आगे बढ़ने का अवसर (Kahani)

September 1991

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एक व्यक्ति घर के उत्तरदायित्वों और असफलताओं से घबरा कर साधु बाबा होने को उतारू हुआ। एक पहुँचे हुए महात्मा के पास पहुँचा कि उसे शिष्य बना लिया जाय।

गुरु ने उसके परिवार और उसके उत्तरदायित्वों के बारे में पूछा। मालूम हुआ कि उसके वृद्ध माता-पिता, अविवाहित छोटी बहनें, पत्नी और दो बच्चे हैं।

साधु ने उसे संन्यासी बनाने से स्पष्ट इंकार कर दिया और कहा पहले परिवार का ऋण चुकाओ। बाद में संन्यासी बनने की बात सोचना। ऋण लेकर भागने वाले की जो निन्दा होती है, जो लांछन लगते हैं उससे बचो।

व्यक्ति घर वापस लौट गया। साधु के बताये आधार पर गृह व्यवस्था को ही भगवत् पूजा मानकर उस में तत्परतापूर्वक जुट गया।

दूसरी उपलब्धि है श्रम। श्रम का ही दूसरा नाम धन है। धन से सुविधा सामग्री उपलब्ध होती है और इसी आधार पर दूसरों की भी सहायता की जा सकती है। श्रम यों स्नायु संचालन और स्वेद बिंदुओं के रूप में दिखाता है पर उसी का घनीभूत स्वरूप सम्पदा के रूप में परिणत होता है। आकाश से बरसने और जमीन फाड़कर निकल पड़ने के रूप में तो सम्पदा किन्हीं किन्हीं को ही मिलती है। पर उसमें गुणवत्ता नहीं होती वरन् ऐसी विषाक्तता रहती है कि जहाँ भी वह रुके वहीं तेजाब की तरह जला कर जर्जरता उत्पन्न कर दे। धन वही है जो श्रमपूर्वक नीतिपूर्वक कमाया गया हो। उसी के सहारे मनुष्य सूखी रहता और समुन्नत बनता है। किन्तु देखा गया है अधिकाँश लोग अविवेकी और अदूरदर्शी होते हैं। समय और धन का अधिकाँश भाग इस तरह खर्च करते रहते हैं, जिससे प्रतिगामिता ही उपजती है और ऐसा ही कुछ बन पड़ता है जिसे मूर्खतापूर्ण कहा जा सके और अवसर निकल जाने पर पश्चाताप करना पड़े। वस्तुस्थिति का पता तब चलता है जब मरण का दिन आ पहुँचता है और बीते हुए का लेखा-जोखा लेने पर अनुभव होता है कि बहुमूल्य विभूतियाँ व्यर्थ ही चली गई। यदि उनका महामानवों की तरह उपयोग किया गया होता तो न केवल परिस्थितियाँ ही बदल जातीं वरन् ऐसा भी कुछ बन पड़ता जिस पर अपने को आत्म संतोष होता और दूसरों को अनुकरण करते हुए आगे बढ़ने का अवसर मिलता। शरीर न रहने पर भी यश बना रहता।

कठिनाई एक ही है कि समीक्षा बुद्धि पर सदा कुहासा छाया रहता है। वह दूसरे भर के लिए काम करती है पर जब आत्म निरीक्षण का अवसर आता है तो अपने को अयोग्य असमर्थ मान बैठती है। अपने सभी कृत्य उचित प्रतीत होते हैं, भले ही वे कितने ही अवाँछनीय या अनुपयुक्त क्यों न हो।

अन्य प्रसंगों में भले ही भूल चूक होती रहे पर समय और श्रम (धन) के एक-एक छोटे घटक का हिसाब रखा जाना चाहिए। डायरी छपने, रखने और लिखने का यही उद्देश्य नहीं है कि उसमें किए गये उल्लेख के आधार पर महत्वपूर्ण निर्धारणों या कार्यों की स्मृति बनी रहे। वरन् यह भी है कि बही खाते की तरह समय और पैसे का हिसाब लिखा जाए। इस लेखन का उद्देश्य एक चिह्न-पूजा से निपट लेना भर नहीं है। किन्तु यह है कि समीक्षा के लिए प्रमाणित तथ्य हस्तगत हों और एकाग्र चित्त से यह विचार करने का अवसर मिले कि इन दिनों विभूतियों का कितना सदुपयोग बन पड़ा? कितना दुरुपयोग और कितना क्या निरर्थक आलस्य प्रमाद में चला गया? जो कार्य जितने समय में हो सकता है, उसे उतने से अधिक देर में अन्यमनस्कतापूर्वक बेगार भुगतते हुए अस्त-व्यस्त ढंग से किया जाय तो समझना चाहिए कि समय को काम में लगाये रहते हुए भी उसका वास्तविक लाभ आधा चौथाई ही हस्तगत हो सका।

यही बात धन के संबंध में भी है। अपव्यय समझ में नहीं आते। कई बार तो वे आवश्यकता जैसे प्रतीत होते हैं। पर विवेकशीलता यह बताती है कि दूसरों को फुसलाने की अपेक्षा यह पैसा यदि अमुक कार्य में लगा होता तो उससे अपना, परिवार का तथा समाज का कितना हित साधन बन पड़ा होता। सुधारने का समय तब आता है, जब भूल-भूल प्रतीत हो और अमुक कार्य करने की अपेक्षा अमुक कदम उठाने की बात सूझ पड़े। इसी पर्यवेक्षण में सहायता देने के लिए डायरी लिखी जाती है और उसमें समय तथा पैसे का राई रत्ती हिसाब अंकित किया जाता है।


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