स्वधर्म की खोज एवं उसका परिपालन

September 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

तो हम क्या करें? माथे पर बनती-मिटती रेखाओं मन की उधेड़ बुन के बीच उपजा यह सवाल अभी भी अनसुलझा है। कर्म से घिरे होने पर भी हम अभी स्वयं के कर्तव्य को कहाँ ढूँढ़ सके हैं? धार्मिक उपदेशों के बीच रहने पर भी स्वधर्म की खोज आज तक अधूरी है। जब कर्तव्य नहीं तब प्राप्तव्य कहाँ? राह के बगैर मंजिल कैसी? जीवन में विफलता, टूटन, बेचैनी, निराशा, उदासी का कारण यही किंकर्तव्यविमूढ़ता है, स्वधर्म को न खोज पाना है। हममें से अनेकों के दुःख विपन्नता के बाह्य कारण सम्भव है अलग-अलग दिखें, पर मूल में तथ्य यही है।

स्वयं की राह को न पहचान पाने के कारण हम बिना जाने समझे दूसरों की नकल करते हैं, वैसा ही बनने के सपने देखते हैं किन्तु इस आकाँक्षा और स्वयं की प्रकृति के बीच उपजे अन्तर्विरोध के कारण चाह भी अधूरी रहती है और वह भी नहीं बन पाते जो बनना था। प्रत्येक की अपनी निजता है। हरेक के स्वभाव, प्रकृति की अपनी अनूठी मौलिक संरचना है। यद्यपि है यह सब बीज की तरह बन्द अविकसित लेकिन विकास की समस्त संभावनाओं को अपने में सँजोए और जब तक बीज स्वयं में कैद है तब तक बेचैन है। जब तक बीज फूट न सके, अंकुर न बन सके, खिल न सके और फूल बन कर अपनी आन्तरिक शक्तियों की दिव्यता को संसार में बिखेर न सके, तब तक घुटन भरी बेचैनी बनी रहेगी।

सामान्य जीवन क्रम में संताप, बेचैनी, तनाव को दूर करने की कोशिश कम नहीं होती। पर प्रत्येक विफलता का राज यही है कि हम परधर्म को ओढ़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। संगीतकार की स्वर लहरियों में मुग्ध हो कभी हम अलाउद्दीन खाँ बनना चाहते हैं। श्वेत परिधान में आवेष्टित चिकित्सक का गौरव खुद के भीतर वैसा ही हो जाने की ललक उपजाता है। बाल्टेया, मिल्टन, टैगोर की भाव भरी रचनाएँ पढ़ तुर्त-फुर्त साहित्यकार बनने को जी उमगता है। बस कदम मचल उठते हैं उसी ओर चलने के लिए, होश तब आता है जब मुश्किलों में पड़े स्वयं को लगने लगता है अमुक जैसा बन पाना शायद मेरे लिए संभव नहीं। चम्पा का वृक्ष चमेली का फूल लाने की कोशिश करे गुलाब का वृक्ष कमल का फूल लाना चाहे तो न केवल बेचैनी दोहरी होगी बल्कि असफलता सुनिश्चित है।

डॉ. राधाकृष्णन “एन आइडियलिस्ट व्यू आफ लाइफ” में इस असफलता को स्वभाव की गहराइयों में देखते हैं। स्वयं को मौलिकता के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है पर हुआ नहीं जा सकता। गुलाब का फूल भरपूर चाहत और अनेकों प्रयत्नों के बावजूद कमल का फूल नहीं बन सकेगा। उल्टे विफल प्रयत्न होने पर हीनता, हार, फर्स्टेशन उसकी अन्तर्चेतना में अड्डा जमा बैठेगी। इतना ही नहीं एक इससे भी बड़ी दुर्घटना जिन्दगी में घटित होगी। वह यह कि समूची ऊर्जा प्राण सामर्थ्य कमल बन जाने की कोशिश में खप गई। अब गुलाब बन पाना भी सम्भव न रहा। कारण कि गुलाब बनने के लिए जो प्राण चेतना चाहिए थी, वह परधर्म को ओढ़ने में चुक गई।

स्वधर्म परम कर्तव्य है। इसकी खोज जीवन की केन्द्रीय आवश्यकता है। इस नैसर्गिक प्रयास को करने का मतलब है कि व्यक्तित्त्व की समस्त गुह्य शक्तियों का जागरण। पर खेद है, इसे हम करते कहाँ है? मनीषी एन. एन. एवरीनोव के चिंतन कोश “द थियेटर इन लाइफ” के अनुसार स्वयं के नैसर्गिक सौंदर्य को विकसित करने के बजाय मुखौटे बदलते रहते हैं। कभी एक कभी दूसरा। इन्हीं को छाँटते-चेहरे पर चिपकाते जिन्दगी बीत जाती है।

इससे उबर कर कुछ सार्थक करने, जीवन की दिव्य विभूतियों को उद्भासित करने, का एक ही मार्ग है स्वधर्म की खोज। जिसके बिना यह पता नहीं चलता कि “मैं क्या करने को पैदा हुआ था? “ परमसत्ता ने किस अभियान पर भेजा था? कौन सी यात्रा पर आया था? न पता चलने में सबसे बड़ी बाधा है पर धर्मों का प्रलोभन अपनी मौलिकता नष्ट कर दूसरों की कार्बन कापी बनने का प्रयास। होना तो यह चाहिए कि हम अपना गहराइयों में झाँकते। स्वयं की संभावनाओं पर विचार करते। अभिरुचियों एवं मानसिकता विश्लेषण कर परिवेश से सामंजस्य बिठाते हुए नैसर्गिक क्षमताओं को विकसित करते।

पर करने लगते हैं वह जो स्वयं की मौलिकता का उल्टा है। आज इसी उलटबांसी से पनपी मुश्किलों के कारण चारों ओर से शोर सुनाई देता है जीवन अर्थहीन है। दूसरे के काम में भला अर्थ कहाँ? अब जो गणित बना सकता है कविता कर रहा है। अर्थहीन हो जाएगी कविता। सिर्फ बोझ मालूम पड़ेगा कि इससे मर जाते तो अच्छा था। यह कहाँ का नारकीय काम मिल गया। कहाँ गणित की दो और दो चार की सख्ती, कहाँ काव्य का बहाव। इसी प्रकार की परेशानी तब है जब कवि गणितज्ञ हो जाय। ऐसे में जीवन भर भुनभुनाता रहेगा किस मुसीबत में पड़ा है कैसे छुटकारा मिले इस बला से। क्योंकि इन दोनों के जीवन को देखने का ढंग ही अलग है। इनके सोचने की प्रक्रिया अलग है। एक सी दिखाई पड़ने पर भी इनकी आँखों में भिन्नता है। हममें से प्रत्येक एक अद्वितीयता लेकर आया है, अनूठी प्रकृति लाया है जिसका अपना स्वर है, अपना संगीत है जिसकी अपनी सुगंध है अपना जीने का ढंग है उसी को विकसित करना होगा। इसी की अनिवार्यता बतलाते हुए गीताकार का कहना है “श्रेयान स्वधर्मों हि विगुणः परधर्मास्वतुष्ठिसात्”।

इसकी खोज के दो चरण हैं पहला- दूसरों के कर्तव्य, कर्म, उनकी प्रतिलिपि बन जाने के लालच को छोड़ें। दूसरा- स्वयं की जाँच-परख गहराई और सूक्ष्मता से करें। लगातार के प्रयत्न के बाद एक एक करके अपने में बीज रूप में निहित क्षमताओं का पता लग जाएगा। मनोयोगपूर्वक करने पर यों यह कार्य दुष्कर नहीं है। किन्तु इसे और अधिक सुखकर बनाने का एक और उपाय है मानवी प्रकृति की संरचना एवं कार्य विधि में निष्णात् किसी प्रज्ञ पुरुष की शरण जिसके लिए भगवान कृष्ण कहते हैं “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया”। इस तरह वह सूत्र मिल जाता है जिसका अवलम्बन स्वयं को परिपूर्णता से भर देता है।

पर ऐसा सिर्फ खोज लेने भर से नहीं होगा। इसका निष्ठापूर्वक परिपालन चाहिए। जिसकी एक ही कसौटी है कि जीवन की समस्त शक्तियाँ, ऊर्जा का समूचा बहाव, प्राण की प्रत्येक लहर, उमगती-उफनती महानता, उच्चतर उद्देश्य सद्गुणों के समुच्चय की ओर बढ़ रही है या नहीं। ऐसा होने पर आत्महीनता, बेचैनी, संताप समाप्त होते नजर आएँगे। कारण कि बीज में निहित उर्वरता कैद से मुक्त हो प्रस्फुटन की ओर बढ़ चली है। स्वधर्म के पालन का मतलब है व्यक्ति रूपी बीज का व्यक्तित्व के पुष्पित, सुरभित पादप में परिवर्तन हेतु भरपूर प्रयत्न। आवश्यक नहीं कि हम किसी महापुरुष की प्रतिच्छाया बने। किन्तु कुछ वैसा ही खिल उठे। उसने अपनी मौलिकता बिखेरी हम अपनी बिखेरें। दयानन्द, श्री अरविन्द और जूता गाँठने वाले रैदास तथा कपड़ा बुनने वाले कबीर की बाह्य स्थिति में अन्तर दिखते हुए भी वह स्वधर्म पालन की चरम परिणति है। परमात्मा की सृष्टि में कहीं अनुकृति नहीं। विश्व उद्यान का यह अद्भुत माली कभी भी दो एक तरह के पौधे नहीं लगाता, ताकि सौंदर्य अपनी चरमतम स्थिति तक पहुँच सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118