मानवी गरिमा की गौरव भरी उपलब्धियाँ

September 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रवाह की दो दिशाएँ हैं एक नीचे गिरने की दूसरी ऊपर उठने की। हिमालय के उच्च शिखर पर जमा हुआ धवल हिम जब पिघलता है तो उससे बनी जल राशि क्रमशः नीचे की ओर बहने लगाती है। कुछ समय तो वह जल सामान्य रहता है पर नीचे की ओर बहते-बहते वह गँदला होता जाता है। अपने साथ कूड़ा कचरा और धरती के रसायन समेटता ले जाता है। अंततः ऐसे स्थान पर जा पहुँचता है जहाँ खारे जल से भरा समुद्र भरा है। उस पानी को पशु पक्षी तक नहीं पीते। सिंचाई के काम तक में उसका उपयोग नहीं होता। यह पतन का क्रम है।

उत्थान की राह दूसरी है। समुद्र से भाप उठती है। बादल बनकर आगे बढ़ते हैं। पहाड़ों पर बर्फ का रूप धारण करती है। मैदानों को हरीतिमा शस्य श्यामला बनाती है। जलाशयों को शीतल और सजीवता से परिपूर्ण करती है। प्राणी आहार और पानी प्राप्त करते और जीवित रहते हैं, यह उत्कृष्टता अपनाने का क्रम है। उनका स्वागत करने के लिए मोर, मेंढक तक गीत गाते हैं।

जीवन एक दैवी अजस्र अनुदान है। इसे पतन के गर्त में भी गिराया जा सकता है और उत्थान की दिशा में भी अग्रसर किया जा सकता है। बुद्धिमत्ता और मूर्खता की पहचान इसी कसौटी पर होती है कि दोनों में से किसे चुना गया। कदम किस ओर बढ़ाया गया। यहाँ दूरदर्शिता ही अपना अपना दबाव डालती है। अदूरदर्शिता इसलिए जीत जाती है कि उसमें तत्काल का रसास्वादन करने का आकर्षण जुड़ा रहता है। दूरदर्शिता बाजीगर के तमाशे दिखाकर बच्चों को ललचाने जैसी है। उसी में हथेली में सरसों जमाने वाले कौतूहल भी जुड़े हुए हैं। बच्चे पढ़ाई छोड़ कर बाजीगर के तमाशे को देखने के लिए ढेरों समय उसके पीछे लगे फिरने में गुजारते हैं। वट वृक्ष को बढ़ने और फलने में समय लगता है। पर उसकी दृढ़ता विशालता और आश्रय देने वाली गरिमा बढ़ी चढ़ी होती है। खरपतवार तो अनायास ही उग पड़ते हैं। उखाड़ने पर भी बार बार उगते रहते हैं। पर बहुमूल्य पादपों को सतर्कतापूर्वक सींचना पड़ता है। खाद पानी देने और रखवाली का दायित्व वहन करना पड़ता है। यहीं विवेक की परीक्षा होती है। बाल बुद्धि ललचाती और बेतहाशा दौड़ में फिसल पड़ती है। किन्तु समझदारी धैर्य, साहस, लगन का परिचय देती है। औचित्य ही अपनाती है। राजहंस की तरह दूध ग्रहण करने पानी छोड़ देने की कला प्रदर्शित करती है, मोती चुगने और कीड़ों पर हाथ न डालने की उनकी व्रतशीलता आजीवन निभती रहती है। इसी को मानवी गरिमा की गौरव भरी उपलब्धि कहते हैं। आत्म परिष्कार-दृष्टिकोण का परिमार्जन ही वह पराक्रम है, जिसके आधार पर मनुष्य जीवन धन्य बनता है।

औसत व्यक्ति अनुकरण प्रिय होता है। जो कुछ इर्द-गिर्द घटित होता रहता है, वही उसके लिए उचित एवं अनुकरणीय बन जाता है। बचपन में तो प्रगति का यही एक मात्र आधार अवलम्बन होता है, जिस भाषा को परिवार बोलता है, उसी को बच्चे सीखते और बोलते हैं। जिस प्रकार का आहार आच्छादन घर वालों को पसंद होता है, उसी प्रकार का बच्चे भी पसंद करने लगते हैं। आचरण रुझान भी उसी प्रकार का बन जाता है। इस आरंभिक प्रगति प्रक्रिया से सभी परिचित हैं। बड़े होने पर भी यह प्रवृत्ति मान्यताओं, आकाँक्षाओं और विचारणाओं पर भी छाई रहने लगती है। देखा जाता है कि लोक चिन्तन एवं जन स्वभाव पर पशुवृत्तियाँ ही छाई रहती हैं। वे जन्म जन्मांतरों की संचित संपदा जो होती हैं। आम प्रचलन भी उन्हीं का पोषक समर्थक होता है। इस प्रकार अंकुर को खाद पानी मिलता रहता है और प्रवृत्ति उसी ढांचे में ढलती रहती है, उसी प्रवाह के साथ बहने लगती है।

नदी नालों में हल्के पत्ते, तिनके भी प्रवाह की दिशा में अनायास ही बहते चले जाते हैं। आम लोग भी यही करते हैं। पशुओं में आत्म पोषण ही प्रधानता होती है। वे स्वार्थ सिद्धि की ही दृष्टि रखते हैं। दूसरों के हितों का ध्यान रखना उन्हें आता ही नहीं। पुण्य परमार्थ जैसी उत्कृष्टता उनके स्वभाव में सम्मिलित ही नहीं होती है। उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अंगीकार करना, अपनाना तो तभी बन पड़ता है जब मनुष्यता प्रौढ़ परिपक्व होती है। वैसी स्थिति न आने तक सर्व साधारण को नर पशुओं जैसी रीति नीति अपनाते देखा जाता है। झुण्ड के साथ चलना, पक्षियों का समूह में उड़ना तो सभी देखते हैं पर जहाँ तक अनगढ़ आचरण का संबंध है लोग एक दूसरे के साथ चलते और एक दूसरे के साथ आचरण करते देखे जाते हैं, उसके लिए कहीं पढ़ने सीखने नहीं जाना पड़ता। पशु पक्षी किसी का भी उगाया चारा दाना खाने लगते हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान विचार नहीं होता कि सीमा मर्यादा में रहना चाहिए और दूसरों के उपार्जन का अपहरण नहीं करना चाहिए। वे जहाँ भी हरियाली देखते हैं वहीं टूट पड़ते हैं। भले ही वह कृषि निर्धन की ही क्यों न हो? भले ही किसी ने कितना ही कष्ट सहकर उसे उगाया हो, जो भी जहाँ भी जिसका भी मिले उसे बिना कुछ संकोच किये चरने लगना सभी क्षुद्र जीव जन्तुओं की रीति नीति होती है।

पशुओं को स्वच्छता मलिनता का अन्तर भी विदित नहीं होता। जहाँ वहाँ मल मूत्र त्यागते रहते हैं। बुहारना उन्हें आता ही नहीं। सुरुचि सम्पन्न होने के लिए उनके पास कोई मार्गदर्शन नहीं होता। इसलिए उन्हें मलिन स्थितियों में रहने का ही अभ्यास पाया जाता है। मर्यादाओं और वर्जनाओं का अन्तर करना भी उन्हें नहीं आता। अन्य समुदायों में नर मादा मात्र का सम्बन्ध ही रहता है। माता, पुत्र, भाई, बहन आदि की भी कोई पवित्र मर्यादा नहीं रहती है। स्वच्छन्द यौनाचार उनका स्वभाव होता है। मनुष्य भी यदि इन्हीं आचरणों को अपना ले तो उसकी स्थिति आदिम युग के कबीले वालों से भी अधिक गई बीती हो जायगी। गई बीती इसलिए कि मनुष्य के पास अपेक्षाकृत बुद्धिबल भी अधिक है और साधनों की बहुलता भी उपलब्ध करती है। विज्ञान ने कई प्रकार के साधन और समर्थता बढ़ाने वाले अनुदान भी उसे दिये हैं। इन सब पर यदि नागरिकता सामाजिकता जैसे अंकुश न रहें, धर्म कर्तव्य अपनाने का अनुबंध न रहे, शासन और समाज का दबाव हट जाय, तो वह सहज ही उद्दण्डता की चरम सीमा तक पहुँच सकता है।

पशुओं पर प्रकृति प्रेरणा का एक अंकुश तो है पर मनुष्य ने तो उसे भी अमान्य ठहरा दिया है। अन्य प्राणियों में यौनाचार मादा की माँग पर मात्र गर्भधारण की वंश परम्परा चलाने के निमित्त होता है, पर मनुष्य ने तो कामुकता को हर प्रकार से अमर्यादित ठहरा दिया है। उसने इस संदर्भ में प्राणी जगत में चलने वाली समस्त मर्यादाओं को तहस-नहस कर दिया है। सिंह जैसे हिंस्र प्राणी भी शिकार पर तभी आक्रमण करते हैं जब उन्हें भूख लगती है और पेट खाली रहता है। किन्तु मनुष्यों में से भरे पेट वाले ही अधिक लालची, संग्रही, तृष्णातुर देखे जाते हैं और इन्द्र कुबेर बनने की महत्वकाँक्षाओं के लिए निरन्तर उद्विग्न बने रहते हैं। सामान्य प्राणियों के पास तो उनके दाँत और पंजे शस्त्र हैं पर मनुष्य तो ऐसे आग्नेयास्त्रों से सम्पन्न हो गया है कि अपने से कितने ही अधिक समर्थों को देखते धराशायी कर सकता है। इन परिस्थितियों को देखते हुए हिंस्र अथवा बुद्धिहीन समझे जाने वाले जीवों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक विघातक हो गया है। वह जब दुष्टता पर उतरता है तो ऐसे अनर्थ खड़े करता है जिन्हें पाश्विक न कहकर पैशाचिक कहने में ही औचित्य है।

देखा जाता है कि इसी स्तर के लोगों का समुदाय में बाहुल्य है। बाहर से सफेद पोश दीखने वालों में से अधिकाँश ऐसे होते हैं जिन्हें चमकीले पन्ने से सुशोभित घड़े में विष भरा हुआ होने की उपमा दी जा सकती है। नीति और न्याय का बखान करते रहने वालों में से अधिकाँश ऐसे देखे जाते हैं जिनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। छद्म और प्रपंच अनेक आकार, प्रकार अपनाकर मनुष्य की व्यावहारिकता में सम्मिलित हो गया है। ऐसे बहुमत वाले समाज में रहा,पला और बढ़ा व्यक्ति स्वयं आदर्शवादी ढांचे में ढल सकता है, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। वातावरण के दबाव और परिस्थितियों के प्रवाह में साधारण स्तर का मनुष्य उसी दिशा में बढ़ सकता है, जिसे पाशविकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसे अपनाने पर आत्मप्रवंचना जन्य आत्म प्रताड़ना ही हर किसी को सहनी पड़ सकती है। वस्तुस्थिति प्रकट हो जाने की आशंका सदा बनी रहती है और लगता रहता है कि अनीति अपनाने की आदत जब प्रकट हो जायेगी तो कोई साथी सहयोगी न रहेगा। किसी का भी विश्वास न रहेगा। सच्चा सम्मान और गहरा सहयोग करने वाला मित्र एक भी न बना रहेगा। पाशविकता के यही प्रत्यक्ष प्रतिफल हैं। मनुष्य कलेवर में उसे अपनाये रहना वैसा ही है जैसा कि किसी प्रौढ़ व्यक्ति को छोटे बच्चे के कपड़े पहना कर उपहासास्पद बना दिया जाय।

अन्य प्राणियों में शरीर और मन ही प्रधान रहता है। अन्तःकरण तो उनमें अति प्रसुप्त स्तर पर ही देखा जाता है। पर मनुष्य की तो अन्तरात्मा भी प्रबल है। उसमें औचित्य अपनाने पर प्रसन्नता प्रफुल्लता उभरती है और अनीति का अवलम्बन करने पर आत्मक्रान्ति से भरी हुई उद्विग्नता उफनती है। जिसके रहते कोई भी अर्ध विक्षिप्त स्थिति में ही जीवन यापन कर सकता है। मनोविकारों की भरमार हो तो न शरीर स्वस्थ रह पाता है और न मन में शान्ति स्थिर रह सकती है। ऐसी विपन्नता से जकड़ा हुआ व्यक्ति चित्र विचित्र आधि-व्याधियों से जकड़ा रहता है। सही सोचने और सही करने के लिए जिस अन्तःकरण की आवश्यकता है, उससे स्थिति भी विपन्न हो जाती है और सही दिशा में सही कदम उठा सकने की समर्थता पलायन कर जाती है। ऐसे व्यक्ति शरीर से, अस्वस्थ मन से असंतुलित अन्तःकरण से उद्विग्न पाये जाते हैं। ऐसा गया गुजरा व्यक्तित्व लेकर न कोई चिरस्थायी भौतिक सफलता अर्जित कर सकता है और न आत्मिक क्षेत्र में उत्कृष्टता का रसास्वादन कर सकना संभव होता है। उसे डरती डराती भूत पिशाचों जैसी जिन्दगी जीनी पड़ती है। वे या तो मरघट जैसी घिनौनी परिस्थितियों में रहने के लिए जा पहुँचते हैं या फिर वे विपन्नताएँ जहाँ तहाँ से दौड़ती हुई उस अनगढ़ पर बेहतर लद जाती हैं। अनेकों दुर्व्यसनों, आदतों में सम्मिलित हो जाते हैं। गुण, कर्म, स्वभाव में आदि से अंत तक निकृष्टता ही छाई रहने लगती है। इसे इसी धरती का इसी जिन्दगी का, प्रत्यक्ष नरक कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। पशु प्रवृत्तियों के अभ्यस्त व्यक्ति प्रायः ऐसे ही घुटन भरे वातावरण में आधी अधूरी साँस लेते और ज्यों त्यों करके जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं। इस नारकीय निकृष्टता ने जिन्हें घेर रखा है, उन्हें हर दृष्टि से दुर्भाग्यग्रस्त ही कहा जायगा। भले ही उनके पास बलिष्ठता, सुन्दरता, सम्पन्नता एवं अहंकार बढ़ाने वाले ठाटबाट के पहाड़ अम्बार ही क्यों न लदे हों? अच्छा यही है कि इस स्थिति से उबरने का प्रयत्न किया जाए।

मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने में समर्थ हो सकना ही, मनुष्य जीवन में देवत्व की उपलब्धि एवं अनुभूति है। जीवित रहने, स्वर्ग का रसास्वादन कर सकने का सुयोग सौभाग्य भी यही है। इसके लिए इतना ही करना पड़ता है कि अपनी मान्यताओं, भावनाओं, आकाँक्षाओं, और विचारणाओं को आदर्शवादिता के राजमार्ग पर चल सकने के लिए समर्थ बनाया जाय, उद्यत किया जाय। निर्वाह में संयम बरता जाय। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धाँत जीवनचर्या में सर्वतोभावेन सम्मिलित किया जाय। तृष्णाओं, लिप्साओं और महत्वाकाँक्षाओं पर अंकुश लगाया जाय। संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि से बाहर निकला जाय, आगे बढ़ा जाय और ऊँचा उठा जाय। जो इस दिशा में जितना ही अग्रसर हो सकेगा उसकी प्रामाणिकता, प्रखरता और प्रतिभा उसी अनुपात में निखरती चली जायगी। अपूर्णताओं को विकसित


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118