सम्पन्नता नहीं, महानता का वरण करें।

September 1991

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हर प्रतिभावान व्यक्ति को अपना गौरव बढ़ाने, दिखाने की महत्वाकाँक्षा होती है। प्राणी मात्र में पेट-प्रजनन की आकाँक्षा पाई जाती है, पर मनुष्य की एक और उमंग है, अपने को अन्यान्यों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, वरिष्ठ सिद्ध करने की। इसको महत्वाकाँक्षा कहते हैं। हर प्राणवान व्यक्ति में महत्वाकाँक्षा पाई जाती है। ऐसे कम ही होते हैं जो पेट भरने, तन ढ़कने भर से सन्तुष्ट हो जायँ। आत्मप्रदर्शन के लिए कोई प्रयत्न न करें।

तन ढ़कने के लिए कुछ गज कपड़ा लपेट लेने से काम चल सकता है, किन्तु देखा जाता है कि चित्र-विचित्र फैशन वाले कितने ही जोड़े नई-नई किस्म के सजाकर लोग तैयार रखते हैं और उन्हें अदलते-बदलते रहते हैं। महिलाएँ सभी अंगों को जेवरों से सजाती हैं, केश विन्यास के अपने अनोखे तौर-तरीके हैं। इस सबका एक ही प्रयोजन है कि दूसरे लोगों का देखने के लिए आकर्षण बढ़े। उस आधार पर उस सजधज वाले को विशिष्ट स्तर का माना जाने लगे। स्वाभाविक सुन्दरता को कई गुना बढ़ाकर दिखाने के लिए कितने ही शृंगार साधन चेहरे से लेकर अन्य अंगों तक पोते जाते हैं। इस संबंध में महिलाएँ पुरुषों से कहीं आगे हैं। इस साज-सज्जा में कितना धन, कितना समय लगता है। फैशन पुराना पड़ने पर नया अपनाया जाता है ताकि जो विन्यास निगाह से उतर चुका, उसके स्थान पर नया धारण करने में लोगों की दृष्टि गढ़े। यह उस मानसिक ललक का प्रतिफल है जो अपने को दूसरों से बढ़-चढ़कर प्रदर्शित करना चाहती है। सम्पन्न लोग आवश्यकता से अधिक बड़े मकान बनाते हैं। किले, बँगले कीमती साज-सज्जा से सजाये जाते हैं। वाहन, नौकर आदि आवश्यकता से अधिक संख्या में रखते हैं। प्रीतिभोज, जलपान आदि के ठाट आये दिन बनते हैं और भी कई प्रकार के खर्चीले व्यसन अपनाये जाते हैं। इन सबका कारण एक ही है कि उनका वैभव बढ़ा-चढ़ा माना जाय और उस आधार पर अपने को अन्यों की तुलना में सौभाग्यवान माना जाय। यह आडम्बर बड़प्पन की विडंबना ही रचना है। यदि वह न होता तो थोड़े साधनों से काम चल सकता था। कम समय और कम धन खर्चने से काम चल सकता था। उस बचत को अन्य उपयोगी कामों में लगाया जा सकता था, जिससे अपना या दूसरों का भला होता।

प्रतिस्पर्धाओं के आयोजन आये दिन रचे जाते देखे जाते हैं। मोटर दौड़, घुड़ दौड़, पर्वतारोहण जैसे जोखिम भरे कामों में लोग इसलिए सम्मिलित होते हैं कि विजयी की साहसिकता चर्चा का विषय बने। अपने-अपने ढँग के कीर्तिमान स्थापित करने के लिए क्या-क्या कष्ट उठाते और दुस्साहस दिखाते हैं। इसकी चर्चा पत्रिकाओं में पढ़ी और शौक से सुनी जाती है। इन कार्यों में इतना साहस किसलिए दिखाया जाता है? इतना धन और समय किसलिए खर्च किया जाता है? इसका उत्तर एक ही है-बड़प्पन की महत्वाकाँक्षा जो वस्तुतः बड़े काम नहीं कर पाते, वे झूठी प्रशंसा कराने के लिए चाटुकारों को खरीदते और उनके द्वारा प्रशंसा के पुल बाँधने वाले छद्म रचते हैं। कितने ही तो इसी बात की रोटी खाते हैं कि प्रसिद्धि के लोभियों को खुश करने के लिए तिल का ताड़ बनायें और नगाड़े बजायें। बहुधा युद्ध भी इसी निमित्त लड़े जाते थे। दास-दासियों के झुण्ड भी इसीलिए पाले जाते थे कि उनका बड़प्पन चर्चा का विषय बने। विवाह शादियों में भी इसी निमित्त बढ़-चढ़ कर धूमधाम जुटाई जाती थी। कुत्तों से लेकर शेर पालने तक का शौक इसीलिए अपनाया जाता था कि उनका नाम चर्चा का विषय बने।

विचार करने पर प्रतीत होता है कि इस प्रकार के शौकीन अपनी अहंता भर का पोषण करते हैं। दूसरे उन्हें बड़ा मानने ऐसा होते नहीं देखा जाता। हर आदमी अपने कामों में व्यस्त है। उसे ऐसी विडम्बनाएँ ध्यानपूर्वक देखने की फुरसत ही कहाँ होती है, फिर एक नहीं अनेकों ऐसे ही ढकोसले रचते हैं। उन्हें कौन भाग्यवान, श्रीमान मानता है? उलटे यही कहा जाता है कि बेईमानी की कमाई बेरहमी से उड़ाई जा रही है। ढकोसले खड़े करके झूठी वाहवाही लूटी जा रही है। असलियत देर तक छिपती कहाँ है?

गरीबों द्वारा अमीरी का स्वाँग बनाया जाना कितना बचकाना लगता है। धोबी से किराये पर कपड़े लेकर बारात में अकड़ते हुए चलना, जानकारों की दृष्टि में कितना भोंड़ा लगता है। इसी कुचक्र में कितने ही लोग कर्जदार बन जाते हैं और बाप-दादों की संचित पूँजी स्वाहा कर बैठते हैं। कम आमदनी वाले पर अमीरी का ढकोसला बनाने का चस्का चढ़ता है तो उन्हें इसका जुगाड़ जुटाने के लिए अनीति पर उतरना पड़ता है। गड्ढा भरने के लिए उन्हें कुकर्मों की राह अपनानी पड़ती है। ऐसे लोगों की वस्तुस्थिति प्रकट हुए बिना नहीं रहती। जो लोग वास्तविकता से परिचित होते जाते हैं, वे सम्मान देने के स्थान पर घृणा करने लगते हैं। उनका साथी सहयोगी भी कोई नहीं रहता क्योंकि साथियों को भी ऐसे ही कुचक्रों में निरत मान लिया जाता है।

अमीरी का ढकोसला खड़ा करके बचकाने लोग बड़प्पन पाने का प्रयत्न करते हैं, पर उन्हें उसमें सफलता नहीं मिलती। ढोल की पोल खुले बिना नहीं रहती। कोई अनपढ़, विद्वान होने की डींग हाँके तो कुछ ही देर के वार्तालाप में कलई खुल जाती है, फिर अब अमीरी के आधार पर बड़प्पन का रौब जमाने का समय भी चला गया। कोई समय रहा होगा जब सामन्तों की तूती बोलती थी। उनके आतंक से भयभीत लोग लम्बा सलाम झुकाते थे, पर अब लोगों का साहस खुला है। निष्कृष्टता की घृणास्पद शब्दों में आलोचना की जाती है, साम्यवादी विचार धारा ने अमीरों के प्रति आक्रोश उत्पन्न किया है। उनकी कटु आलोचना भी होती है और खुले आम बेईमान बताया जाता है। कहा जाता है कि निष्ठुर ही धनवान बन सकते हैं अन्यथा यदि अधिक आमदनी थी तो उसे दूसरे जरूरतमंदों को दिया जाना चाहिए था। जो उस ओर से मुँह फेरे रहते रहे और अपव्यय की आतिशबाजी जलाने में शान अनुभव करते हैं, उन पर अनुपयुक्तता का लाँछन तो लगेगा ही। स्वार्थी एवं निष्ठुर भी कहा जायेगा।

विवेक बुद्धि ने बड़प्पन का ढकोसला रचने को बचकानापन कहकर अमान्य ठहरा दिया है। दूरदर्शिता और शालीनता का प्रतिपादन यह है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट आदर्शवादिता से सुसम्पन्न करे और अपने गुण, कर्म, स्वभाव में महानता का समावेश करें। प्रमाणिक बनकर रहें। दृष्टिकोण को ऊँचा रखे और उदारता बरते। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाये। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह करे ताकि अधिक उपार्जन बन पड़ने पर बचत वाले साधनों को दूसरों की सेवा सहायता में लगा सके।

अमीरी की विडम्बना और फिजूल खर्ची की क्षुद्रता को जोड़कर बड़प्पन पाने की अभिलाषा पूरी करने के इच्छुकों को निराश ही होना पड़ता है। उत्पीड़न का आतंक भी किसी के मन में आदर भरा


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