रामकृष्ण परमहंस को एक लोटे की जरूरत पड़ी। शिष्य खरीदने के लिए उन्हीं के एक भक्त की दुकान पर गया। उसने पुराना लोटा दे दिया और नये के दाम वसूल कर लिए।
भेद खुला तो बेचने वाले ने बिना शरमाये हुए कहा “गुरुदेव! अनेकों को मुफ्त आशीर्वाद बाँटते है। मैंने भी अपनी चतुरता से कुछ कमा लिया तो क्या बुरा किया।”
इसे कहते है चतुरों की भक्ति।
हम इसमें सहायक हो सकें इसके लिए गीता की भाषा में आवश्यक है हमारा “शुचि दक्षः” होना। अन्तर की विकसित पवित्रता के साथ स्वयं के प्राण प्रवाह की बूँद बूँद को इस ईश्वरीय संकल्प की पूर्ति हेतु उड़ेलना। वर्तमान देव मुहूर्त के पलों में इसका महत्व तब और अधिक बढ़ जाता है जब नियन्ता स्वयं अगले दिनों के लिए व्यक्ति के अन्तर में छुपा व्यक्तित्व उभारने सँवारने के लिए आतुर है। क्योंकि इन्हीं प्रखर व्यक्तियों को अपना यंत्र बनाकर वह संसार वाटिका की खरपतवार उखाड़ कर इसे पहले की तुलना में कहीं अधिक सौंदर्यशाली बनाने वाला है। ऐसी स्थिति में अच्छा यही है कि हम बिना इधर-उधर ताक झाँक किए किसी को ललचाई नजरों से देखे बगैर, महत्वाकाँक्षाओं को तिलाँजलि दे, बस स्वधर्म पालन में तत्पर हों।