर्भाग्यों, चिन्ता- शोकों, अभाव, दारिद्र्य, पीड़ा और वेदनाओं में तड़पते हुए मानव इस विकृति के ही शिकार हो रहे हैं। सुन्दरता और दृष्टि- ज्योति के केन्द्र नेत्रों में जब विकृति आ जाती है। दुखने लगते हैं, तो सुन्दरता एक ओर रही, उलटी उन पर चिथड़ा की पट्टी बँध जाती है, सुन्दर दृश्य देख कर मनोरंजन करना तो दूर दर्द के मारे मछली की तरह तड़पना पड़ता है। आनन्द के उद्गम पाँच कोशों की विकृति ही जीवन को दुःखी बनाती है, अन्यथा ईश्वर का राजकुमार जिस दिव्य रथ में बैठकर जिस नन्दन वन में आया है, उसमें आनन्द ही आनन्द मिलना चाहिए। दुःख दुर्भाग्य का कारण इस विकृति के अतिरिक्त और कोई हो ही नहीं सकता।
पाँच तत्व, पाँच कोश, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, पाँच उपप्राण, पाँच तन्मात्रायें, पाँच यज्ञ, पाँच देव, पाँच योग, पाँच अग्नि, पाँच अंग, पाँच वर्ण, पाँच स्थिति, पाँच अवस्था, पाँच शूल, पाँच क्लेश आदि अनेक पंचक गायत्री के पाँच मुखों से सम्बन्धित हैं। इनको सिद्ध करने वाले पुरुषार्थी व्यक्ति ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, महर्षि, देवर्षि कहलाते हैं। आत्मोन्नति की पाँच कक्षायें हैं। पाँच भूमिकाएँ हैं। उनमें से जो जिस कक्षा में भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है वह उसी श्रेणी का ऋषि बन जाती है। किसी समय भारत भूमि ऋषियों की भूमि थी। यहाँ ऋषि से कम तो कोई था ही नहीं, पर आज तो लोगों ने उस पंचायत का तिरस्कार कर रखा है और बुरी तरह प्रपंच में फँसकर पंच क्लेशों से पीडित हो रहे हैं।