दैनिक जीवन की गायत्री उपासना

September 1991

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उपासना के लिए बैठने के साथ कुछ सनातन नियम जुड़े हुए हैं जिनमें से एक यह है कि शरीर, वस्त्र, स्थान, पात्र, उपकरण सभी को शुद्ध करके बैठा जाय। देवता स्वयं स्वच्छ हैं। स्वच्छता का वातावरण चाहते हैं। साधक स्वच्छ होगा, ऐसी आशा करते है। यह स्वच्छता बहिरंग भी होनी चाहिए और अन्तरंग भी। न केवल बुहारी से, जल से, साबुन मिट्टी के सहारे यह प्रक्रिया पूरी होती है वरन् चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में भी उसका समुचित समावेश होना चाहिए। नियत स्थान, नियत समय और नियत कार्यक्रम भी निश्चित होना चाहिए। यदि कोई अनिवार्य अपवाद अड़ जाय तो बात दूसरी है अन्यथा प्रमादवश इस निर्धारण का पालन ही करना चाहिए।

पालथी मार कर बैठना, कमर सीधी रखना, आँखें अधखुली रखना, चित्त को प्रसंग की सीमा से बाहर न जाने देना। यह कार्य ऐसे हैं जिनको निर्वाह करते हुए ही साधना क्रम में आगे बढ़ना चाहिए। स्थान ऐसा चुनना चाहिए जो कोलाहल रहित हो और जहाँ स्वच्छ वायु का आवागमन होता रहे। गायत्री उपासना प्रज्ञायोग के रूप में करनी चाहिए। इसके पाँच अंग हैं (1) आत्म शोधन (2) देव पूजन (3) जप (4) ध्यान (5) विसर्जन।

पूजावेदी- देव पीठ पर इष्ट देव की स्थापना करना और उनका प्राण सामने उपस्थित होने की भावना करते हुए सत्कार उपचार करना, इसे देवपूजन कहते हैं। साकारवादी गायत्री माता को, निराकारवादी मात्र अक्षरों का या उगते सूर्य का चित्र वेदी पर स्थापित कर सकते हैं। यह सावित्री और सविता का युग्म है। इसलिए लक्ष्मी नारायण, शिव पार्वती, सीताराम, राधाकृष्ण जैसे ही युग्म सविता और सावित्री का होना चाहिए। यह चित्रकार का कौशल और साधक का रुझान है कि किस रूप में दोनों का समन्वय करें। पूजा वेदी पर छोटा जल पात्र सूर्यार्घ के लिए और अग्नि की साक्षी अगरबत्ती, धूपबत्ती, दीपक आदि के रूप में स्थापित की जानी चाहिए। सावित्री को जल और सविता को अग्नि कहा गया है। इन दोनों की स्थापना भी चित्र के समान ही होनी चाहिए।

जप प्रारम्भ करने से पूर्व, देव-पूजन से पूर्व आत्मशोधन के षट्कर्म करने चाहिए। इसके लिए एक पंचपात्र और छोटा चम्मच पहले से ही तैयार रखना चाहिए जैसे कि पूजा उपचार के लिए प्रतिमा के सम्मुख तश्तरी रखी जाती है। यह दो वस्तुयें अर्घ्य कलश और अगरदानी के अतिरिक्त हैं।

आत्म शोधन क्रिया में (1) दाहिनी हथेली पर जल रख कर बायें से उसे ढ़क कर गायत्री मंत्र मन ही मन पढ़ते हुए समस्त शरीर पर छिड़का जाता है। इसे पवित्रीकरण कहते हैं। (2) पंचपात्र में से चम्मच में जल लेकर तीन आचमन करना। मन, वचन, कर्म की पवित्रता के लिए यह आचमन है। (3) सिर के मध्य भाग शिखा स्थान को जल से गीला करना इसे शिखा वन्दन कहते हैं। (4) प्राणायाम के लिए बांई हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखकर दाँया नथुना अँगूठे से और बायाँ नथुना तर्जनी मध्यमा से दबाते हैं। यह प्राणायाम मुद्रा हुई। बायें नथुने से पूरी साँस खींचने को पूरक भीतर साँस रोकने को कुँभक और दांये नथुने से साँस बाहर निकालने को रेचक कहते हैं। यह एक प्राणायाम हुआ। इसे तीन बार भी किया जा सकता है। साँस खींचते समय भावना करनी चाहिए कि विश्वव्यापी महाप्राण का दिव्य अंश भीतर प्रवेश कर रहा है। साँस रोकते समय प्राणत्व को शरीर द्वारा सोख जाने की और साँस छोड़ते समय कषाय-कल्मषों के बाहर निकलने की भावना करते हैं। इसके बाद थोड़ी देर बिना साँस खींचे रहा जाता है ताकि छोड़े हुए दोष वापस लौटने का अवसर प्राप्त न करें। यह प्राणायाम प्रक्रिया हुई। (5)न्यास अर्थात् बांई हथेली पर जल रखकर दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों का उसमें डुबाना और क्रमशः मुख को, नासिका के छिद्रों को, कानों को, भुजाओं को, जंघाओं को उस जल से स्पर्श कराया जाता है। इसका तात्पर्य है ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को पवित्रता के साथ जोड़ना। बचा हुआ जल सिर पर छिड़क देते हैं ताकि मन, बुद्धि, चित्त में जो मानसिक दोष हों, उनका निराकरण हो जाय, यह न्यास हुआ। आत्मशोधन के पाँच अंग हैं पर षट्कर्मों में पृथ्वी पूजन को भी सम्मिलित कर लेते हैं। धरती माता का अभिसिंचन, प्रणिपात इसका उद्देश्य है। आत्मशोधन के उपरान्त ही देवपूजन की प्रक्रिया चलती है।

स्थापना के अनन्तर आत्म शोधन, तदुपरान्त देव पूजा उपचार करना होता है। पुष्प, दीपक, चन्दन, नैवेद्य अक्षत यह पंचोपचार के पाँच उपकरण हैं। गायत्री मन्त्र मन ही मन बोलते हुए इन पाँचों को चित्र के आगे रखी हुई एक तश्तरी में छोड़ते जाना चाहिए। उपस्थित देव प्राण का सत्कार करने के अतिरिक्त भावना यह भी रहनी चाहिए- अपना जीवन पुष्पवत् खुला और खिला हुआ, दीपक की तरह प्रकाश उत्पन्न करने वाला, चन्दन की तरह समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को अपने समान बनाना, मधुर वचन और मधुर व्यवहार तथा अपनी कमाई का, श्रम समय का अंशदान परमार्थ-प्रयोजनों के लिए किया जाता रहना चाहिए। पंचोपचारों द्वारा पूजन करने का दुहरा उद्देश्य है देव सत्कार और आत्म शिक्षण।

देवपूजन के उपरान्त जप संख्या पूरी करनी चाहिए। इसलिए एक निर्धारित संख्या रहे। तीन शरीरों की शुद्धि के लिए तीन मालायें न्यूनतम हैं। जिनसे अधिक बन पड़े वे अधिक करें। माला चंदन, तुलसी, रुद्राक्ष में से किसी की भी की जा सकती है। एक माला पूरी होने पर उसे पीछे की ओर घुमा देना चाहिए। सुमेरु (बीच का बड़ा दाना) उल्लंघन नहीं करना चाहिए। माला घुमाने में अँगूठा मध्यमा, अनामिका का उपयोग होता है। तर्जनी को माला से पृथक रखते हैं। इन परम्पराओं का निर्वाह ही उचित है। जहाँ माला की सुविधा न हो वहाँ उँगलियों के पोरवों को भी माध्यम बनाया जा सकता है। घड़ी भी इसका माध्यम हो सकती है। एक घण्टे में 11 माला होती हैं। इस अनुपात से घड़ी सामने रखकर भी जप संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। जप इस प्रकार करना चाहिए कि कंठ, ओठ, जिव्हा तो हिलते रहें पर आवाज इतनी अस्पष्ट हो जिसे पास में बैठे हुए दूसरे लोग भी न सुन सके।

जप के साथ ध्यान का समावेश होना चाहिए। प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को सविता कहते हैं। जप के साथ आंखें बन्द रखते हुए उदीयमान सूर्य का पूर्व अन्तरिक्ष में उदय होने का ध्यान करते हुए ध्यान करना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि उसकी दिव्य किरणें तीनों शरीरों में आरपार प्रवेश कर रही हैं। स्थूल शरीर (काया) में बल, सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) में ज्ञान और कारण शरीर (हृदय) में दिव्य भावों का अनुदान बरसा रही है। जप के साथ-साथ यह ध्यान भी चलते रहना चाहिए ताकि मन को काम मिलता रहे अन्यथा वह निरर्थक बातों में भागदौड़ करेगा। वाणी से जप और मस्तिष्क में ध्यान का क्रम चलाते रहने पर ही एक पूरी बात बनती है।

जप संख्या पूरी हो जाने पर स्थापित चित्र प्रतिमा को मस्तक नवा कर हाथ जोड़ कर विदाई प्रणाम करना चाहिए। उठकर सूर्य की दिशा में


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