गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां

त्राटक-साधन से एकाग्रता शक्ति का अभिवर्द्धन

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समस्त सिद्धियों, विभूतियों का उपार्जन एकाग्रता शक्ति द्वारा ही सम्भव होता है। चित्त-निरोध इससे भी आगे की स्थिति है। और वह कैवल्य-साधन के लिए आधार बनता है। साधना की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर सिद्धियों के विभिन्न सोपानों तक की यात्रा एकाग्रता की शक्ति द्वारा ही सम्भव होती है यानी एक ही दिशा धारा में चित्त को नियोजित किये रखने की अन्त:शक्ति। भौतिक सिद्धियाँ भी एकाग्रता-शक्ति से ही उपलब्ध होती हैं। दार्शनिक, वैज्ञानिक, लेखक, कवि, कलाकार, बुद्धता संगठक सभी अपनी एकाग्रता शक्ति के कारण ही अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। मेधावी छात्रों में एकाग्रता की ही विशेषता होती है। जिन्हें बुद्धू या मन्द-बुद्धि छात्र कहा जाता है, उनकी मस्तिष्कीय क्षमता प्राय: मेधावियों जैसी ही होती है। परन्तु वे अध्ययन के प्रति उदासीन या अन्यमनस्क होते हैं, बस इसीलिए कक्षा में बने रहते हैं। योग्यता और क्षमता लगभग सभी में एक स्तर की होती है। जो थोड़ा-सा अंतर रहता है। वह भी प्रयत्न पूर्वक दूर किया जा सकता है। किन्तु एकाग्रता के अभ्यासी एक दिशा में निरन्तर बढ़ते चले जाते हैं और एकाग्रताशक्ति से शून्य लोग अपनी ही जगह भटकते, चक्कर लगाते रहते हैं। प्रवीणता, पारंगतता, सफलता जैसी अनेंकों विभूतियाँ एकाग्रता की ही उपलब्धियाँ होती हैं। एकाग्रता के साथ जो भी काम किया जाएगा उसमें प्रवीणता प्राप्त होती जाएगी।

एकाग्रता मन-मस्तिष्क की व्यवस्थित चिन्तन विधि है। वह मस्तिष्क की अस्त व्यस्तता तथा बिखराव पर नियन्त्रण पाने की एक कला है।

एकाग्रता एक विषय में स्थितिशीलता है। अर्थात् सहज ही एक विषय में लगे हुए रहना। इस एकाग्रता शक्ति के उत्पादन संवर्धन की साधना विधियों में से त्राटक साधना अन्यतम है। संकल्प शक्ति का लक्ष्य विशेष पर नियोजन न हो, तो सफलता सम्भव नहीं। नियोजन की यह क्षमता एकाग्रता शक्ति है। साधना- विधान में एकाग्रता शक्ति का प्रयोग मस्तिष्क संस्थान को विकसित करने के लिए किया जाता है। त्राटक के स्वरूप का वर्णन करते हुए ''हठयोग-प्रदीपिका'' में कहा गया है
 निरीक्षेन्नश्चलदृशा सूक्ष्म लक्ष्यं समाहित:।
अश्रु-सम्पात् पर्यन्तं आचार्ये स्त्राटक स्मृतम्।।
अर्थात् एकाग्रचित्त होकर निश्च्चल दृष्टि द्वारा सूक्ष्म लक्ष्य को तब तक देखता रहे, जब तक आँखों में से आँसू न आ जाये। इस साधना को आचार्यगण त्राटक कहते हैं।

प्राचीनकाल में योग साधकों की नेत्र शक्ति बहुत प्रबल होती थी। इसीलिए उन पर अश्रुपात पर्यन्त देखते रहने का कोई विशेष बुरा प्रभाव नहीं पड़ता था। इसलिए वैसा करने का निर्देश दिया गया था। आज की स्थिति में नेत्र शक्ति दुर्बल रहने से वैसा न करने की बात कही गई है। तो भी एकाग्रता दृष्टि के उद्देश्य की पूर्ति प्राचीन और अर्वाचीन दोनों ही मान्यताओं के अनुसार आवश्यक है।

एकाग्रता के अभाव मन:शक्तियों का बिखराव ही उस मनोबल के उत्पन्न होने में सबसे बड़ी बाधा है, जिस पर साधनाओं की सफलता की सफलता निर्भर है। सभी जानते हैं कि बिखरी भाप, बारूद, धूप आदि से सामान्य प्रयोजन ही सधते हैं, पर जब उनमें केन्द्रीकरण होता है तो चमत्कार देखे जा सकते हैं। लक्ष्य बेध जैसी एकाग्रता उत्पन्न की जा सके तो भौतिक एवं आत्मिक सभी प्रयोजनों में सफलता मिलती है। त्राटक से इसी उपलब्धि का अभ्यास होता है।
यथा धन्वी स्वकं लक्ष्य वेधयत्य चलेक्षण।
तथैव त्राटकाभ्यासं कुर्यादेकाग्रमानस:।।
                                     (योग रसायनम्)
अर्थात्- जैसे धनुर्धर मात्र अपने लक्ष्य को ही लक्ष्य बेध के क्षण में देखता है वैसे ही त्राटक का अभ्यास एकाग्र मन से करना चाहिये।

त्राटक का प्रतिफल समयानुसार समाधि के रूप में सामने आता है। कहा गया है-
त्राटकाभ्याम तश्चापि कालेन क्रमयोगतः।
राजयोग समाधि: स्यात् तत्प्रकारोऽधुनोच्यते।।
                                                    (योग रसायन)
अर्थात- त्राटक के अभ्यास से भी समयानुसार राजयोग की समाधि का लाभ सम्भव है। इसकी प्रक्रिया को समझना चाहिए। क्योंकि एक ही प्रत्ययों का निरन्तर लय और उदय ही एकाग्रता है। मन में जो एक प्रत्यय उदित हुआ वह अगले क्षण जब लय होगा, तब उसके तुरन्त बाद जो प्रत्यय उदित होगा वह भी पूर्व प्रत्यय जैसा ही होगा। जबकि सामान्य स्थिति इससे भिन्न होती है अभी मन सूर्य पर गया, अभी गंगा के प्रवाह पर अगले क्षण मन्दिर में गया, फिर उसकी प्रतिमा पर या उसकी भव्यता पर या वहाँ चल रहे क्रिया-कलाप पर। या अभी गंगा की धारा देखी, फिर उसकी बालुका राशि पर मन गया, फिर वहाँ बैठी गायों पर विचार करने लगे और फिर गायों की भिन्न-भिन्न नस्लों पर मन गया। तदुपरान्त प्राणियों की नस्लें कई होती हैं, यह सोचते-सोचते मनुष्य की नस्लों पर सोचने लगे। मन की ऐसी उछल-कूद दिन-रात जारी रहती है। उसकी वृत्तियों की दिशा-धारा स्वरूप थोड़ी-थोड़ी देर में बदलता रहता है। एकाग्रता में ऐसा नहीं होता। उसमें वृत्ति प्रवाह एक जैसा होता है। वृत्ति की इस सदृश-प्रवाहिता को ही योग-दर्शन में एकाग्रता-परिणाम कहा गया है।

तत: पुन शान्तोदितो तुल्य प्रत्ययौ चित्तस्यैक ग्रता परिणाम:।।
                                                                (योगसूत्र ३। १२)
अर्थात्-शान्त नवोदित्त दोनों ही प्रत्यय जब एक से होते हैं, तब प्रत्ययों के लयोदय की इस सदृश-प्रवाहित का नाम एकाग्रता-परिणाम है।

एकाग्रता का यह उदय और नैरन्तर्य ही समाधि का कारण बनता है। अत: एकाग्रता का संस्कार समाधि का आधार तैयार करता है। इस दृष्टि से एकाग्रता संस्कार प्रबल बनाने वाली त्राटक साधना का साधना-विज्ञान में विशेष स्थान है। गायत्री-साधना में भी त्राटक की यह एकाग्रता-वर्धिनी सिद्धि महत्व रखती है।

पंचमुखी गायत्री के तीसरे मुख मनोमय कोश-का रहस्य जानने के लिए त्राटक साधना से प्रारम्भ किया जाता है। किन्तु त्राटक साधना के लिए स्वस्थ नेत्र अतीव आवश्यक हैं। जिनकी नेत्र शक्ति दुर्बल हो, उन्हें त्राटक साधना के स्थान पर भिन्न साधन क्रम ही अपनाना चाहिए। इसी प्रकार जिनमें इच्छा शक्ति से अधिक प्रबल भाव शक्ति है, उनके लिए भी त्राटक साधना के स्थान पर मार्गदर्शक गुरु भिन्न साधना विधान का निर्देशन करते हैं।

त्राटक के दो प्रधान वर्ग हैं अन्त:त्राटक एव बाह्य त्राटक। प्रारम्भ में बाह्य त्राटक का अभ्यास लाभकारी होता है। इसमें बाह्य साधनों के आधार पर एकाग्रता का अभ्यास कर मन को वशवर्ती बनाया जाता है। अन्त: त्राटक में बाह्य उपकरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु सचेत भावना की सजगता की अन्त:त्राटक में अधिक आवश्यकता होती है। जिनका मनस्तर इतना भी विकसित नहीं होता, कि वे सजगता बनाए रख सकें, उन्हें अन्त:त्राटक के लिए कुछ देर बैठने पर नींद आने लगेगी या दिवास्वन्न दिखने लगेंगे और मन का बिखराव ज्यों का त्यों रहेगा। इसलिए प्रारम्भ में बाह्य त्राटक का अभ्यास आरम्भिक साधकों के लिए आवश्यक है। प्रत्यक्ष लक्ष्य के द्वारा ही वे एकाग्रता का अभ्यास कर सकते हैं।

सम्मोहन वशीकरण से लेकर विभिन्न तन्त्रोपचार तक, सभी में त्राटक साधना के ही भिन्न-भिन्न रूपों का प्रयोग होता है। ये प्रयोग चमत्कारिक दिखने पर भी आध्यात्मिक दृष्टि से मात्र स्थूल ही कहे जाते हैं। आध्यात्मिक स्तर इनसे सूक्ष्म है। त्राटक अभ्यास से अभिवर्धित एकाग्रता-शक्ति का प्रयोग ब्रह्मांडीय चेतना से तादात्म्य के लिए करना ही आध्यात्मिक साधना है। भौतिक प्रयोजनों के लिए इस शक्ति को बढ़ाना भौतिक साधना ही कहा जाएगा।


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