सिद्धियाँ पवित्र अंतःकरण में जन्मती हैं।

September 1991

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अध्यात्म में जिन तत्वों को प्रधानता दी जाती है, वह है अन्तःकरण की पवित्रता और मन की एकाग्रता। सही कहा जाय तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इतने पर भी श्रेष्ठ और सर्वोपरि “पवित्रता” ही है। इसे अध्यात्म का पर्याय भी कहा जा सकता है। यही वह आधार है जिस पर एकाग्रता फलती फूलती है। इसके बिना यह केवल बाजीगरी भर रह जाती है।

आध्यात्मिक साधनाओं में निरत होने वाले अधिकाँश लोग यह चीज भुला बैठे हैं। उनमें से ज्यादातर तरह-तरह की मानसिक कल्पनाओं को हथिया लेने के दिवा स्वप्न देखा करते हैं। कोई आकाशगमन की सिद्धि पाकर किसी अनजाने लोक की सैर करना चाहता है। किसी की इच्छा घर बैठे दूर की बात सुनने देखने की रहती है। प्रायः सभी व्यक्ति आध्यात्मिक साधनाओं को ऐसी किसी जादू की छड़ी के पाने का साधन मानते हैं, जिसे घुमाकर कुछ अद्भुत, अलौकिक आश्चर्यजनक पाया जा सके। दूसरों पर रौब गाँठा जा सके। जब मन आया तो अगत्स्य की तरह शाप देकर समुद्र सुखा दिया। जब मनमर्जी हुई तो विश्वामित्र की तरह इन्द्र को धमकाकर बरसात करवा दी।

क्या अध्यात्म सचमुच ही ऐसा है? जैसा उपरोक्त मान्यताएँ, प्रदर्शित करती हैं। इस सवाल पर प्राचीन काल के ऋषियों, मध्य युगीन संतों तथा आधुनिक महापुरुषों ने भली प्रकार विचार किया है। यही कारण है कि बुद्ध, महावीर, पातंजलि, कृष्ण सभी ने मानसिक एकाग्रता साधने के पहले पवित्रता अर्जित करने पर बल दिया है। बुद्ध, महावीर जहाँ अहिंसा सत्य आदि का ठीक-ठीक ढंग से पालन कर अंतराल को पवित्र करने पर बल देते हैं वहीं पातंजलि यम और नियम को योग की आधार भूमि मानते हैं।

यम का मतलब है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मवर्चस व अपरिग्रह का पालन। इसी तरह नियम का तात्पर्य है-शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और भगवत्समर्पण। इन सभी अंग-उपाँगों का एक ही उद्देश्य है अन्तराल की पवित्रता। गीताकार ने इसी को अर्जित करने हेतु मानसिक द्वन्द्वों से छुटकारा पाने और सभी से आत्म भाव स्थापित करने की बात कही है। योग पद्धतियों में मौलिक सामंजस्य स्थापित करने वाले श्री अरविन्द का “सिंथेसिस ऑफ योग“ में कहना है कि योग की राह पर चलने के लिए जरूरी है अन्तःकरण को पवित्र बनाना। बिना इसके इस कठिन रास्ते पर नहीं चला जा सकता।

इन अनुभवी महामानवों की चेतावनी के बाद भी अधिकतर अपनी साधना की शुरुआत ध्यान से करना चाहते हैं। ऐसा करने में उनको कहीं अधिक श्रेष्ठता और गौरव की अनुभूति होती है। पर सवाल यह है कि यदि पिछले छः अंगों की जरूरत न होती तो सूत्रकार इसे क्यों बताते। सही कहा जाय तो ऐसे लोगों का लक्ष्य जीवन को संवारना नहीं बल्कि मानसिक शक्तियों पर अधिकार पाना है। यही कारण है कि वे देर-सवेर अध्यात्म मार्ग से भटक जाते हैं।

मानसिक एकाग्रता से शक्तियाँ तो जरूर मिलती हैं। पर जहाँ पवित्र हृदय वाला व्यक्ति उनकी ओर ध्यान नहीं देता, अपने ध्येय में जुटा रहता है। वहाँ अपवित्र हृदय वाले उनका उलटा सीधा उपयोग करने लगते हैं। उनके लिये इन शक्तियों, सिद्धियों का मिलना बन्दर के हाथ में तलवार जैसा है, जो अपना गला स्वयं ही काट लेता है। इसी प्रकार इनकी जग हँसाई होती है और नष्ट भी हो जाते हैं।

रशियन गुह्यवेत्ता रासपुतिन ठीक ऐसा ही व्यक्ति था। उसने पवित्रता अर्जित करने की परवाह किए बिना तरह-तरह की साधनाएँ कीं। ठेठ तिब्बत एक खोज बीन की। पूर्व में प्रचलित एकाग्रता की अधिकाँश साधनाओं को आत्मसात किया। इस संबंध में उसकी साधना को गुरजिएफ व रमण से कम नहीं कहा जा सकता। पर अन्तःकरण की शुद्धि के अभाव के कारण उसने सारे काम गलत किए। जार तथा उसकी पत्नी को भी प्रभावित किया। किन्तु गलत कामों के कारण उसे जहर दिया गया, गोलियाँ मारी गई। गले में पत्थर बाँध कर बोल्गा में फेंका गया। उसका अन्त दुर्गति एवं असम्मान से हुआ। जबकि रमण व गुरजिएफ अपनी पवित्रता के कारण जन-जन के श्रद्धा भाजन बने।

यही कारण है ऋषि सन्त सभी एक स्वर से शरीर शुद्धि, मानसिक शुद्धि, आचरण व्यवहार शुद्धि की प्रधानता का प्रतिपादन करते हैं। इसके बिना ध्यान का कोई विशेष महत्व नहीं। जबकि इन पवित्रताओं से जुड़कर ध्यान-साधारण आदमी को महामानव स्तर तक पहुँचा देता है।

भगवान महावीर ने इस समूची स्थिति पर गहराई से विचार किया है। उन्होंने ध्यान की प्रक्रिया के दो भेद बताएँ हैं। पहला है धर्म ध्यान दूसरा है अधर्म ध्यान। यदि यह पवित्र अन्तःकरण के साथ जुड़ा हो तो धार्मिक। अन्यथा पूरी तरह से अधार्मिक है।

महर्षि पातंजलि अपने योग दर्शन की शुरुआत में ही यह बात साफ कर देते हैं। उनके अनुसार अभीष्ट “चित्त वृत्तियाँ का निरोध है” न कि केवल चित्त का। चित्त की एकाग्रता तो क्रोध में भी होती है। काम वासना से पीड़ित व्यक्ति को भी इसके अलावा कुछ नहीं सुझाई देता। उसका चित्त इसी में एकाग्र होता है। पर महावीर के शब्दों में यह एकाग्रता अधर्म ध्यान भर है।

एकाग्रता तो हिटलर के पास भी थी। इससे उपार्जित अपनी मानसिक शक्तियों के कारण उसने जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति को भी गुमराह कर दिया। उसने सम्मोहन जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी। जर्मनी की पराजय के बाद वहाँ के बुद्धिमान प्राध्यापकों ने अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में दिए गए अपने बयान में कहा कि हम सोच भी नहीं पाते कि हमने यह सब कैसे किया।

महत्वपूर्ण शक्ति का अर्जन नहीं, वरन् उसका उपयोग है। एक ही शक्ति बुरे व भले अन्तःकरण के अनुसार अपना प्रभाव दिखलाती है। बुरे कार्यों द्वारा इसका प्रभाव बुराई के रूप में, भले के द्वारा भलाई के रूप में होता है। बिजली एक सी है। अच्छे पंखे को वह शाँत भाव से चलाती है। पर यदि यही बिगड़ा हो, खड़-खड़ की आवाज करने के साथ टूट कर गिर भी सकता है। यही नहीं किसी का प्राण भी हरण कर सकता है।

एक ही परमात्म शक्ति राम के माध्यम से भी अभिव्यक्त होती है और रावण के माध्यम से भी। प्रभाव और क्रिया कलापों में जमीन आसमान का भेद अन्तःकरण की शुद्धि और अशुद्धि के कारण है। शुद्ध अन्तराल में वही शक्ति निर्माण करने वाली सृजन करने वाली, हो जाती है। जबकि अशुद्ध अन्तःकरण में वही विनाशक सिद्ध होती है। यह तथ्य स्वाति की बूँद की तरह है। यह बूँद साँप के मुँह में पड़कर जहर केले में कपूर व सीप में मोती बन जाती है, परिणामों में यह विभिन्नता आधारों में भेद के कारण है।

यही कारण है कि सभी ने हृदय की पवित्रता को अनिवार्य बतलाया है। यही नहीं धर्म और पवित्रता दोनों का पर्याय तक माना है। साधना की सफलता मन की एकाग्रता पर कम, यम-नियम के प्रति दृढ़ निष्ठ पर पूरी तरह निर्भर करती है। इसी को बताते हुए भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं, हजारों में से कोई बिरला साधना में प्रवृत्त होता है। पर भ्रान्तियों के कारण ऐसे साधकों में से कोई इना-गिना व्यक्ति ही परम तत्व को जान पाता है।


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