गुरु ध्यान मग्न थे। सामने से व्याघ्र आता देखकर शिष्य भागा और पेड़ पर चढ़ गया। व्याघ्र आया। समाधिस्थ संत को सूँघ और कुछ सोचकर वापस चला गया।
यात्रा दूसरे दिन भी चली। दोनों साथ थे। रास्ते में भेड़िया सामने आया। गुरु ने डंडा फटकारा और भगाने के लिए पत्थर फेंका। भेड़िया भाग गया।
शिष्य ने गुरु से पूछा-कल व्याघ्र आपको सूँघ रहा था तब अविचल बने रहे। आज छोटे से भेड़िये से डर रहे हैं और उसे खदेड़ने में लगे हैं। ऐसा क्यों?
गुरु ने कहा “कल मेरे साथ समर्थ भगवान था। आज तुम्हारे जैसे दुर्बल की सहायता पर मेरा जरा भी भरोसा नहीं है।”
उपासना है। ऐसे भावनाशील संसार को भगवान का उद्यान मानकर स्वयं कर्तव्य पारायण माली की तरह उसके उत्कर्ष अभ्युदय में अपना समय, श्रम, मनोयोग एवं साधन लगाते रहे हैं। यह कर्मयोग भी है। गीता में इसी का प्रधानतः प्रतिपादन है।
आस्तिकता की भावना मनुष्य की उच्छृंखलता पर अंकुश लगाती है। ऊँट को नकेल, बैल को नाथ घोड़े को लगाम, हाथी को अंकुश के सहारे वश में किया जाता है। सरकस के जानवरों को उनका शिक्षक चाबुक से डराकर इच्छित कृत्य सिखाता और कराता है। ईश्वर विश्वास भी यही करता है।