विभूतियों को खोना न पड़े (Kahani)

September 1991

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डॉ. अलबर्ट श्वाइत्जर लेमबार्ने (अफ्रीका) में अपना आश्रम बनवा रहे थे। वे स्वयं सारे काम की देखभाल कर रहे थे, तभी अचानक तूफान के आसार दिखायी दिये। तूफान आने से पहले ही कुछ सामान सुरक्षित स्थान तक पहुँचाना आवश्यक था। पास ही एक आदिवासी बैठा था, जो पढ़ा-लिखा कारीगर लगता था। समय बहुत कम था, इसलिए डॉ. श्वाइत्जर ने उस आदिवासी से सहायता करने के लिए कहा। वह व्यक्ति अपनी जगह से टस-से-मस न हुआ और दर्प के साथ बोला “मैं पढ़ा-लिखा सम्भ्रान्त व्यक्ति हूँ, मजदूर नहीं। मैं बोझा उठाने का काम नहीं कर सकता।”

डॉ. श्वाइत्जर के पास डॉक्टरेट की तीन उपाधियां थीं और उन्हें नोबुल पुरस्कार भी मिल चुका था। फिर भी वे हिचकिचाये नहीं और अकेले ही सामान उठाकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचाने के काम में जुट गये। सारा काम पूरा कर चुकने के बाद उस आदिवासी के पास आये और बड़े प्यार से बोले “भाई मैं भी सम्भ्रान्त व्यक्ति बनना चाहता था लेकिन अफसोस कि मुझे सफलता नहीं मिल सकी।”

उन्हें अमर बनाये रखूँगा। एक श्रुतिधर चक्रपाणि द्वारा संकलित जगन्नाथ मिश्र की वह गंगा स्तुति ही बाद में “गंगालहरी” के नाम से प्रख्यात हुई, जो उन्हें अब तक अविस्मरणीय बनाये हुए हैं।

कहीं ऐसा न हो कि आज ऐसी ही प्रथा-परम्पराओं के नाम पर प्रतिभाओं को समाज खोता चला जाय। समाज को समय और परिस्थिति को ध्यान में रख कर तनिक लचीलापन अपनाना होगा और पनपती कुरीतियों को अंकुरित होने से पूर्व, समय रहते उखाड़-पछाड़ कर फेंकना पड़ेगा, ताकि फिर कभी जगन्नाथ मिश्र जैसी विलक्षण विभूतियों को खोना न पड़े।”


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