गायत्री साधना एवं ब्राह्मणत्व

September 1991

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जिन्होंने ब्राह्मणत्व की साधना कर ली है, गुण कर्म, स्वभाव एवं चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से अपने को उत्कृष्ट आदर्शवादिता के साथ जोड़ने की प्रारंभिक जीवन साधना सम्पन्न कर ली है, वे सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है। ऐसे व्यक्तियों को ही ब्रह्मतेज उपलब्ध करने, सिद्धियों को हस्तगत करने में सफलता मिलती है। उन्हें ही साधारण उपासना तक सीमित न रह कर गुप्त और रहस्यमयी गायत्री साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने का अधिकार मिलता है। ऐसे लोग योग और तप में संलग्न होकर उसका तत्वज्ञान हृदयंगम कर जीवन शोधन कर उसे ऊँचा उठा पाने में सफल होते हैं।

देवी भागवत में उल्लेख आता है-

‘ब्रह्मत्वं चेदाप्तुकामऽस्युपास्व गायत्रीं चेल्लोक कामोऽन्यदेवम्।’

अर्थात्- जिसे ब्रह्मतेज प्राप्त करने की इच्छा हो, वह गायत्री महाशक्ति की उपासना करे। जिसे अन्य कामनाओं की ललक हो वह अन्य देवताओं को पूजे।

गायत्री उपासना से साक्षी बुद्धि-ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। यही वेदों का सार है। पापों से निवृत्ति और पवित्रता की सिद्धि इसी से मिलती है। ब्रह्म तत्व की उपासना करने वाले के लिए यही साक्षात् ब्रह्म है। यह शिरोमणि मंत्र है। इससे बढ़कर तंत्र या पुराण में कोई भी मंत्र नहीं है। इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है-

‘ब्रह्मण्य तेजो रूपा च सर्वसंस्कार रुपिणी।

पवित्र रूपा सावित्री वाँछति ह्यात्म शुद्धये’॥

अर्थात्- गायत्री ब्रह्मतेज रूप है, पवित्र एवं संस्कार रूपिणी है। आत्मशुद्धि के लिए उसी की उपासना करनी चाहिए।

‘सावित्र्याश्चैव मन्त्रार्थ ज्ञात्वा चैव यथार्थतः।

तस्या संयुक्त द्योपास्य ब्रह्मभूयाय कल्पते॥’

अर्थात्- सावित्री-गायत्री का गूढ़ मर्म और रहस्य जानकर जो उसकी उपयुक्त करता है, वह ब्रह्मभूत ही हो जाता है।

सार यह कि गायत्री ब्रह्मरूपिणी है। ब्राह्मणत्व की स्थापना के लिए उसी की उपासना करने का निर्देश देते हुए कहा गया है ‘ब्रह्मत्वस्य स्थापनार्थं’ प्रविष्टा गायत्रीयं तावतास्य द्विजत्वम्। (ब्राह्मणत्व की स्थापना के लिए गायत्री की उपासना करें) इसी से द्विजत्व-दूसरा देव जन्म भी प्राप्त होता है।

स्कन्द पुराण में महर्षि व्यास का कथन है-

‘गायत्रेवतपो योगः साधनं ध्यानमुच्यते।

सिद्धिनाँ सामता माता नातः किंचिद् वृहत्तरम्॥

अर्थात्- गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक प्रयोग और कोई नहीं है।

भगवान मनु भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हुए कहते हैं-

‘सावित्र्यास्तु परन्नास्ति।’ अर्थात्- गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

गायत्री मंजरी में शिवजी कहते हैं-

योगिकानाँ समस्तानाँ साधनानातु हे प्रिये,

गायात्र्येव मतार्लोके मूलधारा विदोवरैः॥

अर्थात्- हे पार्वती! समस्त योग साधनाओं का मूलभूत आधार गायत्री है।

देवल ऋषि के अनुसार गायत्री की उपासना करके ही काश्यप, गौतम, भृगु, अंगिरा, अत्रि, भारद्वाज, बृहस्पति, शुक्राचार्य, अगस्त्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि ने ब्रह्मर्षि पद पाया और इन्द्र, वसु आदि देवताओं ने असुरों पर विजय पाई।

अथर्ववेद में कहा भी है- ‘तदंब्रह्म च तपश्च सप्त ऋषयः उप जीवन्ति ब्रह्मवर्चस्युय जीवनीयो भवति य एवं वेद।’ अर्थात् - सप्तऋषि ब्रह्मतेज के आधार पर ही प्रतापी हैं। यह ब्रह्मवर्चस् उन्होंने तप के द्वारा ही प्राप्त किया।

महाभारतकार का स्पष्ट निर्देश है कि-

‘पराँसिद्धिमवाप्नोति गायत्रीमुत्तमाँ पठेत।’

अर्थात्- परासिद्धि प्राप्त करने सर्व श्रेष्ठ गायत्री को ही जपना चाहिए।

गायत्री को सर्व सिद्धि प्रदाता कहा गया है। ‘गायत्र्या सर्व संसिद्धिर्द्धिजानाँ श्रुति संमता।’ अर्थात् वेद वर्णित सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती हैं।

वस्तुतः इस जड़ चेतन जगत में गायत्री ही शक्ति रूप से विद्यमान है। वही सोम और सावित्री भी है। साधना क्षेत्र में इसी को जीवनी शक्ति, प्राण ऊर्जा, कुण्डलिनी शक्ति आदि नामों से पुकारते हैं। ब्राह्मी ऊर्जा उपार्जित कर लेने वाले तेजस्वी ही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण कहलाते हैं। ब्राह्मणत्व का आधार गायत्री महाशक्ति ही है। ओजस, तेजस् एवं वर्चस् की उपलब्धि गायत्री साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने पर ही हस्तगत होती है।


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