चेतना क्षेत्र की सुधि ली जाय

September 1991

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अभी भी संसार के कितने ही क्षेत्रों में ऐसे पिछड़े स्तर के मनुष्य रहते हैं, जिनके स्तर एवं साधनों में आदिम काल की अपेक्षा बहुत थोड़ा ही सुधार-परिष्कार हुआ है। इसका कारण एक ही है सभ्य संसार के साथ घुलने मिलने से कतराना और आधुनिक उपायों को अपनाने के लिए आकर्षित न होना जिनके सहारे सुविधा साधन बढ़ाए और प्रगति के उपलब्ध साधन हस्तगत किए जा सकते हैं। अलगाववादी प्रवृत्ति से इर्द-गिर्द के क्षेत्र में बढ़े चढ़े विकास क्रम के साथ उनका सम्बन्ध न जुड़ सका। एकाकी अलग थलग व्यक्ति अपनी अविकसित अन्तः प्रेरणा के आधार पर सर्वतोमुखी विकास कर सकें, यह संभव नहीं। पिछड़े हुए क्षेत्रों और वर्गों में यही कठिनाई छाई रहती है। इसी से वे सभ्यता की अनुशीलन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक आगे बढ़ न सके। किसी ने उनके पीछे पड़कर येन केन प्रकारेण उन्हें प्रगतिशीलता के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए बाधित नहीं किया। फल-स्वरूप आदिम काल से मिलती जुलती परिस्थिति से घिरे हुए अनेक मनुष्यों को, कबीलों को अभी भी दयनीय स्थिति में गुजर करते हुए देखा जा सकता है।

यह तथ्य न्यूनाधिक मात्रा में अधिकाँश लोगों पर लागू होता है। उनकी प्रगति, सम्पन्नता चतुरता एक पक्षीय रहती है। उन्हें जुटाने में ही अधिकाँश समय श्रम, मनोयोग एवं अनुभव खप जाता है। ऐसा आमतौर से होता है। क्योंकि शरीर को ही सब कुछ माना जाता है। उसी को अपना समग्र स्वरूप समझा जाता है और शारीरिक प्रसन्नता, सुविधा का सम्पादन ही सफलता का चिह्न माना जाता है। अभिरुचि ही कोई दिशाधारा अपनाती है। जिस दिशा में तत्परता -तन्मयता बढ़ती है उसी क्षेत्र में उपलब्धियाँ भी हस्तगत होती हैं। चूँकि शरीर को सुख, सुविधा पहुँचाने वाली साधन सम्पदा का उपार्जन उपभोग ही जीवन का लक्ष्य बनकर रह गया है, इसलिए उसी स्तर के उपार्जन -अभिवर्धन का माहौल बना और उत्साहवर्धक स्तर की सफलताएँ प्राप्त हुई है।

मनःस्थिति ही परिस्थितियों की निर्माता है। इच्छा संकल्प और पुरुषार्थ के समन्वय को ही उस उपार्जन का श्रेयाधिकारी माना जा सकता है जो व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हम सबको उपलब्ध है।

प्रस्तुत प्रगति को भौतिक प्रगति कहा जाता है। क्योंकि उसमें पंचतत्वों से बने भौतिक शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य पदार्थों को प्राप्त करना, उन्हें अनुकूल ढांचे में ढालना यही जीवन भर चलता रहता है। चिरकाल से इसी दिशा में सोचा जाता और प्रयास किया जाता रहा है। फलस्वरूप वे सुविधा सम्पदाएँ सामने हैं जो वैज्ञानिक आविष्कारों और निर्माण के माध्यम से विनिर्मित की गई हैं।

विज्ञान के दो पक्ष है एक पदार्थ विज्ञान, दूसरा चेतना विज्ञान-आत्म विज्ञान दोनों का अपना-अपना कार्य क्षेत्र और अपना-अपना प्रतिफल। चेतना के, आत्मा के सम्बन्ध में लोग कुछ कहते सुनते तो रहते हैं, पर उस सत्ता का स्वरूप, उद्देश्य, आनन्द खोजने के लिए उत्साहित नहीं होते। कारण यह कि भौतिक क्षेत्र के लिए आकर्षित उत्तेजित हुई मनोभूमि अपना समूचा चिन्तन और कर्तृत्व इसी एक केन्द्र पर नियोजित किए रहती है। यह सब चलता और बढ़ता भी इसलिए रहता है कि उसके लाभ परिणाम सबके समक्ष प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। जब कि चेतना का स्वरूप आत्मिक क्षेत्र की गहराई में उतरने अन्तर्मुखी होने और बारीकी से समझने पर ही स्पष्ट होता है। इतना झंझट कौन उठाए? सम्यक् दृष्टिकोण कौन अपनाए? उथला स्तर उथली उपलब्धियों से ही सन्तुष्ट हो जाता है। बच्चों के लिए गुब्बारा, झुनझुना, चाकलेट, बिस्कुट ही बहुत कुछ है। उसे बालू के घरौंदे और टूटी टहनियों के बगीचे लगाने में ही उत्साह रहता है क्योंकि उन कृतियों का प्रतिफल चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर होता है। बाल बुद्धि की सीमा प्रत्यक्षवाद तक ही सीमित है। जो तत्काल हाथ लगा, वही सब कुछ है। इन प्रयासों की भावी परिणति प्रतिक्रिया क्या हो सकती है? यह सोच सकना दूरदर्शी, विवेकशीलता का काम है। किन्तु कठिनाई यह है कि उस दिव्य दृष्टि को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता। कल्पना, विचारणा, कुशलता चतुरता जैसे सभी पक्ष भौतिक उत्पादन उपभोग में ही लगे रहते है। इतना अवसर, अवकाश ही नहीं मिलता कि चेतना की सत्ता शक्ति और महत्ता को गंभीरता पूर्वक समझने का प्रयत्न कर सके।

शरीर प्रत्यक्ष दीखता है। वैभव प्रत्यक्ष दीखता है। विनोद का अनुभव होता है। वाह वाही लूटने में भी अहंता की पूर्ति होती है। इसी परिधि में सामान्य जन सोचते और दौड़ धूप करते पाए जाते हैं। इन संसाधनों से सम्पन्न बनाने में पदार्थ विज्ञान ने सहायता की है। जब ध्यान केन्द्रित हुआ तो इच्छा एवं खोज भी चल पड़ी। फलतः उपलब्धियाँ भी हस्तगत होती और बढ़ती चली गई। स्थिति सामने है। प्रेस, रेडियो, टेलीविजन, बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर, तार, डाक, रेल, मोटर, जलयान, वायुयान, कल कारखाने आदि अनेकानेक उपकरण सुविधाएँ सँजोने के लिए सामने पड़े हैं। यह समस्त संसार पदार्थ को अपने ढंग से ढालने और उसके उपयोग करने हेतु नियोजित है। इनके सहारे सुविधा सम्पन्नता के नए-नए क्षेत्र हाथ लगते चले गए। भाषा, लिपि, दर्शन शिल्प चिकित्सा, आदि क्षेत्र में आश्चर्यजनक अनुसंधान हुए हैं। युद्ध में प्रयुक्त होने वाले ऐसे अस्त्र-शस्त्र विनिर्मित हुए हैं, जिनके सहारे एक सामान्य व्यक्ति क्षण भर में असंख्यों को धराशायी बना सकता है। यह सब पदार्थ विज्ञान की देन है। इनका यदि सदुपयोग बन पड़े तो निस्सन्देह मनुष्य इतना सुखी, सन्तुष्ट और प्रसन्न एवं समुन्नत बन सकता है, जितना कि स्वर्ग लोकवासियों के सम्बन्ध में सोचते और वैसा सुयोग प्राप्त करने के लिए ललचाते रहते हैं।

आश्चर्य इस बात का है कि तथा कथित प्रगति की चरम सीमा के निकट पहुँच जाने पर भी मानवी सत्ता दिन पर दिन दुर्बल होती जाती है। अस्वस्थता, दरिद्रता, कलह, उद्वेग, अशान्ति, असुरक्षा, आशंका की विपन्नता सामने आती जाती है। अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं पारस्परिक अविश्वास, भय, आतंक की परिधि छूने लगा है। परिवार टूटते जा रहे हैं, जो किसी तरह एक घर में निवास करते देखे जाते हैं, उनके बीच भी मनोमालिन्य, असन्तोष, अविश्वास सुलगता देखा जाता है। चैन कहीं नहीं व किसी को नहीं।

व्यक्तित्वों का स्तर गिर रहा है, प्रतिभाएँ बुझ रही हैं। मानवी गरिमा को ज्वलन्त रखने वाली, चिन्तन की उत्कृष्टता और चरित्र की आदर्शवादिता घटती-मिटती जा रही है। मनुष्य शरीर धारण किए होने पर भी लोग श्मशान वाली भूत, पलीत की मनःस्थिति जिए हुए, डरते-डराते जीवन व्यतीत करते देखे जाते हैं। दुर्व्यसनों की पकड़ इस प्रकार बढ़ती एवं प्रचण्ड होती जाती है, जिसकी तुलना पौराणिक रूप में ग्राह द्वारा ग्रसे गए गज से की जा सके।


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