लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न (Kahani)

September 1991

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केरल त्रिवेन्द्रम के समीप चेम्पवन्ती नामक छोटे ग्राम में भी नारायण गुरु ईषव नामक अछूत परिवार में जन्में। उन दिनों इस जाति के लोगों को विद्याध्ययन तक का अधिकार न था, पर उनने एक उदार पण्डित के द्वारा संस्कृत धर्म दर्शन आदि का अच्छा अध्ययन कर लिया। कुछ समय साधनारत भी रहे। जो अन्तः प्रकाश मिला उसके आधार पर जातिगत भेदभाव मिटाने का कार्य हाथ में लेकर पूरी तरह उसमें जूट गये।

उन्होंने एक शिव मन्दिर की स्थापना की। स्वर्ण लोगों के विरोध करने पर उन्होंने घोषित किया कि इस मन्दिर में ब्राह्मण शिव की नहीं ईषव शिव की स्थापना हुई है। इसके बाद उन्होंने प्रतिमा के स्थान पर बड़े आकार के दर्पण स्थापित कराये ताकि हर दर्शक अपनी छटा देखकर आत्म देवता की झाँकी कर सके। इस प्रकार उन्होंने वेदान्त प्रतिपादन को अनोखे ढंग से लोकप्रिय बनाने का प्रयत्न किया।

इसी से मिलती-जुलती हृदय विदारक तीक्ष्ण आवाजें आस्ट्रेलिया के कई भागों में सुनी गयी थीं, जिनका कारण अब तक जाना नहीं जा सका। एक ऐसी ही विस्मय भरी ध्वनि की चर्चा करते हुए तत्कालीन समय के लब्ध प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी ए. स्टुअर्ट अपने एक निबन्ध “टू एक्सपेडीशन्स इन टू दि इनटीरियर ऑफ सदर्न ऑस्ट्रेलिया” में कहते हैं कि जनवरी 1829 में डार्लिंग नामक नदी तट पर वे और उनके एक मित्र श्री ह्यूम रुके हुए थे। 7 फरवरी के दिन लगभग 3 बजे वे लोग घूमने निकले। आकाश बिल्कुल स्वच्छ और निरभ्र था। बादलों के कहीं नामोनिशान नहीं थे। तभी अचानक तीव्र गर्जना हुई। यह न तो किसी ज्वालामुखी के फटने जैसी थी, न किसी विशाल वृक्ष के गिरने जैसी, वरन् ध्वनि किसी बारूदी धमाके से मिलती-जुलती थी। वे लिखते हैं कि वहाँ पहुँचते ही उन्हें स्थानीय लोगों के द्वारा यह ज्ञात हो गया था। इस प्रकार प्राकृतिक विस्फोट रह-रह कर कई-कई दिनों में यहाँ होते रहते हैं। अतः जैसे ही उक्त दिन उन्हें वह धमाका सुनाई पड़ा तुरन्त ही उसकी दिशा का अनुमान कर एक व्यक्ति को ऊँचे वृक्ष पर चढ़ कर उसका निरीक्षण-परीक्षण करने को कहा। कई घंटे तक वह वहाँ टँगा रहा पर कोई असामान्यता उस ओर नजर नहीं आयी। वह क्षेत्र घने पेड़ों से ढ़का हुआ वन्य प्रदेश था, और नजदीक के शहर से काफी दूर बीच जंगल में पड़ता था, अस्तु किसी प्रकार की कोई सैन्य गतिविधि की भी कोई संभावना नहीं थी। एक अन्य यात्रा के दौरान दोनों मित्रों ने उस क्षेत्र की उस अनसुलझी पहेली का रहस्य जानने का बहुतेरा प्रयास किया, पर सफलता की जगह उन्हें हताशा का ही मुँह देखना पड़ा। आज भी वहाँ के धमाके पहेली बने हुए हैं।

कर्नल गॉडविनि आस्टीन ने भारत यात्रा के दौरान अपने यात्रा-विवरण में ऐसे अगणित विस्फोटों का वर्णन किया है, जिनका गहन जाँच-पड़ताल के बाद भी उनके स्रोतों का पता न चल सका। मजेदार बात तो यह है कि वे इस बात का भी निर्णय नहीं कर सके कि उक्त ध्वनियाँ जल, थल अथवा आकाश में हुई। “अनएक्सप्लेण्ड फैक्ट्स एनिग्माज एण्ड क्यूरियोसिटिज” पुस्तक में जे.जे. आस्टर के अनुभवों का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि 1970 में जब वे वायोमिंग एवं डकोटा की श्याम पहाड़ियों में अपने साथियों के साथ भ्रमण कर रहे थे, तो उन्हें रह-रह कर कर्ण-झिल्ली को फाड़ देने वाले ऐसे धमाके सुनाई पड़ते रहे, मानो आस-पास ही भयंकर बमबारी हो रही हो। उसी दिन स्थानीय लोगों के मार्गदर्शन में पूरा जंगल छान लिया गया, किन्तु कहीं भी किसी प्रकार के विस्फोट के कोई चिह्न नहीं दिखाई पड़े। निकटवर्ती गाँव के लोगों से जब इस संबंध में जानकारी चाही गई, तो उनका कहना था, कि यह रहस्यमय आवाजें लम्बे समय से इन वनों में होती आयी हैं। किसी को भी इन आवाजों का रहस्य विदित नहीं है। उक्त पुस्तक के लेखक श्री रपर्ट टी. गाउल्ड एवं जे. जे. ऑस्टर की अपनी धारणा है कि विश्व के अनेक देशों में घटने वाली यह घटनाएँ संभवतः किन्हीं प्राकृतिक कारणों से घटती हों, पर ऐसा क्यों होता है और उसके पीछे प्रकृति का उद्देश्य क्या है, इसका उद्घाटन होना ही चाहिए।

यह सत्य है निरर्थक और निरुद्देश्य लगने वाली यह ध्वनियाँ ऐसी हैं नहीं। इसके पीछे प्रकृति का कोई-न-कोई प्रयोजन अवश्य निहित है। यह बात और


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