भगवान राम को वनवास मिला। सीता ने अर्धांगिनी के नाते उनकी सेवा सहायता के लिए साथ जाने और कष्ट सहने का निश्चय किया। दोनों एक आदर्श की स्थापना के लिए जा रहे थे। साथ ही उनके सामने अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना का उच्चस्तरीय उद्देश्य भी था।
सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण को उनके साथ जाने का प्रोत्साहन दिया। निजी सुविधाएँ छोड़ने और आदर्श स्थापना के लिए कष्ट सहने में उन्होंने पुत्र का अहित नहीं, लाभ देखा। लक्ष्मण तैयारी करने लगे तो उनकी पत्नी उर्मिला ने मोहवश उस में अवरोध उत्पन्न नहीं किया। चौदह वर्ष अकेले काटने और पति के कष्ट सहने में दुःखी होते हुए उनने इसी आदर्श स्थापना में सब की भलाई सोची और पति को प्रसन्नतापूर्वक वन जाने की आज्ञा दे दी। उस समय ऐसी ही महान महिलाएँ अपने देश में घर-घर में थीं।
धिक्कार है ऐसी विद्वता और विद्वानों को, जो परम्परा के नाम पर प्रथा की दुहाई देते हुए किसी को मिटा दे, संसार से उठा दे? शास्त्र हमें लकीर का फकीर नहीं बनाते, तोता रटन्त की विद्या नहीं सिखाते? वे हमें विद्वान के साथ-साथ बुद्धिमान और विवेकवान भी बनाते हैं। समय और परिस्थिति के अनुरूप दूरदर्शिता का कैसे उपयोग किया जाय-यह भी बताते हैं, पर आज आपने जो कृत्य किया है, उससे न सिर्फ हमारे पवित्र ग्रन्थ और उनके रचयिता अपवित्र हुए हैं, वरन् समस्त ब्राह्मण समुदाय के सिर पर कलंक का एक ऐसा टीका लग गया, जो शायद ही कभी मिटे। जब भी कभी इस घटना की चर्चा होगी तो बाद की पीढ़ियां कोसती हुई यही कहेंगी कि तत्कालीन समय में शास्त्र रटने वाले विद्वान तो थे, पर वे बुद्धिमान और विवेकवान थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।”
युवक का स्वर उत्तेजित होता चला जा रहा था एवं विद्वत् मण्डली सर्वथा मौन रह कर सिर झुकाये उसे सुनती चली जा रही थी। इसी बीच चक्रपाणि को शान्त न होते देख पं. शशिधर उठे और उसे एक ओर ले जाकर समझाने का प्रयास करने लगे।
युवक पुनः उत्तेजित हो उठा।
“महाभाग! आप भी उन्हीं का समर्थन करने का प्रयास कर रहें हैं।”
“क्या करूं चक्रपाणि मैं भी विवश हूँ” सजल नेत्रों से उन्होंने कहा “जगन्नाथ मेरा घनिष्ठ मित्र था। उनकी कठोर सजा सुनकर मेरे भी प्राण जुबान तक आ गये थे, पर अकेला मैं कर भी क्या सकता था। मुझे भी तो इसी समाज में रहना है, जाति बहिष्कृत तो होना नहीं। इन्हीं कारणों से मजबूर होकर मौन रहना पड़ा।”
“तो फिर यह क्यों नहीं कहते आचार्य कि आप भी कायर हैं, भीरु हैं, डरपोक हैं।”
“चाहें जो समझ लो, किन्तु मुझे भी इस पाप का हार्दिक दुःख है और उसका प्रायश्चित भी मैं अवश्य करूंगा” पंडित शशिधर का कातर स्वर था।
युवक का स्तर अब कुछ शान्त हुआ। उसने विनम्रतापूर्वक कहा-”महाभाग! आप हमसे अनेक वर्ष आयु में बड़े हैं। हृदय की बात कहते संकोच होती है, पर कहे बिना मन शान्त भी न हो सकेगा।”
“तो सुनिये” युवक ने कहा “आपने वह भोज-वर्णन तो सुना ही होगा?”
“कौन-सा?” आश्चर्य मिश्रित प्रश्न था।
“वही-विभुना च सभा सभयाच विभु, विभुना सभयाच विभाति वयं।” अर्थात् विद्वानों से सभा की शोभा होती है और सभा से विद्वानों की तथा दोनों से हम लोगों या समग्र समाज की शोभा होती है।
“हाँ-हाँ सुना है” शशिधर चहक उठे।
“तो क्या आप यह नहीं मानते कि आज जो कुछ घटित हुआ उससे न सिर्फ विद्वानों और सभा की शोभा मारी गई अपितु समाज की महिमा भी धूमिल हुई है।”
स्वीकृति में आचार्य ने सिर हिला दिया और फिर चिर मौन धारण कर लिया। किन्तु युवक कहता जा रहा था- “काश! आज वे जीवित होते, तो उन्हें मैं आश्रय देता। भले ही इसके लिए मुझे परिवार और जाति से संघर्ष ही क्यों न करना पड़ता पर अब जब वे नहीं रे, तो मैं उनकी गंगा स्तुति को ही लिपिबद्ध करके उस महान विभूति के प्रति अपनी श्रद्धाँजलि अर्पित कर