नीतिमत्ता की जीवन में महत्ता

September 1991

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आत्मिक और भौतिक दोनों ही स्तर की प्रगति में नैतिकता के तत्वों का समावेश आवश्यक है, क्योंकि कोई व्यक्ति इसी कसौटी पर अपने आपको प्रमाणिक सिद्ध करता है। यह प्रामाणिकता ही लौकिक क्षेत्र में जन विश्वास और जन सहयोग अर्जित करती है। आत्मिक क्षेत्र में इसी आधार पर आत्म संतोष और दैवी अनुकंपा का अधिकारी वह बनता है। स्वर्ग-मुक्ति आदि में भी इसी प्रवृत्ति की प्रधान पृष्ठभूमि रहती है।

व्यक्ति के जीवन में जितना महत्व शिक्षा का है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्थान नैतिकता का है, नैतिक गुणों के बिना मनुष्य का सर्वांगीण विकास संभव नहीं। इसके अभाव में कोई भी शिक्षा उदात्त भावना और उत्कृष्ट चिन्तन का व्यक्ति बनाने में सदा असफल रहेगी। कोई भी व्यक्ति एक अच्छा समाजिक निष्ठ नागरिक तभी बन सकेगा जब उसे आरंभ से नैतिक तत्वों, शाश्वत मूल्यों की जानकारी होगी। एक-सा शिक्षण ही विद्यार्थी को स्वावलम्बी, सहिष्णु, सदाचारी, संयमी, कर्तव्यपरायण, प्रमाणिक तथा परोपकारी बना सकता है। नैतिकता का अवलम्बन ही मनुष्य को सुसंस्कृत, आदर्श और चरित्रनिष्ठ नागरिक बना सकता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं ऊँचे उठते, आगे बढ़ते हैं तथा अपनी विशिष्टता एवं वरिष्ठता के सहारे इस विश्व उद्यान को सुरभित समुन्नत रख सकते हैं। नीतिमत्ता का सार संक्षेप भी यही है।

“द गेन आफ पर्सनॉलिटी” नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध नीतिशास्त्री डब्लू.सी. लूसमोर ने नैतिक नियमों के निश्चय निर्धारण के लिए ज्ञानोपार्जन को अत्यावश्यक माना है। उनका कहना है कि ज्ञानार्जन के लिए व्यक्ति को चिन्तनशील-विवेकशील होना चाहिए। सिद्धाँतों को व्यवहार में उपयोग करते समय सतत् चिन्तन आवश्यक है, चिन्तन-मनन के बिना कोई मनुष्य अपने लिए स्थिर नैतिक सिद्धाँतों का निर्धारण नहीं कर पाता और समाज की दिशाधारा के प्रवाह में बह जाता है। उनके अनुसार चिन्तन जीवन का सैद्धान्तिक पक्ष है। उसका व्यावहारिक पक्ष श्रेष्ठ कार्यों के रूप में परिलक्षित होता है। विचार मन्थन से जो सिद्धान्त निर्धारित हों, उनको सत्यता की कसौटी के लिए व्यावहारिक क्षेत्र में उतारना होता है। उच्च आदर्शों व नैतिक सिद्धाँतों का व्यवहार में आना ही नैतिक जीवन है। सिद्धाँतों के कार्यान्वयन के लिए क्रियाशीलता-गतिशीलता नैतिक जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है, संसार के सभी महापुरुष जीवन भर क्रियाशील रहे, अनवरत श्रम-साधना करते रहे हैं। औसत नागरिक की तरह-सादगी भरा जीवन निर्वाह करते तथा उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श चरित्र की गौरव गरिमा बनाये रहे हैं। पवित्रता एवं प्रखरता पर आधारित व्यक्तिवादी संकीर्ण चिन्तन सर्वथा एकाँगी है। नीति मर्यादा का पालन करने वाला आदर्शवादी व्यक्ति आत्मकल्याण की साधना के साथ-साथ समाज की भी भलाई करता है। वह समाज के लोगों से सहानुभूति रखता है और उन्हें अपने उत्कृष्ट विचारों एवं श्रेष्ठ व्यवहार से निरन्तर ऊँचा उठाने का प्रयास करता है।

इंग्लैण्ड के प्रख्यात नीति शास्त्री एफ.एच.ब्रेडले का कहना है-”मनुष्य अपने व्यक्तित्व को समाज में जितना ही अधिक घुला-मिला देता है, उतना ही अधिक उसको नैतिक रूप से विकसित मानना चाहिए। वस्तुतः सामाजिकता से पृथक मनुष्य की नैतिकता का मूल्य एवं उपयोगिता ही नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को सर्व प्रथम अपने आचरणों में नीतिमत्ता का समावेश करना चाहिए एवं सामान्य जीवनयापन की रीति-नीति को इसके लिए सर्वोत्तम मानना चाहिए। नैतिक जीवन का विकास करने के लिए संकुचित, संकीर्ण नियम अथवा विचारधारा की अपेक्षा व्यापक उदार नियमों को अपनाना अधिक उत्तम है, चाहे वे व्यापक नियम अपने देश, धर्म समाज के हों अथवा किसी अन्य के द्वारा प्रतिपादित।

वैयक्तिक जीवन में जिसे नीतिमत्ता कहते हैं, वही सामूहिक रूप में विकसित होने के उपरान्त सामाजिक सुव्यवस्था बन जाता है। प्रगति और समृद्धि की, सुख और शान्ति की आधार शिला इसी पृष्ठभूमि पर रखी जाती है। पारिवारिक, सामाजिक, मर्यादाओं का परिपालन तथा श्रेष्ठ जीवन जीने की कला का मूल आधार नैतिकता को ही माना जा सकता है। इसके अभाव में राष्ट्रीय चरित्र का विकास नहीं हो सकता। कानून के प्रति यदि आस्था न हो तो कितने ही कानून बना दिये जायँ, इन सबकी पकड़ से बाहर जा सकने में आज का चतुर इन्सान समर्थ है। वर्तमान स्थिति यही है। अनैतिक आचरण मानव को भ्रष्टाचार के दल-दल में धकेलने में सतत् प्रयत्नशील है। नैतिकता की दुहाई देने वाले एवं अपने को उसका संरक्षक बताने वाले लोग भी उच्छृंखल भोगवाद में लिप्त देखे जाते हैं। अनीति पूर्ण उपार्जित अवांछित धन आज समाज में उत्पीड़न, शोषण, घृणा, द्वेष, कलह, युद्ध, रक्तपात, बेईमानी, मिलावट, रिश्वत आदि अनेकों बुराइयों का कारण बना हुआ है। उद्धत अपराधों की तरह संकीर्ण स्वार्थपरता भी तत्वदर्शियों द्वारा अनीति ही मानी गई है। अतः यह देखा जाना चाहिए कि अनैतिकता ने व्यक्तिगत रुझान और सामुदायिक प्रचलन में कितनी गहरी जड़े जमाई हुई हैं। इन्हें उखाड़ने के लिए उतनी ही गहरी खुदाई करने की आवश्यकता पड़ेगी और उसके स्थान पर आदर्शवादी रीति-नीति की स्थापना करनी पड़ेगी।

विद्वान नीतिशास्त्र बेन जॉनसन का कथन है कि ‘सचमुच धन से कोई धनी नहीं बन सकता वरन् नैतिकता ही मनुष्य की वास्तविक पूँजी है, कठोपनिषद् में स्पष्ट है कि ‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः’ अर्थात् धन संग्रह से मनुष्य को शान्ति नहीं मिल सकती, धन तो परोपकार के लिए होता है। वस्तुतः नैतिकता समस्त स्वार्थी प्रवृत्तियों को मिटा देती है। नीतिशास्त्र एक ऐसा ज्ञान है जो नर से नारायण के विकास की कड़ी को पूरा करता है। यह प्रक्रिया किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, शृंखला पर आधारित नहीं है और न ही किसी विशेष जाति के विशिष्ट सिद्धाँतों पर आधारित है। इसका मूल आधार तो वेदान्तीय शिक्षा का सूत्र पूर्ण निस्वार्थपरता का है। एथिक्स को महापुरुषों ने अपने जीवन का आधार माना है। विख्यात जर्मन दार्शनिक काँट की नैतिकता में दृढ़ आस्था थी। उनके अनुसार नैतिक अनुभव के द्वारा ही मनुष्य अनुभवात्मक आत्मा से ऊपर उठकर परात्पर आत्मा को प्राप्त कर सकता है और दृश्यमान जगत से परे परमार्थ के साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। प्लेटो ने नैतिकता को आत्मिक गुणों के विकास एवं आन्तरिक सफलता की कुँजी माना है।

नीति क्या है? इसका उत्तर उतना सरल नहीं है जितना कि समझा जाता है। उसका स्वरूप कई विचारक कई तरह प्रस्तुत करते हैं। प्रसिद्ध नीतिशास्त्री सिज्विक ने अपने ग्रन्थ “मेथड आफ एथिक्स” में लिखा है कि सत्य बोलना अपरिहार्य नहीं है। राजपुरुषों को अपनी गतिविधियाँ गुप्त रखनी पड़ती हैं। व्यापारियों को भी अपने निर्माण तथा विक्रय के रहस्य छिपाकर रखने पड़ते हैं। अपराधियों को पकड़ने के लिए जासूसी की कला नितान्त उपयोगी है। इसमें दुराव और छल का प्रश्रय लिया जाता है। इसलिए नीति का आधार सचाई को मानकर नहीं चला जा सकता है। अधिक लोगों के अधिक सुख का ध्यान रखते हुए नीति का निर्धारण होना चाहिए।”


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