गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

आसनों का काय विद्युत शक्ति पर अद्भुत प्रभाव

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मोटे तौर से काय-आसनों को शारीरिक व्यायाम में ही गिना जाता है। उनसे वे लाभ मिलते हैं, जो व्यायाम द्वारा मिलने चाहिए। साधारण कसरतों से जिन भीतर के अंगों का व्यायाम नहीं हो पाता उनका आसनों द्वारा हो जाता है।

ऋषियों ने आसनों को योग साधना में इसलिए प्रमुख स्थान दिया है कि ये स्वास्थ्य रक्षा के लिए अतीव उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों में रहने वाली 'हव्य-वहा' और 'कव्य-वहा' तड़ित शक्ति को क्रियाशील रखते हैं। मर्मस्थल वे हैं जो अतीव कोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है कि साधारणत: उन तक बाह्य प्रभाव नहीं पहुँचता। आसनों से इनकी रक्षा होती है।

इन मर्मो की सुरक्षा में यदि किसी प्रकार की बाधा पड़ जाय तो जीवन संकट में पड़ सकता है। ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं। कण्ठ-कूप स्कन्ध, पुच्छ, मेरुदण्ड और ब्रह्मरन्ध्र से सम्बन्धित ३३ मर्म हैं। इनमें कोई आघात लग जाय रोग विशेष के कारण विकृति आ जाय, रक्ताभिषरण रुक जाय और विष बालुका जमा हो जाय तो देह भीतर ही भीतर धूलने लगती है। बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता पर भीतर-भीतर देह खोखली हो जाती है। नाड़ी में ज्वर नहीं होता, पर मुँह का कडुआपन, शरीर में रोमांच, भारीपन उदासी, हड़फूटन, सिर में हल्का-सा दर्द, प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाई पड़ते है। वैद्य, डाक्टर कुछ समझ नहीं पाते, दवा दारू देते हैं पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता।

मर्मों में चोट पहुँचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है। तांत्रिक अभिचारी, जब मारण प्रयोग करते हैं, तो उनका आक्रमण इन मर्म स्थलों पर ही होता है। हानि, शोक, अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्मस्थल क्षत-विक्षत हो जाते हैं और उस व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। मर्म अशक्त हो जायें तो गठिया, गंज, श्वेतकण्ठ, 'पथरी, गुर्दा की शिथिलता, खुश्की, बवासीर जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं।     सिर और धड़ में रहने वाले मर्मो में 'हव्य-वहा' नामक धन (पोजेटिव) विद्युत का निवास और हाथ पैरों में, 'कव्य-वहा' ऋण (नेगेटिव) विद्युत की विशेषता है। दोनों का सन्तुलन बिगड़ जाय तो लकवा, अर्द्धाग, सन्धिवात जैसे उपद्रव खड़े होते हैं।

कई बार मोटे, स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मन्द रोगों से ग्रसित हो जाते हैं, जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे। इन मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गड़बड़ी हैं। कारण यह कि साधारण परिश्रम या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाया। औषधियों की वहाँ तक पहुँच नहीं होती शल्य क्रिया या सूची- भेद (इन्जेक्शन) भी उनको प्रभावित करने में समर्थ नहीं होते। उस विकट गुत्थी को सुलझने में केवल 'योग-आसन' ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं जो मर्म शोधन में अपना चमत्कार दिखाते हैं।

ऋषियों ने देखा कि अच्छा आहार-विहार रखते हुए भी विश्राम व्यायाम की व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्म स्थल विकृत हो जाता है और उनमें रहने वाली, 'हव्य- वहा', 'काव्य- वहा' तड़ित शक्ति का सन्तुलन बिगड़ जाने से बीमारी तथा कमजोरी आ घेरती हैं, जिससे योग साधना में बाधा पड़ती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिये उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान और अनुभव द्वारा 'आसन-क्रिया' का आविष्कार किया।

आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्मस्थलों पर पड़ता है। प्रधान नस, नाड़ियों और माँस-पेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म कशेरुकाओं का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन- प्रकुंचन होता है कि उनमें जमे हुए विकार हट जाते हैं तथा फिर नित्य सफाई होती रहने से नये विकार जमा नहीं होते। मर्मस्थलों की शुद्धि, स्थिरता एवं परिपुष्टि के लिये आसनों को अपने ढंग का सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है।


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